रविवार, 14 मार्च 2010

समीक्षा






पुस्तक समीक्षा-
रामभरोसे मिश्र
मुखबिर  चम्बल घाटी का खौफनाक सच

‘चम्बल और डाकू ’ साहित्य के लिए बड़ा पुराना सा सब्जेक्ट है, भले ही उसके आयाम बदल गये हों। चम्बल घाटी के लेखकों की त्रासदी यह है कि इन्हे ंइसी यथार्थ के साथ रहना-जीवन गुजारना है। यूं तो परिवेष व प्रामाणिकता को लेकर हिन्दी कथासाहित्य हमेषा से चर्चा में रहा । अगर लेखक अपने परिवेष की कहानियां नहीं लिखता तो यह माना जाता है कि उसे अपने ही घर के बारे में सहीसही जानकारी नहीं है, और अगर अपने ही अंचल की कथाऐं लिखता रहे तो उसे संकीर्ण सोच का रचनाकार माना जाता है, लेकिन चम्बल के अंचल में रहने वाले लेखकों ने बाकी कभी-कभार अपने इलाके की कथा लिखी तो यथार्थ की इस तरह परत-दर-परत पड़ताल की है कि वह करवट लेे रहे पूरे भारतीय समाज की कथा बन गई है। इस तरह भी कहा जा सकता है कि डकैत समस्या की ठीक-ठीक पहचान कराने में यहां के लेखकों ने चम्बल से बाहर के पाठकों को सहयोग किया है। इस दृश्टि से महेेष कटारे की कहानी ‘पार’ ए0असफल  की ‘ लैफ्ट हैण्डर ’ राजनारायण बोहरे की ‘ मुठभेड़’ प्रमोद भार्गव की ‘मुखबिर’ पुन्नीसिंह की ‘इलाके की सबसे कीमती औरत’ के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं।
कहानी में इतनी फुरसत नहीं होती कि कथाकार अपने सारे मंतव्य और कथ्य के सारे परिप्रेक्ष्य प्रकट कर सके, इस कारण लेखक उपन्यास का फार्म चुनता है। इस संदर्भ में राजनारायण बोहरे के उपन्यास मुखबिर पर चर्चा की जासकती है जिसे हिन्दी के एक ख्यात आलोचक ने चम्बल घाटी का खौफनाक सच कह कर सराहना की है। फ्लैषबैक के षिल्प में लिखी गई यह कहानी गिरराज नाम का पात्र अपनी याद के कैनवास पर उकेरता है जिसमें वह अपने अपहरण से लेकर फिरौती दे छूटने के प्रसंग और पुलिस द्वारा जबरन अपना मुखबिर बना कर उन्ही बीहड़ों में फिर से भटकने की घटनाएं सम्मिलित करता है। सारा उपन्यास दिलचस्प “ौली में लिखा गया है।
मूल कथा गिरराज और लल्ला नामक उन युवकों की है जिन्हे पहले डकैत पकड़ते हैं और बाद मे ंपुलिस। दोनों जगह आम आदमी का कोई सम्मान नहीं, उसकी कोइ्र्र पहचान नहीं, बस जाति ही उसकी पहचान है। गिरराज और लल्ला से जुड़े डाकू सरदार कृपाराम घोसी की कहानी भी कई टुकड़ों में बड़ी नफासत से लेखक ने पाठकों तक पहुंचाई है। एक सवारी बस से छह विषेश वर्ण के अपहृत लोगों के साथ डाकुओं का लोमहर्शक व्यवहार पाठक को भीतर तक हिला जाता है, खास तौर पर केतकी नामक पकड़ में आई उस अबोध युवती के साथ किया गया बागियांे का अष्लील व्यवहार तो पाठक को नये रोश से भर देता है। कथा का क्लाइमैक्स केतकी पर ही जाकर स्थिर होता हैं जिसे न उसके ससुराल वाले वापस लेने आते हैं न मायके वाले। गोपालक बिरादरी से जुड़े कारसदेव की लोककथा भी इस उपन्यास मंे सायास लाई गई दिखती है, क्योंकि इस कथा के बड़े गहरे आषय हैं। यह कथा एक नमूना मात्र है। आज उठ खड़ी हुई हर “ाोशित बिरादरी के अपने नायक खेाज लिए गए हैं, जो देव अवतार हैं जो अपने जीवन में गहरा “ाोशण झेलकर अंत में ताकतवर योद्धा के रूप में उदित होते हैं औेर अपने दुष्मनों को धूल मे ंमिला कर अपना राज कायम करते हैं।
उपन्यास से गुजरने पर कई तथ्य प्रकट होते हैं। .... कुछ बरसों में जिस तरह से हमारे समाज में हासिये के लोग केन्द्र में उभर कर आये हैं ठीक उसी तरह चम्बल घाटी में भी पिछड़ा तबका यकायक हथियार उठाकर सामने आया है। वे लोग जिन्होने सदा से दूसरों के लिए गोली चलाई अब अपने लिए बंदूुक उठा रहे हैं, और यह सिलसिला लगभग उसी समय आरंभ हुआ जब फूलन ने बीहड़ की पगडंडी पकड़ी थी। फूलन का यह प्रस्थान न केवल पिछड़े वर्ग का वरन् स्त्री वर्ग का भी “ाक्ति व सत्ता की ओर प्रस्थान था, जिसके परिणाम राजनीति से लेकर बीहड़ तक दिखे और पिछड़ा व स्त्री वर्ग सत्ता पर काबिज हुआ। फूलन भी तो बाद में सत्ता तक पहुंची। इस वर्ग का उदय चम्बल नदी की करारी धार के आस पास रहने वाले लोगों में बदलाव लाया है, जिसे बड़ी गहराई से मुखबिर उपन्यास पकड़ता है।
उपन्यास में आये पात्र कई जगह यथार्थ जगत के पात्र महसूस होते हैं, और यह गलत भी नहीं क्योंकि लेखक अपनी कथा के चरित्र आसपास के जीते जागते लोगों को देख कर ही खड़ा करता है।
इस उपन्यास के संवाद किताबी डायलॉग नहीं लगते क्योंकि चम्बल क्षेत्र में बोली जाने वाली भदावरी और सिकरवारी बोली में कहे गये ये संवाद जहां पात्र की मनोदषा और उसके संस्कारों को प्रकट करते हैं वहींं कहानी को गति और विस्तार भी देते है। इन संवादों में गालियां भी हैं और धमकियां भी। पुलिसिया रौब भी है और आम जन की पीड़ा भी। भाशा की नजर से सबसे ज्यादा अच्छे लगते है इस उपन्यास में जगह जगह पर आये चम्बल के जनकवि सीताकिषोर खरे के दोहे। ये दोहे इस समाज का पूरा व्याख्याकोष बन कर सामने आते हेंै।
आज के डाकू बीहड़ों मे तरसते हुए जीवन नहीं बिताना चाहते बल्कि अखबारों की सुर्खिया बन कर जीना चाहते हैं, इसका प्रमाण कुछ दिन पहले तक टेलीविजन के पत्रकारों के सामने निर्भय हो कर इंटरव्यू देता वह डाकू है जो बेधड़क हो कर बेहूदे तरीके से अपनी हरकतें और धमकियों को पब्लिक इन्फारमेषन सिस्टम पर प्रसारित करने को आकुल रहता था, बाद में जिसे ए टी एस ने महज दो घंटे के भीतर मार गिराया था। इस उपन्यास के डाकू भी अपना नाम और कारनामे छपाने को उत्सुक रहते हैं फिर निरक्षर होने के बाद भी अपनी पकड़ से वे खबरें पढ़वा कर सुनते हैं।
इस पूरे तंत्र में मुखबिरों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है। मुखबिर यानि गुप्त व प्रमाणिक खबर देने वाला जासूस, भेदिया, गुप्तचर। प्रकट रूप से लड़ते हुए भले ही हमे पुलिस और डाकू दिखें लेकिन इसकी भूमिका लिखते हैं मुखबिर। हां, चम्बल के डाकू तंत्र में मुखबिर की बड़ी भूमिका है जिसे इस उपन्यास में खूबसूरती से उठाया गया है। मन से और बेमन से चम्बल के लोग मुखबिरी करने को मजबूर हैं। मुखबिर के एक ओर कुंआ है दूसरी ओर खाई। कभी कभार उसे धन भी मिलता है। लेखक तो उस हर व्यक्ति को मुखबिर कहता है जो दुष्मन की खबरें लाकर सुनाये या दुष्मन की कमजोरियों को खोजकर बतायें। आज यदि कोई डाकू निडर है तो मुखबिर की बदौलत और यदि कोई्र अफसर एनकांउटंर स्पेषलिस्ट है तो मुखबिर की ही बदौलत।
लम्बे समय तक किए गऐ होमवर्क और खोज यात्राओं के बाद लिखे गये इस उपन्यास के केन्द्र में अपराधी नही अपराध है। राजनारायण बोहरे ने इस कथा में आई घटनाओं को सही व गलत के आसान खानों में न रख कर सीधा और सरल तरीके से अपने कथ्य का हिस्सा बनाया है। जैसा कि इसके ब्लर्ब पर के0बी0एल0पांडेय की टिप्पणी से जाहिर होता है।
संक्षेप में यह उपन्यास चम्बल घाटी में चहलकदमी करते बागियो की ही नहीं यहां के समाज की, बिरादरियांे की, वर्गों की , सरकारी अमले की, यहां के छुटभैये नेताओ की कथा है जिसे चम्बल में दहकते जातिवादी राजनीति और अपराध के आख्यान का आइना कहा जा सकता है।
---------
राधाविहार, निकट स्टेडियम, दतिया म0प्र0
पुस्तक- मुखबिर (उपन्यास)
प्रकाषक-प्रकाषन संस्थान दिल्ली
लेखक-राजनारायण बोहरे

कहानी

क्हानी-
राजनारायण बोहरे डूबते जलयान


चूल्हे में लगी लकडी बहुत धुॅधुआ रही थी । सिलेण्डर कोने में लुडका पडा था शहर में गैस की किल्लत होने से हमेशा पन्द्रह दिन में नम्बर आता है , इसीलिए परेशानी है । तब तक मिट्टी के चूल्हे और लकडी - कण्डा से जूझती रहेगी वह । धुऑ असह्य हो उठा तो उसने अधकटी सब्जी की थाली हाथ में ली और किचन से बाहर चली आई । नौ बजने को हैं, साढ़े नौ पर रश्मि कॉलेज जाऐगी । उसे नाश्ता तैयार चाहिए । चूल्हा जले तो वह जल्दी से पोहा तैयार करे ।
खुल्ल खुल्ल खुल्ल !
बाहर के कमरे से फिर खॅासने की आवाज आई । आज खॅासी बाबूजी को ज्यादा ही परेशान कर रही है । कल मना किया था कि फ्रिज का पानी मत पियो, लेकिन मानते कब हैं किसी की ! अब्बल दर्जे के जिद्दी हैं शुरु से । बीडी पीना भी नहीं छोडेगें , और जब तकलीफ भोगेंगे , तो खुद के अलावा दुसरों को भी कष्ट पहुॅचाएॅगे । अब भला कौन परमहसं बना रह सकता है एसी त्रासद स्थिति में , जब पैसठ साला घर का बुजुर्ग खॅासी के मारे , बेहाल कमजोर शरीर , अशक्त खटिया पर लेटा हुआ पीडा झेल रहा हो । बाबूजी लकवे के शिकार हैं ,इसलिए अपने - भर तो उठकर बैठ भी नहीं सकते । जब खॅासी चलती है तो दिवा केा ही सभॅालना पडता हैैैैैैैैैैेै । वह कन्धेां से पकडकर उठाती है ओैर सीने को सहलाती है तभी थोडी राहत मिलती है ।
बाबूजी के अलावा दिवा को बाजार का काम भी देखना होता हैैे उसकी ननद रश्मि तो दिन रात अपनी एम ़ए ़मनोविज्ञान की किताबों में खोई रहती है । घर की हर छोटी बडी चीज के लिए उसे ही खटना पडता हैे सास आज जिन्दा होती तो कुछ हाथ बॅटाती लेकिन तीन वर्ष पहले वे सुहागिन बनी , सजी -धजी, मॉग भर सिन्दूर , हाथ भर चूडी और पॉवो में तीन तीन बिछिया पहने स्वर्ग सिधारीं हैं । सो घर में दिवा अकेली है । उसका पति बिपिन छŸाीसगढ में डाक्टर हैं । कभी कभार महीने दो महीने में उसे छुट्टी मिलती है तो आ पाता है । यूॅ विपिन के बडे भाई नवीन यहीं हैैैैैैैैैे इसी शहर में नहर विभाग के दफ्तर में यू़ ़डी ़सी ़ है । अच्छी खासी कमाई है । चाहें तो बाबूजी ओर रश्मि को अपने साथ रख सकते हैं , लेकिन उन्हें तो सगों में सडाँध आती है ।वे इन सबसे नाराज हैं । दूर की रिस्ते की एक बूढी विधवा बुआ को साथ रख छोडा है। रश्मि ने बताया था उसे विपिन अपना कोर्स पूरा कर रहा था उन दिनों और एम ़बी ़बी़ एस ़ के तीसरे वर्ष में था । नवीन की पत्नी रूपा के माध्यम से आया रिस्ता, किसी कारणवश बाबूजी ने नहीं स्वीकारा तो नवीन भाई चिडकर अलग हो गये थे , और लोटकर विपिन ने जरा सी बात की हुई खट-पट पर अपना सिर पीट लिया था अभी तो उसे दो साल और पढना था । उसके लाख मनाने पर भी नवीन माने कहाँ थे । खेर किसी तरह एम ़बी ़बी ़एस ़करके विपिन ने इंटर्नसिप शुरू की थी और एक-एक दिन करके समय गुजारा था बाबूजी की पेंसन पर इतना भार डालना उसे मुनासिब नहीं लगता था, लेकिन मजबूरी थी , वह कर भी क्या सकता था । जैसे तैसे करके विपिन ने डिग्री हासिल की फिर उसे घर लोटकर दैनिक चिन्ताओं से उसे दो-चार होना पडा था । शहर के एक प्राइवेट चिकित्सक डॉ ़ शर्मा के यहॉ बडी अनूनय-विनय करने के बाद वह सहायक बन सका था । फिर वहाँ से उसने कई जगह इन्टरव्यू दिये थे । पूरे तीन वर्ष बीते ,पर आशा शेष थी अन्ततः सरकारी नौकरी में चुन लिया गया था वह मेहनत सफल रही उसकी । छŸाीसगढ के धुर जंगली इलाके की पोस्टिंग मिलने पर बाबूजी चिन्तित हुए, मगर दूरगामी परिणाम साचकर नोकरी पर जाना ही श्रेयस्कर समझा था । बीच में एक बार वह नवीन के यहॉ भी गया , और अपनी अनुपस्थिति में घर की फिक्र करने की बात कही , तो नवीन भाई, बाबूजी केेेे प्रति अनाप-शनाप बोलने लगे थे । खिन्न मन से विपिन डयूटी पर चला गया था । एक दिन टेलीग्राम मिलने पर वापस आया , तो पता चला कि बाबूजी पर फालिज गिरा है । बिल्कुल लुंज -पुजं होकर बाबूजी खटिया पर लेटे मिले थे । विपिन तो घबरा ही गया था आनन -फानन में इन्दोर ले जाकर विपिन ने बडे अस्पताल में इलाज आरम्भ किया था । एक महीना बाबूजी वहाँ भरती रहे । इलाज से फर्क पडा । लकवागस्त बायाँ हाथ और पेर सक्र्रिय हुआ । मुँह से अस्फुट से वाक्य निकलने लगे । घर लोटे तो दो महीने तक विपिन ने इन्दोर से दवाऐं लाकर इलाज कराया और जब बाबूजी थोडा चलने -फिरने की स्थिति में हुए तो उसने नोकरी की सुध ली थी जबलपुर वाली दीदी व जीजाजी को जल्द-से -जल्द विपिन की शादी निपटाने की फिक्र लग गई थी और रिश्ता तय करने उनके ताबडतोड दौरेेेेेे शुरू हो गए थे । उन दिनों दिवा ने एम ़ए ़फाइनल दर्शनशास्त्र की परीक्षा दी थी ,और रिजल्ट का इन्तजार कर रही थी ,कि एक दिन विपिन और उसके दीदी- जीजाजीे उसे देखने अचानक आ पहँचे । दिवा का मन उन दिनों विकट अन्तर्द्वन्द में फसा था, इसलिए उसे सब अचानक सा -लगा था । दिवा तब शरीर और मन के तर्क -युद्व के बीच निरुपाय -सी बैठी थी । बिपिन ने उसे एक नजर देखा और तुरन्त ही पसन्द कर लिया । वह थी भी एसी ही । भला कोन न मर मिटता उसके सोन्दर्य पर ! डैडी और मम्मी को विपिन अच्छा लगा था । कुछ देर विपिन की घरेर्लू आिर्थक प्रष्ठभूमि पर उन दोनों के बीच विचार विमर्श हुआ, और अन्ततः डेडी ने रिश्ता स्वीकार होने की घोषणा कर दी थी । दिवा का मैान उसकी सहमति मान ली गई थी ।
कितनी दफा याद आया है दिवा को अपना वह अन्तर्द्वन्द्व और मन की अबूझ गलियों का मकडजाल भी कितना चकित करता रहा है उसे । स्म्रति की जिस गली से होकर विपिन से उसकी शादी की बात याद आती है, उसके ही पास की गली में बैठा कोई और जैसे उस अन्तर्द्वन्द्व को कौंच कौंच कर जगाता है । उसी ने तो पैदा किया था -वह द्वन्द्व, वह भ्रम , वह अस्थिरता औा नैरास्य ! विपिन और उसके जीजाजी शादी की तारीख तय करके ही लोटे थे । रस्म के मुताबिक दिवा को बिपिन की दीदी ने साडी ब्लाउज के साथ सोने की एक चेन और मिठाई भेंट की थी । तब मम्मी ने दीदी के पैैैेर छुआए थे उससे । वह यन्त्रवत सब कुछ करती रही थी शादी में जब लोग इकट्ठे हुए । खानदान के सभी लोग आये, पर नवीन नहीं आया । विपिन ने बताया था कि वह खुद उन सब को लेने गया था, मगर रुपा भाभी के मर्मभेदी व्यगं वाणों से आहत होकर अन्ततः निराश ही लोटा । अपनी बीमारी के कारण बाबूजी तो नहीं जा पाये थे - जबलपूर वाले जीजाजी ने ही पिता की सारी रस्में पूरी की थी दिवा ने अभी तक पिता का लाड देखा था और देखी थी अपने मन के महत्वाकांक्षी परिन्दे की असीम उडान । यूनिवर्सिटी की क्रिकेट टीम में वह विकेट कीपर के रूप में शामिल रहती थी और इसी कारण उसने प्रदेश ही नहीं देश के कई शहर अपनी टीम के साथ घूम लिए थे कॉलेज की क्रीम थी वह । शहर की सर्वाधिक मॉड लडकियॉ उसे कम्पनी देने के लिए तत्पर रहा करतीं । इसीलिए अपने आप पर बडा नाज था उसे । ससुराल पहुँच कर वह एकाएक घबरा ही गई ,क्यों कि हर स्तर पर असमानता दिखी, उसके और विपिन के घर में रहन- सहन से लेकर मकान तक और खान- पान से लेकर संस्कारों तक । एक देहाती घर था वह । लगता था जैसे आसमान की उँचाइयों से पकडकर किसी धवल हसिंनी को गन्दे नाले में पटक दिया हो । अपने डैडी के नौकर -चाकरों से भरे घर में उसे कभी एक गिलास पानी भी अपने हाथ से नहीं पीना पडा था । जबकि यहॉ हर काम उसे खुद करना था, अपना भी और परिजनों का भी । अपनी नियत पर तडप उठी थीं वह और पहली रात देर तक रोती रही थी । बाद में जितने दिन रही , अन्यमनस्क ही बनी रही । शादी के चोथे दिन ही रसोई की राह दिखा दी गई जहॉ प्रविष्ट होते समय वह अपनी मम्मी की बेहताशा याद करती रही थी ,जिन्होंने स्त्रिीयोचित दूरगामी द्रष्टि से दिवा को कच्चा-पक्का खाना बनाना सिखा ही दिया था ।वह किसी तरह रसोईघर के मोर्चे पर भी अपरास्त हो, भिड ही गई थी चूल्हे चक्की से , और विस्म्रत कर दिया था उसने सब को । अर्थात अपनी डिग्री, सक्रिय छात्र जीवन और लोक-व्यवहार का प्रच्छन्न अनुभव, अपने परिजन , मित्र तथा और भी बहुत कुछ ।
लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद -हल्का सा सन्तोष था , कि विपिन का स्वभाव बहुत शानदार था । एकदम उदार और अबोध बच्चे-सा नजर आता विपिन जब उसके पास होता तो वह आश्वस्त हो उसकी गोद में सिर रखकर गहरी नींद में खो जाती थी । उसे वे क्षण अब भी याद हैं , जब झिझकते हुए बिपिन ने पहली बार उसके अगं-प्रत्यगं छुए थे मानव शरीर के राई-रŸाी से परिचित होने के बाबजूद कितनी अनजान और निर्दोष हरकतें करता था - उस रात वह खुद संकोच में थी । उन रातों में उनकी आधी अधूरी बातें होती । क्योंकि बगल के कमरे में मोजूद अन्य लोगों द्वारा सुन लेने का भय उन्हें न सोने देता था, न जगन घर लोटकर वह अपने पूरे प्रयास के बाद भी चुप नहीं रह पाई थी । तडपकर उसने मम्मी से पूछा था क्यों नरक मे झोंक दिया उसे ? जो स्टेण्डर्ड बिपिन के घर का है, ऐसा रहन- सहन तो इस घर के नोकरों तक का नहीे है । मम्मी विचलित हो उठीं थीं और डैडी भी भी उसके असंन्तोष से शान्त न रह सके थे ।
कितने बूद्धिमान थे डैडी ।एक दिन अकेले में उसे अपने पास बैठाकर धीरे-धीरे सब कुछ पूछते रहे थे और वह भी नन्ही -बच्ची बन गई थी । लाड में ठिनकते हुए , ससुराल के हर आदमी के बारे मेेें , हर घटना के बारे में डैडी को बताती चली गई थी । डैडी आहिस्ता से बोले थे -”देखो बेटा, यह सब तो हमको पहले सोच लेना था ! घर कोन देखता है आजकल ? लडका सब देखते हैं । तुम्हीं बताओ, हमने बिपिन के रुप में लडका तो तुम्हारे लायक सही ढूँढा है न और फिर रही बात घर की , तो तुमको कितना रहना है उस घर में ? ज्यादा से ज्यादा एक बार और जाओगी वहॉ , इसके बाद तो नोकरी पर रहना ही है तुम्हें । वहॉ बना लेना अपना स्टेण्डर्ड “ एक पल चुप रह गये डैडी ,तो उसकी प्रश्नाकुल निगाहें उनके चेहरे पर जम गईं थीं ।धीरे- धीरे बोले थे -”और बेटा जो होना था ,वह तो हो लिया । पूराना भूल जाअेा सब ! अब उस घर की लाज , इज्जत मर्यादा सब तुम्हारी । हम तो पराये हो गये तुम्हारे लिए ।“ संजीदा हो गये पिता की गोद में सिर छिपा लिया था दिवा ने । अगली दफा ससुराल पहॅुची , तो बाबूजी का आग्रह मानकर बिपिन असे छŸाीसगढ ले गया था प्रक्रति प्रेमी दिवा केा बडी सुखद अनुभूति हुई थी वहॉ । प्रक्रति के उन्मुक्त स्वरूप और गगन के प्रच्छन्न बितान - तले फैली हरीतिमा ने उसका मन मोह लिया था ।बस अखरी थी तो एक बात । बोलने- बतियान के लिए अच्छी कम्पनी नहीं मिल सकी उसे । गिने-चुने मैदानी परिवार थे उस गॉव में बिल्कुल प्रथक परिवेश में पोषित थे वे सब ।
उस दफा जल्दी लोट आई थी दिवा ।बिपिन फिर डियूटी पर चला गया था । यहॉ सब कुछ ठीक-ठीक चलने लगा था, कभी-कभार मन में आ जाने वाली ऊब और अकुलाहट के अलावा। सामान्यतः दिवा अपने आप को आपको माहोल में खपाने लगी थी कि एक दिन अचानक अम्माजी की तबियत बिगड गई ओैर उन्हें अस्पताल ले जाना पडा था सीने में दर्द की सिकायत उन्हें वर्षों से थी , मगर वह दर्द इस बार ऐसा था कि जान लेबा हो गया था । अस्पताल में ही उसका शरीर छूट गया । तार पाकर तीसरे दिन बिपिन आ पाया था , तो यह जानकर कितना दुख हुआ था उसे कि नवीन भैया ने बडी मान-मनोबल के बाद अन्तिम क्रिया सम्पन्न की थी ,और तुरन्त लोट गये थे । रूपा भाभी तो एसे गमगीन माहोल में झाकने तक न आई थीं इस घर में । शोक और सन्नाटे में डूबे घर में रश्मि और दिवा, अपगं बाबूजी के सहारे उसके इन्तजार की एक-एक सैकण्ड और मिनट गिन रहीं थीं । माताजी की तेरही के बाद जिस दिन विपिन अपनी डियूटी पर लोटने की तैयारी कर रहा था उस दिन बाबूजी को सुबह से कुछ घबराहट होने लगी ।सीने में दर्द और बेइंतहा गर्मी का अनुभव करते बाबूजी का चैक-अप जब खुद बिपिन ने किया तो पाया कि उन्हें हार्ट-अटेक हुआ है ।स्थानीय अस्पताल में भर्ती करते-न- करते बाबूजी पर लकवे का दूसरा हमला हुआ । फिर तो विपिन प्राणपण से उनकी खिदमत में जुट पडा था टैक्सी करके वह फिर इन्दौर भागा था और बाबू जी को भर्ती करा दिया था ।
इस बार सीबियर अटेक था ,इस वजह से डाक्टरों को भी ज्यादा उम्मीद न थी । पन्द्रह दिन बाद चिकित्सकों ने निराश मन से उसे घर लोटा दिया था । बाबूजी के हाथ-पॉव हिलाने के लिए कुछ एक्सर-साइज भर उन्होंने बताई थीं । किकंर्तव्यविमूढ बिपिन ,दिन-रात बाबूजी की परिचर्या में व्यस्त रहने लगा था । तभी शहर में एक प्राकृतिक चिकित्सक का सात दिन का शिविर लगा था, ( मरता क्या न करता की तरह )बिपिन वहाँ जा पहँुचा था । उनके परामर्श से बाबूजी की प्राकृतिक चिकित्सा प्रारम्भ हुई थी । चुम्बक के पानी की मालिश होती , वही पानी उन्हें पिलाया जाता ।
चमत्कार सा हुआ । बाबूजी अच्छे होने लगे । उनके हाथ- पॉव में हरकत शुरु हुई और मुँह से टूटे-फूटे स्वर निकलने लगे । अब जाकर सबने राहत की साँस ली थी । धीरे- धीरे अपनी पुरानी हालत में लौटने लगे थे ।
अचानक एक दिन अपने विभाग से विपिन को तार मिला । उसे तत्काल ज्वाइन करने का आदेश दिया गया था । वह भी जानता ही था कि नई नेाकरी में इतनी छुट्टियॉ भला वहॉ मिलेंगी ? सो दिवा के जुम्मे सब कुछ छोडकर वह अपनी नोकरी पर भाग गया ।
जब भी बिपिन आता वे दोनों अकेले में मिलने को तरस जाते । यदा-कदा ऐसा अवसर आता भी तो चिन्तित और व्यग्र बिपिन उससे उतावली में मिलता और उसी उतावली में पार हो जाता । वह क्षुव्ध हो उठती । हर बार की अतृप्ति अनबुझी प्यास, उसके मन में कुण्ठा बढा जाती । दिवा की कितनी इच्छा होती थी कि वे लोग दुनियॉ जहान की बातें करें । साथ जाकर थियेटर में जाकर फिल्म देखें बाजार घूमें । क्रिकेट मेच की बात करें । नए फैशन के कपडों पर बहस -मुबाहिसा करें । बाजार में नई छपकर आई किताबों और पत्रिकाऔं पर चर्चा करें । लेकिन बिपिन को इन सब फालतू बातों के लिए शुरू से ही कहॉ समय रहा है! पढने लिखने के नाम पर वह सच्चे किस्से और अपराध-कथाऔं तक सीमित था । शायर इसी का असर रश्मि पर रहा है । वह भी इसी टाइप का साहित्य पढती रही है और ज्यादा-से-ज्यादा हुआ तो महिलाओं के लिए छपने वाली कोई (बुनाई विशेषांक या व्यजंन विशेषांक वाली )पत्रिकाएँ पढती रही है । रश्मि की नजर में सारे खेल मर्दों तक सीमित हैं और सारे फेसन (अनाप शनाप कमाने वाले ) लखपतियों के बच्चों के लिये सुरक्षित हैं । कितनी ऊब और अकुलाहट महसूस करती रही थी दिवा उन दिनों ।
”आज नाश्ता नहीं बनाना क्या भाभी ?“रश्मि अपने तीखे प्रश्न के साथ उसके सिर पर मौजूद थी । वह झल्ल उठी । मजाल क्या, रश्मि ने आज तक कभी दो- एक दिन को जरुरत के दिनों में भी किचिन का मुॅह देखा हो। आदेश ऐसे देती है जैसे दिवा जर-खरीद गुलाम हो उसकी ।
दिवा चुपचाप उठी और किचन में घुस गई । लकडी धुधुआकर जलने लगी थी चूल्हे पर कडाही रख दिवा ने गीले रखे पोहे बनाने की तैयारी शुरू कर दी ।
नाश्ता करके रश्मि कॉलेज चली गई तो उसने खना बनाया और बाबूजी को खिलाया , फिर छोटे मोटे कामों में उलझ गई। उसे अभी खाना नहीे खाना , क्योंकि आज गुरूवार का ब्रत हे उसका ।
गुरूवार की याद आते ही उसकी स्मृति का दूसरा धडाक से खुल गया ।अरे बाप रे !आज तो दीपू आयेगा । उसे झटपट तैयार हो जाना चाहिए । नहीं तो उसे बागड बिल्लो बनी देख, जाने क्या-क्या सुनाने लग जाएगा । जहॉ का काम तहॉ छोडकर उसने बाल खोले और कघंी फेरने लगी ।
दीपू! दीपू! दीपू!
वह नाम उसके दिल-दिमाग में ताजगी भर देता है, पिछले कई वर्षौं से क्षण-क्षण । याद है उसे , दीपू से हुई मुलाकात । शादी के पहले की बात थी वह । दिवा को टायफाइड निकला था हाल ही एम ए की परीक्षा से निपटी थी । वह उन दिनों अपने कमरे में एकाकी लेटी घडी की चाल को कोसा करती थी । बढते -घटते बुखार में भयानक नैराश्य और अवसाद की मानसिकता में डूबी, उन दिनों वह , छत की फर्सियों को गिनती , ऊ्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्रँची - नीची सतहें नापती ,दीवारों के पलंस्तर के बीच बने छोटे-छोटे सूराखों को गिनती और पुताई की पर्तों में से उभरते अक्शों के बीच कोई आकृति तलाशते-तलाशते जब बोर हो जाती तो बाहर निकलने को बहुत मन करता था लेकिन डाक्टर की सख्त हिदायत और डैडी का कठोर अनुशासन उसे कमरे में कैद किए रहता था। एसे में वह मन- ही- मन कष्ट और पीडा में तिल-तिल घुलते हुए बडा एकाकी और उपेक्षित महशूस करने लगी थी खुद को । शुरू-शुरू में सब उसके पास बने रहते थे मगर लम्बी खिचती बीमारी के कारण धर के सब लोग अपने-अपने कामों में व्यस्त रहने लगे थे ,हालाँकि सुबह-शाम तो सब लोग उसके इर्द-गिर्द इक्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्रट्ठा होते थे, पर पहाड सा दिन प्रायः उसे अकेले ही गुजारना होता ।
दिवा की बडी दीदी श्ल्पिा उन्हीं दिनों मायके आई थीं । शिल्पा के साथ एक अजनबी अल्हड-सा युवक भी था जो जान पहचान की परवाह किए बगैर हर आदमी से बात-बे-बात मजाक और छेडखानी किया करता । पूछने पर पता चला था कि वह था शिल्पा का देवर -दीपू! बाप रे! बचपन का वह दुबला पतला और शर्मीला दीपू अठारह-उन्नीस पार करते - करते कैसे खुबसूरत और जिन्दादिल युवक निकल आया था । खुद शिल्पा परेशान रहा करती थी उसकी हरकतों से , लेकिन इसी कारण प्यार भी उसे करती थी । बचपन से शिल्पा के ही ज्यादा निकट रहा था दीपू । दिवा का मन बहल गया । घन्टे दो घन्टे में वह समझ गयी , कि दीपू ऊपर से जितना मस्त और लापरवाह है, भीतर से उतना ही भावुक और गम्भीर भी है । कम उम्र म में उसकी दृष्टी इतनी साफ और स्पष्ट थी , कि दिवा जैसी गम्भीर व पढाकू नव युवती उस के सामने नन्हीं बच्ची बनी टुकुर - टुकुर ताकती रहजाती थी ।
दीपू का अड्डा दिवा के कमरे में जमा । उदास व नीरस कमरा गुलजार हो उठा ।हमेशा दिवा को हँसाता - गुदगुदाता वह ढेर सारे चुटकुले छितराता रहता था - कमरे के शुष्क माहैाल में । बुखार बढ़ जाने पर दिवा निढाल हो जाती तो वह एका एक विराट गम्भीरता ओढ़ लेता । बीच - बीच में मौसम्मी - जूस और दूध पिलाना उसने स्वतः अपनी डियूटी में शामिल कर लिया था ।
दीपू के आने की पहली ही रात दिवा , बुखार में तपते हुए बेहोशी में तड़पती रही और अब सुवह आँख खोली, तो रात भर से जागते लाल आँखें लिये दीपू को अपने सिरहाने बैठे पाया था । उसके मन में अपने से पाँच बरस छोटे दीपू के लिये एक मधुर - सी भावना जागी और भावुकता के उन छड़ों में उसने दीपू का माथा अपनी हथेलियों में लेकर एक गहरा चुम्बन ले लिया था ।
सन्नाटे में डूबा दीपू देर तक थर थराहट अनुभव करता रहा और ..... दिवा भी कहाँ शांत रह पायी थी कम्बल के भीतर ।
तीन दिन के भीतर उन दोनों में ऐसा लगाव हो गया कि एक-दूसरे से चुहल किये बिना उनका समय ही न कटता । पहली बार दिवा को अपनी रुचि का कोई मिला था । वर्ल्ड -कप क्रिकेट से लेकर रणजी ट्रॉफी तक के खिलाड़ी और पॉप जॉर्ज संगीत से लेकर बुन्देलखंण्डी लोक - संगीत तक नये से लेकर पुराने फैसन तक कोई भी तो एसा पक्ष न था, जिसको वह बारीकी से न जानता हो । अपने को तीस मारखा समझती दिवा एक ही झटके में धरती पर आ गिरी । बातचीत से इस सेतु से वे एक - दूसरे तक पहुँचने लगे थे । कुछ रोज के बाद जब शिल्पा ससुराल लौटी तो हवा पानी बदलने के लिये दिवा को साथ लेती आयी थी ।
अब दिवा का अड्डा दीपू का कमरा था । वह मात्र सोने के लिये शिल्पा के कमरे में जाती इन कुछ घन्टों को छोड़कर वे दोनों पूरे समय हँसी-ठहाकों में डूबे रहते थे । दापू ने पूरा शहर घुमाया था दिवाको अपने साथ । शाम को उनकी गोष्ठी जमती । बीच-बीच में शिल्पा भी आजाती उनकी चर्चाओं में शम्मिलित होने । और कभी तो दिवा के जीजाजी प्रकाश भी अपनी बकालत के झंझटों से मुक्त होकर उनकी महफिल में शामिल रहा करते थे । दिवा का बुखार जा चुका था और कमजोरी खत्म हो रही थी । वह बहुत खुश थी वहाँ ।
दीपू से दिवा को नयी दृष्टी मिली थी चीजों को देखने और समझने की । वह दीपू के सानिध्य में इसका और अधिक विकास करने का प्रयास कर रही थी उन दिनों ।
फिर वह शायद अनिवार्य हादसा ही था उस रात, कि तब देर रात दिखाई जाने वाली शुक्रवार की फिल्म दूरदर्शन से प्रसारित हो रही थी ।बाहर मौसम बेहद खराब था । आसमान में गड़गड़ाते जलधर और चमकती बिजली वातावरण को अपनी रुपहली चमकसे एक पल के लिये प्रकाशित कर फिर से अंधेरे में डुवा जाती थी । अपने कमरे में निकट बैठे दीपू और दिवा
टटोलने के लिये हाथ बढ़ाये,तो एक-दूसरे के अनियन्त्रित उत्तेजित शरीर उनकी जद में थे ।फिर पता नहीं किसने क्या-क्या किया , वे निकट से निकट तक होते चले गये । जाने कब से घिरते घुमड़ते बादल खूब बरसे उस रात । बाहर भी, भीतर भी ।
शिल्पा की पुकार सुनकर वे चौंके और अस्त-व्यस्त दिवा ने उठकर कपड़े सँम्भालते
हुए शिल्पा के कमरे की ओर दौड़ लगा दी थी । वह पूरी रात दिवा ने आँखों में काटी थी । फिल्म के उत्तेजक द्रश्यों में डूब बार-बार पहलू बदल रहे थे । शिल्पा अपने कमरे में थी कि बिजली चले जाने से अचानक गुप्प-अंधेरा छा गया । भौचक्के से उन दोनों ने आस-पास कुछ
टटोलने को हाथ बढाए ,तो एक दूसरे के अनियन्त्रि उŸोजित शरीर उनकी जद में थे । फिर पता नहीं किसने क्या-क्या किया, वे निकट से निकट तर होते चले गये । जाने कब से घिरते -घुमडते बादल खुब बरसे उस रात । बाहर भी भीतर भी ।
श्ल्पिा की पुकार सुनकर वे चौकें और अस्त -व्यस्त दिवा ने कपडे सभालते हुए शिल्पा के कमरे की ओर दोड लगा दी थी ।वह पूरी रात दिवा ने आँखों में काटी थी ।
सुबह उठी तेा दिवा में संकोच और शर्म में डूबी थी, जब कि दीपू पूर्ववत स्वच्छन्द और

मुखर मुद्रा मौजूद था देर तक दिवा उसके कमरे में आने से कतराती रही, पर जरा सा मौका मिला दीपू को , तो वह खुद दिवा के पास पहँच गया था । दबे स्वरों में दिवा ने रात में सब कुछ गलत हो जाने की बात कही तो वह फट पडा था- ”कैसी गलती?काहे की गलती ?आपने समझा है कभी एसी प्यारी गलतियों के बारे में ? जिसे आप गलती कह रहीे हैं, वह
ी तो इस दुनिया का मूल है सत्य है!“
”पर हमारा समाज और उसके कायदे“
”किस कायदे की बातें कर रही हैं मैडम ?चलिए, आप की ही भाषा में बात करूँ।
आपने तो पुराण साहित्य खूब पढा है कोन देवता ऐसा है जो काम के पाश से बचा रह गया
है?इन्द्र! ब्रम्हा! महेश! है कोई उदाहरण?“
लेकिन कौन मान्यता देगा हमारे तुम्हारे रिश्ते को ?ये प्रतिलोम रिश्ते?
”बकवास !....किसकी मान्यता चाहिए तुम्हें ?...इस समाज की ?... या इस धर्म की या सस्कृति की ? ध्यान रखो कि अनुलोम-प्रतिलोम विवाह, और जायज-नाजायज रिश्तों की बातें नपुंसकों की बकवास है सब“दीपू का स्वर तिक्त हो उठा था और दिवा को चुप रह जाना पडा था । इसके बाद दिवा ने प्रतिरोध नहीं किया था और कई दफा उस अनुभव को जिया था , पूरी प्राणवŸाा और हिस्सेदारी के साथ। दीदी के यहाँ से लोटना बहुत अखरा था उसे लेकिन क्या किया जा सकता था। उम्र में पॉच वर्ष छोटे नाबालिग दीपू के साथ जिन्दगीभर रहने की अनुमति कोन दे सकता था उसे, न घर वाले, न समाज और न कानून । हालाँकि दीदी को जाने कैसे ज्ञात हो गया था- सारा गोरखधंधा ।
घर लौटकर द्वन्द्व में जीने लगी थी वह कभी दीपू के तर्क उसे सही लगते थे तो कभी बचपन से कोमल मन पर पडे नैतिकता सम्बन्धी सस्ंकार उस पर हावी होने लगते थे। तब अपराध्
बोध से घिर जती थी वह। गनीमत थी कि अभी बात उसी तक थी। लेकिन जल्दी ही शिल्पा दीदी का दौरा अपने मायके का हुआ और उन्होंने ऐसा मन्त्र फूँका कि मम्मी और डैडी का व्यवहार ही बदलगया उसके प्रति। उसे याद है, डैडी ने उसके पूर्व उन तीनों भाई बहनों यानी शिल्पा,दिवा और अंिकचन में कभी भी कोई भेदभाव नहीं रखा था। तीनों को एक -सी सुविधा स्वतन्त्रता दी गई थी, पढने और विकास करने की। इसीलिए इस उपेक्षा के बाद वह अपनी ही नजरों में खुद को गिरा हुआ महसूस करने लगी । यदा-कदा टपक बैठने वाला दीपू भी सम्भवतः आने से प्रतिबन्धित कर दिया गया। उसके लिए लडका ढूँढा जाने लगा। बिपिन से रिश्ता हुआ।
उसका विवाह हुआ। वह श्री मती दिवा बनकर इस घर में आ गई थी। अपने आपको नई जिन्दगी के प्रवाह में सम्मिलित करके उसने पिछला सब कुछ भुलाने का प्रयास किया था। बिपिन को तो घर में लगातार आते संकटों के कारण अपनी जिम्मेदारी और बीमार पिता से सरोकार रखने के अलावा इतनी फुरसत नहीं थी कि उससे कोई गहरा मतलब रखता। दिवा ने भी अपने तन -मन की अतृप्ति कभी बिपिन पर जाहिर न होने दी थी , और ज्यों-त्यों दिन गुजर रहे थे। लेकिन कई बातें एसी थीं जिनसे बिपिन के दिल में मोजूद प्यार का बोध उसे हुआ था और मोहित सी हो चली थी वह बिपिन के प्रति। तभी हटात दीपू एक दिन उसकी ससुराल आ धमका था। दोनों मे बहस छिड गई थी पुराने सम्बन्धों को लेकर। दिवा पुरानी गलती न दोहराने की दुहाई दे रही थी, जब कि सूखकर कॉटा हो रही उसकी देह और दिनोंदिन बढते जा रहे चिडचिडेपन को अतृति- चिन्ह बताकर दीपू उसे प्रात्साहित करता रहा थार्। वह कहता था न पहले गल्ती थी , और न अब हैै। पर वह न राजी थी । दीपू उसका मुखर प्रतिरोध देखकर वापस लोट गया था, और कई दिनों तक इस उलझन में उलझी रह गई थी कि किसके प्रति वफादार रहे वह, दीपू के या बिपिन के । मौजूद होने पर बिपिन पर भी तरस आता था उसे , क्याकरे बेचारा? न बाप के प्रति लापरवाह हो सकता है न अपनी नौकरी के प्रति । वैसे उसका तो दीवाना है वह जब तक रहेगा ऐसे ताकता रहेगा, जैसे आँखों के रास्ते पी ही जायेगा उसे । घर और पिता से बचा रह गयाा समय वह दिवा को देता था। थके और श्लथ शरीरों को उस थोडे रात का मूल्य ही क्या था। हाँ बिपिन की गैर मौजूदगी में जरूर उसे गुस्सा आता रहता था।
दीपू के लौट जाने के बाद बडी अन्यमनस्क बनी रही थी उस दिन और चाहती रही थी भीतर-ही -भीतर कि दीपू फिर लैाट आए। लेकिन जिस दिन दीपू आया, खुल कर स्वागत नहीं कर सकी थी उसका किवाड खोलकर देहरी पर ठिठकी रह गई वह । कई क्षण बीत गए थे
”अन्दर आने के लिए नहीं कहोगी ?“
दिवा ने एक भरपूर नजर से उसे देखा था और मुडकर भीतर चली गई थी। दीपू पीछे- चल पडा था।
”आओ भी नहीं कहा“
ेेेेकुछ आगमन ऐसे भी होते हैं जिनकी प्रतीक्षा भी होती है और वे टल जाँए तो निष्कृति का बोध्
भी। शब्दों से स्वीकृति देने की निर्द्वन्द्वता और साहस नहीं है मुझमें दीपू । चाह तो होती है तुम्हारी ,पर जाने कैसे कॉटे बिछे हैं कि दौडकर तुम्हें अपने में समेट लेने की आतुरता ठिठक जाती है । पूछा मत करो तुम ।“
”कैसे हो“
”ऐसे पूछ रही हेा, जैसेपिछले जन्म के बाद मिली हो।“
”तुमसे मिलकर हर बार पुनर्जन्म ही तो होता है मेरा।“
”दर असल , ये दिमागी जडता ही तो तुम्हारी कमजोरी है।“
नहीं दीपू, मैं न लकडी-सी जल पाती हूँ और न आग से अप्रभावित हो रह पाती हूँ। सीलन और ताप के बीच धँुधआते रहना ही शायद मेरी नियति है। तुम समझा करो कुछ।
इससे ज्यादा बात नहीं कर सके थे वे दोनों । रश्मि आ गई थी । फिर वह रात भी बातों -ही -बातों में बीत गई थी ,बिपिन केा भूल कर दीपू में खो गई थी वह । ढेर सी बातें और ढेर से विषय थे उन दिनों के पास, जुबान थकती न मन भरता था। सुबह दीपू लौट गया था।
तब से यही क्रम जारी है। महीना पन्द्रह दिन मे दीपू आता है और कोशिश करता है कि उसकी झिझक टूटे , लेकिन दिवा उवर नहीं पाती है अपने द्वन्द्व से । कई दफा तो लगता है कि दीपू का आना सार्थक हो ही जाएगा, पर बात बस कुछ कदम आगे बढती है और श्लथ होकर गिरी रह जाती है मंजिल के पहले ही
अचानक घंटी बजी तो चिहँक उठी। दरवाजा खोला तो गैस वाला था।”वाह इस बार बडी जल्दी आ गई गैस।“कहते हुए उसने रास्ता दिया और सिलेण्डर बदलवाने लगी।
गैस वाले को गिनकर रुपये दे रही थी कि घण्टी फिर बजी। उसने दरवाजे की ओर झाँका तो तबियत प्रसन्न हो उठी । वहाँ मौजूद लकदक दीपू उसकी अनुमति के इन्तजार में तत्पर खडा था।