कहानी-
राजनारायण बोहरे
तब गांव में इक्का दुक्का लोग ही जागे होंगे, जब अकेली सुभद्रा ने स्टेशन आकर सीधे भोपाल की ट्रेन पकड़ ली थी। वह
रात भर से दादा की तबियत बिगड़ने की खबर से
हलकान थी। पप्पू के
फोन से सिर्फ इतना पता लगा था
कि तबियत ज्यादा खराब है सो भोपाल ले आये हैं और
फोन बंद हो गया था, फिर बेटे ने बहुत लगाया पर बात नहीं हो पाई।
भोपाल की ट्रेन दादा के गाँव यानी सुभद्रा के मायके से हो कर
निकलती है। बस्ती से
चार किलोमीटर दूर रेल पटरी के समानांतर ही सड़क और सड़क किनारे ही दादा के खेत हैं। पूरी चौंतीस बीघा जमीन है। पुराना आम का बगीचा, नीम के घनी छांव वाले पेड़ , बैलों से
चलने वाले रेंहट के
जमाने का पुराना कुंआ और घर के
बुजुर्गों की समाधियाँ हैं इस जमीन पर। सुभद्रा की बहुत सी यादें जुड़ी हैं इन खेतों से। ...अम्माँ की डांट खाकर इन्ही खेतों में समय बिताती थी सुभद्रा। ...वैशाख के
महीने में अक्ति (अक्षयतृतीया) के दिन अपने गुड्डे का ब्याह इन्ही आमों की
छांव में करती थी
अपनी सहेलियों के साथ । ...घर में जब भी शादी हुई नये बच्चों के
रक्कस की पूजा खेत के कुयंे पर
ही होती आई है। ...दीवाली के
बाद इच्छा-नवमी के
दिन आंवले के पेड़ के नीचे बैठ कर बचपन में दादा , सरूप और सुभद्रा ने हर
साल खाना खाया है
। बारहमास फलने वाले अमरूदों में लगे गदराये और सुआ-कटेल खट्टे फल पेड़ से
तोड़कर खेतों में टहलते हुए खाने का
मज़ा लिया है उसने। खेतों की याद आते ही दादा याद आये....और
आँखों में पानी भर
आया सुभद्रा के।
सड़क पर जहाँ चार किलोमीटर वाला पत्थर गड़ा है
वहीं से खेत शुरू होते हैं उनके। सुभद्रा ने खिड़की की कांच के बाहर ताका तो सामने ही दिखा किलोमीटर का पत्थर। लेकिन यह क्या ? जी
धक्क से रह गया उसका। मेढ़ पर
खड़ा नीम का पेड़ नहीं था अपनी जगह पर। खिड़की पर झुक कर
ध्यान से देखा तो
और ज्यादा अचरज हुआ... पेड़ कटा हुआ पड़ा था
जमीन पर। ये क्या हुआ। सुभद्रा ने
महसूस किया कि सिर्फ आँख से आँसू नहीं बल्कि सीधे दिल से
भी कुछ बहने लगा है । साड़ी का पल्लू लिया और अपने चेहरे पर रख लिया उसने।
... और बचपन की यादों व आँसू के
गीलेपन के बीच आँख लग गई सुभद्रा की। जब नींद खुली तो ट्रेन भोपाल में प्रवेश कर रही थी।
पता नहीं दादा किस अस्पताल में भर्ती होंगे कैसे पता लगाये वह ? एक नया सवाल उसके सामने था।
यकायक याद आया, ...रात को जब बेटे के पास दादा के लड़के का
फोन आया था, तब
उसने कहा था- गैस पीडितों वाले अस्पताल में भर्ती करवाया है पिताजी को। सुभद्रा की उलझन कम हुई, गैस पीड़ितों वाला अस्पताल तो वह ढूंढ़ लेगी किसी तरह।
अस्पताल में भर्ती कराया, इसका मतलब है
कि दादा की हालत गम्भीर है-सुभद्रा तभी से सोच रही है कि
अचानक ऐसी गंभीर हालत कैसे हो गई
उनकी। पिछली बार वे
कैसे हªष्ट-पुष्ट और नौने-नीके लग रहे थे।
उसे लगा कहीं उसकी नजर तो नहीं लग गई दादा को.......। हां राखी वाले दिन सुभद्रा ने दिल खोलकर तारीफ की
थी दादा की। कहा था कि आज
बहुत सुन्दर लग रहे हो दादा, कोई कह नहीं सकता कि इतनी उमर जीत ली आपने।
राखी बंधाने के बाद दादा ने पूछा, बोल सुभद्रा इस
बार क्या चाहिए तुझे। तो वह फटाक से बोली थी
कि आपने सब कुछ दे दिया दादा मुझे कुछ नहीं चाहिए। राम करे आप ऐसे ही
हट्टे-कट्टे और खुश मिज़ाज बने रहें।
सुनकर दादा मुस्कराये थे। राखी के त्यौहार पर पहनने के
लिए कोसा का कुर्ता और सफेद खादी का पैजामा सिलवाया था दादा ने, जो उन पर
खूब जंच रहा था। वे फिर बोले- अरी पागल कुछ तो कह! क्या शौक है तुझे?
वह बोली थी-अब कौन सा शौक बचा रह गया मेरा ? पूरे सुख है अपन को। अपन भाई बहन भरी-पूरी उमर जी चुके, ...स्वस्थ हैं और सुखी भी। आप अस्सी ऊपर दो साल के होने को
आये और मैं स़़त्तर साल की हो
चुकी। आपके दोनों बेटे सपूत निकले एक
ने नौकरी पकड़ी और
दूसरे ने खेती। दोनों सुखी हैं। मेरी तीनों बेटी ब्याह गई आपके सहयोग से और बेटा भी घर-गृहस्थी वाला हो चुका है।
दादा खान पान से
लेकर कसरत तक के
शौकीन रहे हैं अब
कसरत नहीं बनती सो
सुबह शाम टहल कर
अपना शौक पूरा करते हैं। इसी शौक की बदौलत तंदुरूस्त हैं वो। छैः फुट के कद
के हिसाब से बिल्कुल सही वजन है
उनका, न कम न ज्यादा। पाचन की मशीन एकदम दुरस्त है। थाली पर बैठते है तो आठ
रोटी खा जाते हैं इस उमर में भी। जीवन में न बदहज़मी हुई उन्हें न भूख की कमी।
सुभद्रा ने राखी के
दिन उनकी सेहत की
तारीफ करी और महीना भर के भीतर वे ऐसे बीमार हो गए कि
गाँव, तहसील के अस्पताल की बजाय सीधा भोपाल ले जाना पड़ा।
बहुत सोचती है सुभद्रा लेकिन जीवन भर
तगड़े रहे दादा को
क्या बीमारी होगी, कोई अंदाजा नहीं लगता उसे। उन्हें न कभी ब्लड प्रैशर बढ़ा, न ही डायविटीज हुई। बुखार-सुखार और उल्टी-दस्त जैसी छोटी शिकायत के अलावा उन्होंने वियासी साल की
उमर तक कभी किसी बीमारी का मुंह नहीं देखा।
स्टेशन से
निकल कर सुभद्रा उतरी और टूसीटर से
अस्पताल की ओर चल
पड़ी थी। भोपाल उसके लिए अन्जाना शहर नहीं है। अपने पति को लेकर महीनों भोपाल रही है वह और
यहीं इलाज कराके वापस गाँव गई थी। बादमें स्वस्थ रहे हुए ही उसके पति सुरग सिधारे थे। छोटे भाई सरूप की तीमारदारी के लिए भी
हफ्ते भर वह भोपाल रही थी सो
भोपाल का शहरीपन अब
डराता नहीं निहायत ग्रामीण सुभद्रा को, ...इतना जरूर है कि
भोपाल का नाम आया नहीं कि उसे गोली, दवाई और
अस्पताल याद आते हैं , दरअसल भोपाल से यही रिश्ता रहा सुभद्रा का। जैसे कि उसके गाँव वालों को
पीली बत्ती देखते ही
पुलिस याद आती है।
गाँव के पटेल बताते हैं कि उनके गाँव वालों को
अब बहुत डर लगता है पुलिस से। जबकि पहले पुलिस मैन अपने रक्षक और सखा से
लगते थे उन्हें। जिस दिन गाँव में बिजली की मांग को लेकर सड़क पर जाम लगाया ग्रामवासियों ने, उस दिन पुलिस ने
ऐसे बहशी तरीके से
मारा औरतों, बच्चों और बूढो समेत सारे गाँव को, कि
खाकी वर्दी और पीली बत्ती देख कर
भय से थरथरा उठते हैं सब। दरअसल इस रास्ता-जाम में कार में बैठे एक
मंत्री फंस गये थे, जिनके आगे पीछे चलती पीली बत्तियों वाली गाड़ियों में बैठे पुलिस वाले गाँव वालों के
दुश्मन बन गये थे।
सरूप को देखने आई
तब जरूर डरती थी
वह भी शहर से। सरूप की याद आई तो सहसा हिलकी फूट पड़ी सुभद्रा की। घर
का सब से दुलारा भैया, सबका चहेता लड़का, सबको मान-सम्मान देने वाला सरूप अनायास ऐसी बीमारी के चंगुल में आया जो
सिर्फ शराबियों, नशैलचियों और शक्कर की बीमारी वालों को होती है। हाँ, दोनों किड़नी फेल हो
गई थी सरूप की, और उसी दर्द में तिलतिल करके उसको मौत ने
निगला था।
‘‘उतरो’’ ऑटो वाला अस्पताल के
दरवाजें पर खड़ा उसे टोक रहा था। वह चौंकी, और
आँखों के किनारे पर
जमा हो आये आंसुओं को साड़ी के
पल्लू से पोंछती वह
नीचे उतर गई।
भाभी और पप्पू आसानी से मिल गए
सुभद्रा को, जनरल बार्ड मे आयी तो
गले लगाकर बिलख पड़ी। उसने भाभी का कंधा थपथपाया ‘आँसू ढारके असगुन मत करो भाभी, दादा को कुछ नहीं होगा। ’
एक
पलंग पर बेसुध से
सोये पड़े थे दादा। बोतल चढ़ रही थी। दादा के
पलंग पर दवाईयों का
लम्बा चार्ट टंगा था। पप्पू ने बताया था कि महीने भर से रोज रात बुखार आ रहा था, कल वे
बेहोश हो कर गिर पड़े और गाँव के डॉक्टर ने
तुरन्त ही बड़े अस्पताल ले जाने की
सलाह दी थी सो
भोपाल ले आये थे।
जरा से बुखार की
वजह से ये हालत हो गई ? सुभद्रा को ताज्जुब हुआ।‘ बुखार धुंआ लगा क्या करता जीजी, वे तो जमीन के गम में गिर पड़े,’ भाभी बेसाख्ता चीख पड़ी थी तो सुभद्रा चौंकी।
‘‘जमीन का गम ?’’
पप्पू ने अपनी माँ को संभालते हुए पूरा किस्सा सुनाया था।
‘ बुआ, हमारा गाँव मिलिट्री को सोंपा जा
रहा है। ..कोई बटालियन रहेगी यहां। हम
सब कहीं और भेज दिये जायेंगे। एक
तरफा फैसला है सरकार का। ना कोई वकील, न कोई अपील। गाँव वालों ने विरोध किया तो सरकार का
डण्डा चला। वकील कहते हैं कि किसी अदालत में मुकद्मा नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा कोई पुराना फैसला है
सुप्रीम कोर्ट का कि
सरहद की रखवाली करने वालों के सेंटर के लिए सरकार कोई भी जगह तय कर सकती है,। वो
तो हम सबका दुर्भाग्य था
कि हमारा गाँव और
जमीन....जमीन क्या हमारी तो जिन्दगी ही खत्म है
बुआ...’ कहता पप्पू सिसकी भर के
रो उठा था।
सुभद्रा ने पप्पू के
सिर पर हाथ फेरा ‘ अरे पगले, ऐसे दिल पर
क्यों लेता है? जमीन चली जायेगी तो
सब कुछ नहीं चला जायेगा न! जिनकी जमीनें बाढ़ की
वजह से मिट जाती हैं, बीहड़ में बदल जाती हैं, बांध में डूब जाती हैं या
फिर नयी फैक्ट्रीयों और
सड़कों के बहाने निगल ली जाती हैं, आखिर वहां के
लोग भी जिन्दा रहते हैं। , जमीन-जायदाद नहीं,आदमी का
जीवन बड़ा होता है
और जीवन से बड़ा होता है हौसला। ऐसे हौसला खो
दोगे तो केसे चलेगा? दादा का ध्यान रखो पप्पू।’
पप्पू ने आँसू पोंछे और बोला ‘दादा के तो प्राण बसते हैं जमीन में। जब इतना बड़ा हादसा सुना तो वो इस
सदमे को सह नहीं सके और इसी कारण.........। गाँव वालों ने तय
किया है कि अब
मुजावजा नही लेेंगे इस
जमीन का। झक मार के सरकार बदले में जमीन देगी कहीं या फिर मंुहमांगा मुआवजा।’
‘सरकार को ऐसी कोई चिन्ता नहीं होने वाली पप्पू। ये
तो बताओ कि तुमने दिल के डॉक्टर को दिखाया ? ऐसा न हो कि
अपन बुखार समझते रहें और दादा को
दिल की बीमारी निकले’ सुभद्रा ने पप्पू को चेताया।
‘नहीं बुआ, दिल की
बीमारी नहीं है। सबसे पहले दिलवाले डॉक्टर को ही दिखाया था, उन्होंने बताया कि बुखार बिगड़ गया है दिल तो खूब मजबूत है उनका। हाँ मन पर ठेस लगी है उनको।’
‘अरी वे तो गम
में बीमार हो गये हैं। सरकार ने
जनम-जिन्दगी की जमीन जिस दिन छुड़ाने की खबर दी
उसी दिन से खटिया पकड़ गए हैं।’ भाभी ने सुभद्रा को एक बार फिर जताया ‘बुखार बगैरह तो बहाना ठहरा असल जड़
है जमीन का जाना।’
वे
तीनों फर्स पर बैठे बतिया रहे थे
कि अचानक कराह के
साथ दादा ने करवट बदली तो सुभद्रा हिलकर रह गई। दादा की कराह में एक अजीब सी चीत्कार थी
जो सीधे दिल के
भीतर से उभर के
आई थी। तभी नर्स आई और उसने पप्पू को एक
पर्ची पकड़ाते दवाई लाने को कहा।
पप्पू बाहर निकल गया और भाभी सुभद्रा से कह पीने का पानी लेने बाहर को
चल दी तो उठकर सुभद्रा ने पास खड़े हो जी
भर के दादा को
एक बार और ताका। लग रहा था
कि खेतों से लौटकर आए दादा गहरी नींद में सो
रहे हैं। ऐसा ही
तो सरूप की आँखें मुंदी रहती थी। जब आखिरी दिनों में वह अस्पताल में भरती था। सरूप की याद आते ही सुभद्रा के जियरा में गहरी कसक उठी। तीनों भाई बहनों में सबसे छोटा था और सबसे पहले चला गया। जाने कहां से
किडनी की बीमारी आ गयी थी। उसे जिसने आखिर में प्राण ही छीन लिए थे उसके। सुभद्रा को अपने भाग्य पर रोना आ रहा था, पहले पति गए फिर छोटा भाई और अब
शायद बड़े भाई......वो
तो शायद काले कौआ खा के आई
है। वो अब तक
ज्यों के त्यों बनी है।
अपने नीरोग रहने पर
उसने कई बार गौर किया है और
उसे लगता है कि
किसी चीज से जुड़ाव न होने से
लम्बी उमर पाई उसने। सच है कि
उसे किसी चीज से
ज्यादा मोह नहीं रहा जिन्दगी में। सो
किसी चीज के होने न होने को
लेकर कभी वह गमज़दा नहीं रही। जबकि उसके तीनों सगे किसी न किसी मोह में डूबे रहे। पति को
धन का मोह था
और रात दिन वे
इसी टोह में रहते थे कि कैसे ज्यादा से ज्यादा पैसा इकट्ठा कर
लिया जाये। इसी लालच के चलते वे
तांत्रिकों और सयानों कंे चक्कर में पड़े फिर रात-विरात बियावान जंगलों, श्मशानों, खण्डहरों और पुरानी हवेलियों में घूमने लगे थे। ऐसे में दिमाग चल
निकला था सो रात-दिन सोने-चाँदी के सपने देखते और वही चिल्लाने लगे थे। इसी हालत में भोपाल में जाके इलाज कराया। कुछ ठीक हुए तो
घर लौटे और फिर एक दिन उसी बौराई अवस्था में यह देह त्याग गए थे। सरूप को भी अपनी डयूटी से कुछ ज्यादा ही प्रेम था सो रात दिन वह खुद भी दफ्तर के
काम में भिड़ा रहता और दूसरों से
भी यहीं चाहत रखता। जो प्रायः पूरी नहीं हो पाती थी और वह
उत्तेजित हो जाता था। ब्लड प्रैशर बढ़ा लेता था अपना। इसी ब्लड प्रैशर के साथ में आई थी किडनी की बीमारी जिसने सरूप के सोने से बदन को
काले चमड़े में बदल डाला और खून को विषैले पानी में।
और
दादा........... ! दादा को
तो तीनों से ज्यादा खब्त थी-अपनी जमीन की। पिता की विरासत में मिले चौतीस बीघा जमीन में प्राण बसते थे उनके। पन्द्रह साल की
उमर में पिता ने
बंजर से खेत उन्हें सौंपे और आँखे मूंद ली थी। हाइवे से लगे इन खेतों पर
शुरू से ही नजर रही है खरीददारों की। पहले बड़े किसान खरीदना चाहते थे, फिर शहर के व्यापारियों ने
प्रस्ताव भेजा और बाद में कई नेताओं ने। जबकि अब
तो स्वयं सरकार ले
रही है, इलाके में बन रहे मिलिट्री सेंटर के वास्ते। दादा ने नहीं बेचे वे खेत, उनके शरीर में धड़कते थे खेत, नसों में खून बन
बहते थे खेत, सांस में हवा बनकर रहते थे खेत। साल भर सुबहो-शाम इंच-इंच पर
विचरते रहते अपने खेतों पर। जब
दादा खेत पर हों तब उनके चेहरे के भाव देखते ही बनते थे। भरे पूरे दिखते थे।
पन्द्रह की उमर के दादा खेतों को संभालते हुये बड़े हुए। उनकी जिन्दगी एक
किसान की जिन्दगी थी
जिसमें साल भर अभाव ही अभाव रहता है, भराव आता है सिर्फ एक
बार-फसल के मौके पर। दादा के
सामने बीच में कई
मौके आये जब लगा कि घर के
सारे काज रूक जाऐंगे। सुभद्रा के ब्याह के वक्त दहेज जुटाने के लिए भी और सरूप के ब्याह के
वक्त दुलहन को चढ़ाने के लिए गहने गढ़ाते वक्त भी। रिश्तेदारों ने सुझाया ‘‘न हो
तो जमीन बेच दो
थोड़ी सी।’’
....और
दादा फिरंट ‘ आपने कही कैसे कि जमीन बेच दो। जमीन हमारी इज्ज़त है, मर्यादा है हमारी। पुरखों की निशानी है हमारे लिए। आड़े वक्त के
लिए होती है जमीन। इसके लिए नहीं कि तनिक जरूरत पड़ी और उठाकर बेच डाली।’
कहने वाला खिसियाकर चुप रह जाता। दादा जाने कहां से
इंतजाम कर लेते। काम चला लेते अपना.........और जमीन बच जाती।
दादा ने इन्ही परिस्थितियों के
बीच खुद का ब्याह किया, सुभद्रा का
ब्याह किया और सरूप का भी ब्याह किया। हर बार भारी परेशानियों और
गरीबी के बावजूद खानदान का मान रखा। । फिर अपना मकान भी पक्का बनवाया। लेकिन पैसे के इन्तजाम के
लिए कभी जमीन की
तरफ आँख उठाकर नहीं देखा। मोटा खाया, मोटा पहना, सस्ते में ब्याह-काज निपटाये।
सुभद्रा की ससुराल दादा के
गाँव से सौ किलोमीटर दूर है ओर
उसके यहां खेती नहीं होती दुकान होती है-गाँव में परचूनी की छोटी सी दुकान,जो
दादा के सहयोग क बिना कभी भी वैसी नही हो सकती थी जैसी आज
है। ब्याह के वक्त दादा ने जी
कढ़ा करके उसे ब्याह दिया था उस
घर में जो तब
कुछ कमजोर था लेकिन दादा के सहयोग से दुकान बड़ी हुई और हालत संवरती चली गई। आज उसका भी
घर पक्का है, घर
में मोटर साइकिल है
और अब खेती की
जमीन लेने की भी
सोच रही है वह।
दादा ने खेतों के
लिए अपनी जी जान लगा दी। राजस्थान से आये मिट्टी पलटने वाले ट्रेक्टरों से खेतों की
मिट्टी पलटवाई। मजदूर लगाकर पार बंधवाई। कुंआ खुदवाया और पानी के बरहा के
किनारे-किनारे फलदार पेड़ लगवाये। अपनी जमीन को बहुत लाड़ करते थे वे। जरा कहीं औगुन दिखा तुरत मिटा डाला। पूरी जमीन में एक भी
पलाश नहीं होने दिया कि जमीन के
भीतर गांठ जमे। बबूंल नहीं पनपने दिया कि कांटे फैलें। सफेदा नहीं लगाया कि जमीन के
भीतर का पानी निचुड़ जाये। बहुत संभलकर बीज बोते। देखभाल कर खाद देते। सदा आजमाये हुए बीज काम में लाते और वही खाद डालते जिसे पहले वापर चुके हों। औरों की तरह नहीं कि दूसरों की
देखा-देखी नई कम्पनी के बीज बो
डालें या नई खाद बुरक दें फसल पर। ऐसे लोगों को कपार ठोंकते देखा था दादा ने सो खेती के मामले में वे बेहद सजग रहे इसलिए संभले भी रहे। कम
पैदावार हुई लेकिन उम्दा नस्ल का अन्न उपजा।
खानदान के दूसरे लोग दादा के देखते देखते बरबाद हो
गए किसी न किसी गलती की वजह से लेकिन दादा ज्यों के त्यों रहे। ताऊ का
लड़का नई किस्म, नई
कम्पनी के बीज और
खाद के चक्कर में दो फसलें मिटा बैठा और बैंक के कर्ज के
फेर में ऐसा पड़ा कि सब कुछ बिक गया। खेत बिके, घर बिका और देश छोड़ परदेश में बस
के दूसरों की चाकरी करना पड़ी। चाचा का लड़का बालकिसन लड़कों के ऊंचे नखरों के चक्कर में बरबाद हो
गया। बालकिसन ने बच्चों को पढ़ने के
वास्ते शहर में क्या छोड़ा, लड़कों के
पर ही निकल आये। हर साल दर्जनों पैंट शर्ट खरीदे जातें, मंहगे जूते पहनते और नई
मोटर साइकिल उठती। वे
सदा बाजार की सड़कों पर फर्राटा मारते नजर आते। बालकिसन का भी जाने मन कैसा हुआ था कि बेटों का जगर-मगर होकर रहना अच्छा लगने लगा था। कोई कुछ कहता तो उल्टे लड़
बैठता था। बच्चे तो
पढ़े नहीं, खेती बरबाद हो गई और
कर्ज के दलदल में फंसते चले गए
बालकिसन को भी आखिर में जमीन बेचना पड़ी।
दादा के बच्चे भी
शहर में जाकर पढ़े लिखे लेकिन उनकी डांट ऐसी कसी रही कि कभी चाल से बेचाल नहीं हुए। आज
भी दादा की एक
आवाज में काँपते हैं दोनों बेटे। लेकिन सरूप के बेटे.....! हाँ सरूप के बेटे उतना नहीं डरते थे
दादा से।
कई
कारण है उन लड़कों के निडर होने के। पहला तो
यही कि सरूप की
जब से नौकरी लगी बाहर ही रहना हुआ उसका। दिवाली का त्यौहार ऐसा था जो सारा घर एक साथ मनाता था, अन्यथा महीनों गुजर जाते और भाईयों के
दरस परस नहीं हो
पाते थे। बच्चों ने
ताऊ को
न ज्यादा देखा, न ज्यादा समझा, सो अनजान आदमी से काहे का डर ! फिर दोनों परिवारों में दूरी का सबसे बड़ा कारण बन
गयी थी दादा की
खेतों के प्रति जमी आसक्ति। हाँ, दादा इतने आसक्त थे
खेतों पर कि म्त्यु शैया पर पड़े सरूप की बहू ने किडनी बदलवाने के लिए दादा से रूपये माँगे तो दादा ने
हाथ उठा दिये थे
और बात खेत बेचने की आई तो
दादा का वही जबाब था ‘खेत और
जमीन तो आढ़े वक्त के लिए होती है।’ अब दादा को कौन समझाता कि छोटा भैया मृत्यु शैया पर
है इससे खतरनाक आढ़ा वक्त क्या आ सकता है।
ये
आढ़ा वक्त सरूप की
बीबी और उसके बच्चों पर आया तो
दादा भौंचक थे। उन्हे कहां पता था
कि तनिक सा बीमार रह कर सरूप... हां सरूप यह दुनिया छोड़ जायेगा। भैया के
चले जाने का ऐसा भीतरी सदमा बैठा कि तकलीफ का
बयान करना नामुमकिन था
उन्हें। लेकिन आत्मा में कहीं भीतर जमीन नहीं बिकने देने की अपनी जिद पर खुशी थी
उन्हें ।
बस
यहीं आकर सरूप के
बच्चों में ताऊ के
प्रति रहा सहा आदर खत्म हो गया था। सरूप की
ससुराल समीप में थी
सो उन लोगों ने
सरूप के परिवार को
अपने गाँव में बुला लिया था और
वहीं बसा लिया था।
फिर सरूप की बेटी के ब्याह के
खर्च की बात उठी और एक बार फिर जमीन बिकने की चर्चा छिड़ी तो दादा सनक गये थे। जमीन नहीं बिकी थी
उनकी जिद के चलते कि ‘जमीन वो
आढ़े वक्त के लिए होती है।’ सरूप के सभी बच्चे बेहद खिन्न थे। बड़े बेटे टिंकू ने अपने हिस्से की जमीन बेचने के लिए चुपचाप ग्राहक तलाशना शुरू कर दिया था। इस
कारण घर में क्लेश था। दादा भयभीत थे अपनी लाड़ली जमीन को लेकर और टिंकू को
देख कर तो दादा, भाभी और पप्पू की भवें तन
जाती थीं।
भाभी पानी लेकर आ गई तो सुभद्रा ने
ओक लगाकर पानी दिया। भाभी ने घर
की खैर-खबर पूछी और खाना खाने की जिद करने लगी। बताया कि
पप्पू होटल से ले
आता है पन्द्रह बीस रोटी। जिन्हें दोनेां माँ बेटा नमक-मिर्च से खा
लेते हैं। सुभद्रा को
चारों ओर से आरही दवाओं की दुर्गन्ध सी
एक हीक सी आ रही थी, सो उसे खाने की कतई इच्छा न थी। उसने भाभी से
कहा कि वे खाना लेकर बाहर चली जायें और आराम से खा पीकर लौटें। तब तक
दादा को देखती रहेगी सुभद्रा।
नानुकर करती भाभी रोटी का डिब्बा उठाकर बाहर चली गई
थी और दीवार से
टिक कर अलसायी सी
बैठ गयी थी सुभद्रा ।
दादा के खेतों को
देख सुभद्रा की धड़कन बहुत ज्यादा बढ़
गयीं- खेत के बीचों बीच पोकलीन मशीन खड़ी थी। हां, यही नाम बताया था इस मशीन का सरपंच ने
उस दिन... बड़ी अचरज भरी मशीन है, मशीन के पहियों के इर्द गिर्द घूम कर जमीन पर खनखनाती ओर
मशीन को दांये-बांये चलाती हाथ भर
चौड़ी चैन पर मिट्टी लिथड़ी थी। मशीन भी सक्रिय थी, जिसके बीचोंबीच में कांच की बनी छोटी सी गुमटी में कांच क ेउस पार बैठा ड्रायवर दिख रहा था। उसने मशीन को
पूरा देखा, एक तरफ लोहे का बड़ा सा सूप लगा है बहुत बड़ा और दूसरी तरफ राक्षस जैसी बहुत बड़ी भुजा लगी है उसके, जिसकी मुट्ठी खच्च से
बन्द होती है और
खन्न से ख्ुाल जाती है।... और बाकी का नजारा देख कर आँसू निकल ही आये सुभद्रा के; आंवला, आम
और अमरूद के पेड़ तहस-नहस करती हुई एक और
मशीन खड़ी थी उनके खेत में। गला अवरूद्ध हो आया सुभद्रा का.... ये
हो क्या रहा है
गाँव में। बस आगे बढ़ी तो पता लगा कि उनके ही नहीं आसपास के तमाम खेत इसी तरह उजड़े पड़े हैं।
खेत की मेड़ पर
दहाड़ें मार कर रोते दादा और पप्पू की हालत देखी नहीं जा रही उससे। वे भी
सुबकी भर के रो
उठी।
‘‘बुआ, तुम कब आई?’’ सुनकर वह
जागी , ये तो
टिंकू की आवाज है। आँख मलती वह
उठी- बहुत बुरा सपना था।
उठी तो उनका शक
सही निकला बगल में खड़ा टिंकू उनके पाँव छू रहा था। वे सहसा अजीब सी मनस्थिति में थी ये
कहाँ से आ गया दादा को देखने? अभी पप्पू नाराज होगा और हो
सकता है कि झगड़ा भी हो जाये।
‘‘बुआ ऐसी काँप काहे रही हो ?’’ टिंकू उन्हें टोक रहा था ‘‘ मैं ताऊ की तबियत देखने आया हूँ।’
उन्होनें खुद को संभाला और आवाज में नर्मी भरती बोली, ‘‘तुम गलत आ गये टिंकू, अभी सब लोग तुम पर गुस्सा होंगें।’’
‘‘क्यों गुस्सा होंगे बुआ। मैंने क्या गलत कहा? ताऊजी कहते थे न कि
जमीन आढ़े वक्त के
लिए होती है सो
आढ़ा वक्त देख के
ही तो आया हूं मैं।’’
‘‘आढ़ा वक्त’’ ? सुभद्रा समझी नहीं।
‘हाँ बुआ मैं वही तो कहने आया हूँ कि अब
कुछ नही ंहोने वाला, सरकार ये जमीन छीन कर रहेगी । जिस आढ़े वक्त के लिए हम जमीन जी
से लगाये बैठे थे
वो आढ़ा वक्त अब
खुद जमीन पर आ गया है । अब
भी ताऊजी जमीन की
ममता में फंसे रहे, तो बहुत नुक्सान होगा। अब हमे तहसील जाकर अपनी जमीन के मुआवजे के कागज बनबाना चाहिए जिससे ज्यादा से ज्यादा पैसा मिल जाये और
कहीं दूर जाकर जमीन खरीद ली जाये , नही ंतो जमीन भी हाथ से चली जायेगी और मुआवजा भी
। सरकारी अमला अपनी मर्जी से थोड़ा बहुत दे देगा। हमे अपने खेत के एक एक
पेड़ गिनवाना है, कुआं, नाली और मकान की विगत लिखवानी है तभी मुआवजा सही मिलेगा।’
टिंकू की बात सुनकर सुभद्रा को लगा कि वह सही कह रहा है। सहसा उसे टेलीविजन पर न्यूज में देखी कितनी सारी घटनायें याद हो
आई - झिंगुर, भट्ठा पारसोल ओैर जाने क्या क्या। पिछले कई दिन से
वह टेलीविजन पर देख रही है कि
विकास के काम के
लिए बंजर जमीन नहीं उपजाऊ जमीनों पर
नजर जमी है लोगो की । अब
अलग अलग बहानों से
देश भर में किसानों की जमीन जबरिया हड़पी जा रही हैं जिसके विरोध में देश भर के
किसान आन्दोलन कर रहे थे, पिट रहे थे, आँसू गैस झेल रहे थे
और कहीं-कहीं तो
गोली भी खा रहे थे। एक सोचा-समझा षड़यंत्र लगता है उसे किसानों के खिलाफ समाज के ऊंचे वर्ग का।
सहसा बैचेनी हो आई
सुभद्रा को। दादा को
होश आ जाये तो
उन्हंे पूरी स्थिति बताना चाहती है, ताकि दादा जमीन का
पूरा नापजोख, कुआं, पेड़ों की संख्या और
दूसरी चीज सरकारी अमले को लिखा कर
ज्यादा से ज्यादा मुआवजा वसूल कर सकें।
लेकिन दादा है कि
मौत से होड़ लगाये सो रहे हैं- उस आढ़े वक्त के इंतजार में जो उन पर
तो कभी नहीं आया, अब खुद जमीन पर मंड़रा रहा है।
सुभद्रा ने बाहर नज़र फेंकी कि पप्पू दिखे तो उसे ही समझा सके वह। दादा अस्पताल में है तो
वही जाकर अपनी जमीन की चिन्ता करे, हाथ पर हाथ रख कर बैठने का समय नहीं है यह। लेकिन पप्पू भी नहीं दिख रहा था।
लगता है कि भाभी और पप्पू ने
टिंकू को देख लिया था, इसी वजह से वे दोनों देर तक नहीं लौटे और माज़रा भांप कर टिंकू ही जाने के
लिए उठ पड़ा था।
सुभद्रा को याद आया बरसों पहले जब
उनके गाँव से नहर निकली थी तो ग्रामवासी एकदम से सक्रिय हो गये थे
मुआवजे को लेकर। लोगों ने झाड़ियों को
पेड़ व नये रूखों को पचास साल पुराना दरख्त लिखवाया, कच्चे मकानों की
गिनती पक्के दुमंजिला मकानों के रूप मंें करवाई और एक
कुएं के तीन लिखे गए।
दादा के मन में अपने खेतों के
प्रति जितनी गहरी चाहत है उसका तो
दुनिया में कोई मोल नही है, अब
तो बस इतनी सी
आशा है कि जितना ज्यादा मुआवजा मिले वही प्रयत्न किया जाय ।
पप्पू लौटा तो सुभद्रा उसे समझाने लगी थी जमीन का
भविष्य, किसान नीति, मुआवजा के नियम और
पंूजीपतियों की भू हड़प नीति का देहाती भाष्य। पप्पू नासमझों की तरह ताक रहा था अपनी सीधी सादी ग्रामीण बुआ को और
मन ही मन तय
कर रहा था कि
कल से दादा को
बुआ संभालेगी और वह
गाँव जाकर तहसील के
कारिन्दों क ेसाथ जमीन की नापजोख करवाने में जुट जायेगा, ताकि सही मुआवजा मिले और दादा जब ठीक हों तो किसी अन्य गाँव में अपने नाम से उतनी ही जमीन पायें जितनी सरकार छीन रही हेै उनसे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें