मंगलवार, 20 जून 2017

राज बोहरे की कहानी-भय



                  

                                                                         भय
                कॉलेज से चौराहा दो किलोमीटर से भी ज्यादा दूर था। इस दूरी को पाटती थी सडक। तारकोल की उम्दा सडक। सडक पर सब था, पेड, परिन्दे , माइल स्टोन व टेलीफोन के खम्भे भी। पर आदमी न थे। सडक सुनसान थी और इसी कारण प्रोफेसर रवि के मन में भय था कि पीछे लगे लडके कहीं शुरू हो गये तो...
                वैसे तो सब ठीक-ठाक चल रहा था। आज ही सुबह जब वह कॉलेज के लिए निकले थे तो रोज की तरह प्रसन्न और शान्त थे । उन्हें याद है कि रास्ते में उन्हें एक छात्र किताबों का पुलिन्दा दबाए मिला था-सर , मेरी परीक्षाएँ निपट चुकीं हैं ये आपकी पुस्तकें वापस देने घर ही आ रहा था।
                रवि बाबु ने न उससे धन्यवाद की अपेक्षा की थी ओर न उसने धन्यवाद दिया था। 
हर्श और विशाद से मुक्त मनःस्थ्तिि से उन्होंने उस छात्र की बात सुनी और उसके हाथ का वजन अपने हाथों में ले लिया था। मुस्कराते हुए चल पडे थे कालेज के लिए बगल में दस -बारह किताबों का बण्डल दबाए। वे रोज एसे लद जाते थे किताबों से। कॉलेज पहॅुचकर अपना कमरा खोलते थे, रजिस्टर पर किताबें चढाकर अलमारी में रखते थे फिर अपनी डियूटी का कमरा तलास करते थे। आज भी उनकी तीनों पालियों में डियूटी थी। और एसा प्रायः होता था।
                आज कई विशयों की परीक्षा दिख रही थी। कालेज केम्पस में सैकडों छात्र इकट्ठा थे । छात्रों का नमस्कार स्वीकारते , कुशल-क्षेम पूछते वे अपने कमरे में पहँचे फिर कुछ सोचकर हाथ की किताबें यूँ ही पटक कर ताला लगा दिया था और परीक्षा कार्यालय की ओर बढ लिए थे। वैसे ही साथी प्रोफेसर कहा करते हैं कि वे छात्रों को कुछ ज्यादा ही छूट दिए हैं। और उनकीं आदतें खराब कर रहे हैं । आज कहीं  किसी प्रोफेसर ने किताबों का पुलिन्दा देख लिया होगा तो फिर टोकेगा।
                रवि बाबू इसमें कोई हर्ज नहीं मानते कि किसी जरूरतमन्द गरीब छात्र को अपने खाते में पुस्तकें चढाकर खुद ही जाकर दे दीं और जब वापस मिलीं तो खुद ही कॉलेज लेते चले आए। इसमें कोन सी शान घट गई, उल्टे छात्रों के मन में इज्जत बढी ही कुछ। वो तो शुकर है कि इस बात का किसी को पता नहीे लगा कि कॉलेज के दर्जनों छात्र वक्त जरूरत पर रवि बाबू से कुछ-न-कुछ नगदी भी लिए बैठे हैं। यदि कॉलेज में प्रोफेसरों को इसकी भनक भी लग गई तो बावेला मच जाएगा बैठे- ठाले। वैसे यदा-कदा गाँव- जवार के लडकों की मदद कर देना रवि बाबू को गलत नहीं लगता और बहुत बडा अहसान भी नहीं।
                उनकी बहुत कम अध्यापकों से पटती है। कभी- कभी वे सोचते हैं कि अपने ज्ञान और विशिश्टता-बोध के दम्भ से चूर इन प्रोफेसरों से कोई पूछे तेा भला कि भाई तुम इतराते किस बात पर हो?दूसरी बातें तो रही दर किनार ,तुम लोग अपना काम भी करते हो कभी। साल भर में कितने पीरियड           पढाए तुमने बच्चों को?अगर उनसे पूछा जाय तो वे खींसे निपोरते रह जाएँगे। एसे लोगों पर बहुत दया आती है रवि बाबू को उनके लिए एक ही शब्द याद आता है उन्हें-बिचारे!
                इस बात का गहरा आत्मसन्तोश है रवि बाबू को कि उनके पढाए छा़त्र सदैव अच्छे नम्बरों से पास हुए हैं, उनके तमाम छात्र आज ऊँची नौकरियों में हैं। अपने विशय पर खूब अधिकार है, रवि बाबू का!उनका सारा समय छात्रों के लिए ही सुरक्षित रहता है। चाहे जब आकर लडके पाठयक्रम से सम्बन्धित बातें पूछते रहते हैं उनसे। वे भी अपने आपको अलग नहीं समझते इन छात्रों से इसी कारण उन्होने राश्ट्रीय सेवा योजना का भी काम ले रखा है कॉलेज में। बहुत गम्भीर बने रहने पर भी तमाम लडके बेहद अत्मीय हेा गये हैं उनसे। ये बात जरूर है कि इसका खामियाजा भी खूब भुगता है उन्होंने। पिछली बार जब लाइब्रेरी में
में पुस्तकों का भौतिक सत्यापन हुआ तो उनके नाम जारी हुई अनेक किताबें जमा नहीं मिली थी और उन्हें किताबों की कीमत भरनी पडी थी -लाइब्रेरियन के पास। बे किताबें होंगी भी कहाँ? रह गई होगीं किन्हीं लडकों के पास और लडके भी जान-बूझकर क्यों रखेंगे, अनजाने में ही कहीं खो- खा गई होंगी किसी से, वे आज भी यही मानते हैं ।
                शाम को कमरा नम्बर तैरह में उनकी तीसरी डियूटी थी। ऐसा संयोग रहा कि इस वर्श इसी कमरे में ज्यादा इन्विजीलेशन किया है उन्होंने। प्रोफेसर सिंह आज उनके साथी इन्विजीलेटर थे। तब आधा घण्टा बीत चुका था परीक्षा आरम्भ हुए, जब उन्होने देखा कि कोने में बैठा छात्र पूरे इत्मीनान से नकल टीप रहा है। वे खाँसते हुए दो-तीन बार उसके पास से निकले , पर वह लडका इतना बेशऊर ,ऐसा बेशर्म और इतना उजडड दिखा कि आँखों का पर्दा भी नहीं किया उसने । रवि बाबू ने कनखियों से इधर उधर देखा तो पाया ेिक आसपास के तमाम लडके टुकर-टकर उन्हें ही ताक रहे हैं। जैसा कि वे चुनौती दे रहे हों मन-ही-मन, ”क्या कर पाते हो गुरूजी इस लडके का। देखें तो!
                रवि बाबू ऐसे तुनकमिजाज भी नहीं कि कुछ छात्रों की आँखों में चुनौती के भाव देखकर तपाक से हमला कर दें उस छात्र पर। एक कोने में खडे होकर उन्होंने परिस्थिति पर गम्भीरता से विचार किया। प्रोफेसर ंिसह से बात करने का मन बनाया तो पता लगा कि वे जाने कहाँ खिसक गए हैं। रवि बाबू ने इस साल एक भी नकल नहीं पकडी- दर असल वे नकल पकडने के लिए दीवाना हो जाने की हद तक उतावले नहीं बने रहते ।सूघंते नहीं फिरते नकलचियों को। पर इसका यह मतलब भी नहीं न कि छात्र उन्हें बेवकूफ समझने लगें। खुले आम नकल की पर्ची रखकर आखिर क्या दिखाना चाह रहा है यह छात्र, शायद खुद की ताकत या फिॅर प्रोफेसर की कमजोरी।
                कमजोर ते वे कभी नहीं रहे। लेकिन किसी छात्र का साल बरबाद करने में मर्दानगी दिखाना तो एक तरह की कायरता है न वैसे नये परीक्षा अधिनियम में तो नकलचियों को गिरफ्तार तक करा देने की शक्ति मिल गयी है प्रोफेसर को। पर आम तौर पर इन अधिकारों का उपयोग कोई नहीं करता।लडके भी कहाँ हील-हुज्जत करते हैं फार्म भरते समय। उन्हें पता है कि इस प्रकरण का यूनिवर्सिटी में अंितम निर्णय होना है, अब निपट-सुलट लेंगे वहीं , यह सोचकर वे चुपचाप हस्ताक्षर कर देते हैं !बाद में निपट-सुलट भी लेते हैं। चपरासी को बुलाकर रवि बाबू ने दो गिलास पानी पिया, और एक नजर पूरे कक्ष पर दोडाई, फिर कमरे में चक्कर लगाने लगे । परीक्षा-अवँा में तरुपाई पक रही थी। छात्रों के चेहरे पर अजीब-अजीब भाव मौजूद थे-कोई अपनी अन्तर्धारा में डूबा हुआ लिखे चला जा रहा था तो कोई आँख मँूदकर अपना पुराना रटा हुआ याद करने की कोशिश कर रहा था। किसी की आँखें फर्स से चिपकी थीं ,तो कोई कमरे की छत रोशनदानों और पखों का मुआयना कर रहा था। पर वह कोने में बैठा लडका पूरे इत्मीनान से नकल टीपे जा रहा था,यह याद आते ही रवि बाबू को थोडा तनाव हुआ। उस लडके के आसपास के तेेतत
तीन-चार लडकों ने फुसफुसाना शुरु कर दिया था, कक्षा में भिनभिनाहट सी गूँज रही थी। उधर प्राचार्य का राउंड पर आने का वक्त हो रहा था। रवि बाबू ने एक क्षण निर्णायक ढंग से सोचा, बिजली की तरह ।छात्र के सिर पर जा धमके थे।
                एक हाथ में पर्ची, और दूसरे हाथ में कॉपी लेकर उन्होंने छा़त्र को परीक्षा कार्यालय चलने का आदेश दिया तो एकाएक वह लडका बिगड गया था बाहर तैनात पुलिस -कानिस्टबल ने भीतर झाँका। एक छात्र को गुरूजी से हाथापाई की कोशिश करते देख,उसे अपना कर्तव्य-बोेध याद हो आया था, और वह बरामदे में खडे अपने ऐक और साथी को आने का इशारा करके कमरे में धुस आया  था 
                आगे-आगे प्रोफेसर रवि और पीछे-पीछे दो सिपाहियों की गिरफ्त में जकडा वह लडका उछल-कूद करता हुआ ही बरामदे से होकर परीक्षा -कक्ष तक गया तो अनेक छात्रों ने यह तमाशा देखा था। माहैाल मे एक पैना और धारदार सन्नाटा व्याप्त होने लगा था।
                केन्द्राध्यक्ष अपनी औपचारिकताऔं में व्यस्त हुए तो प्रोफेसर रवि छात्र के फार्म पर अपनी टीप लगा, अपने हस्ताक्षर करके कक्ष में लौट आये थे। प्रोफेसर सिंह अब तक कक्ष में से गायब थे, लेकिन कमरे में एकदम शान्ति थी ।सब परीक्षार्थी अपनी उŸार-पुस्तिका में तल्लीन नजर आ रहे थे । अब रवि बाबू निस्पृह भाव से टहलते रहे।
                काफी देर बाद पसीना-पसीना होते प्रोफेसर सिंह कमरे मे दाखिल हुए और रवि को एक तरफ ले गये,”यार तुम भी एकदम ना समझ आदमी हो। काहे को नकल पकड ली सुरेन्द्र की ? जानते हो कोन है वो!एक पल रुककर रवि के चेहरे पर वही निरीह उत्सुकता देखकर आगे बोले ,”हास्टल का प्रेसीडेंट है वो आजकल।
                ”तो !रवि बाबू अब भी बात नहीं समझ पाए हैं।
                ”तो यही कि अब भुगतलना अपना करा धरा।तैश में आकर प्रोफेसर सिंह थोडी ऊँची आवाज में बोले थे।
                रवि ने आहिस्ता से नजरें फेरकर अपने कक्ष के परीक्षार्थियों की ओर देखा तो उनकी आशंका सही निकली थी-तीन लडके कनखियेां से उन दोनों की ओर ही ताक रहे थे।
े     ठीक है वह भी देखँूगा।कहते हुए सिंह से पीछा छुडाकर रवि ने अपने कमरे में घूमना शुरु कर दिया ।
                प्रशातं सरोवर में कंकड फेंकके लहरें पैदा कर प्रोफेसर सिंह फिर गायब हो गए थे,और रवि बाबू यह समझने का यत्न करने लगे थ्ेा कि आज आखिर उन्होने क्या गलत कर दिया। हर साल इम्तिहान होते हैं, हर साल वे कुछ नकलें पकडते हैं, पर ऐसा कभी नहीं हुआकि किसी प्रोफेसर ने उन्हें धमकाया हो। उन्हें अचानक ऐसा लगा कि प्रोफेसर सिंह की संवेदना के कोई तार छात्र सुरेन्द्र से जुडे हैं और वे इस प्रकरण केा अपनी शह से जबरन कुछ रंग देने को सोच रहे हैं । प्रो. सिंह का आज वहॉ शुरु से गायब रहना, फिर नकल पकड लेने के बाद ऐसी बदतमीजी ूपेश आना और निराश होकर दुबारा गायब हो जाना , लगता था भीतर-भीतर इन सब हरकतों में एक सूत्र जुडा है।
                लम्बी घण्टी बजी तो रवि बाबू ने कापियाँ बटोरनी शुरु कर दीं। अब आकर दुबारा सिंह की सक्ल दिखी थी उन्हें सारी सामग्री सौंपकर रवि कैण्टीन की ओर चल दिए । उन्हें चाय की बेहद तलब महसुस हो रही थी। आज दिन भर में उन्हें चाय भी नसीब नहीं हो पाई थी
                ”एक चाय!काउटंर पर आदेश देकर वे एक टेबुल की ओर बढे ।
                कुछ दिनों से वे देख रहे हैं कि लडकों की हरकतें कुछ ज्यादा ही उग्र होती जा रहीं हैं । जब से कॉलेज में दुबारा चुनाव शुरु हुए हैं, पिछले दरवाजे से कॉलेज कैम्पस में राजनीति आ घुसी है और राजनीति के साथ वे तमाम आवश्यक बुराइयॉ भी आ गई हैं जो उसकी हमजोली हैं ।ेेे
                गर्मी चरम सीमा पर थी । पर रवि बाबू को अपनी आँखें सूलगती सी लग रहीं थीं । आखों केा बन्द कर उन्होने अपनी तर्जनी आहिस्ता से दोनों पलकों पर फेरी । बन्द आँखों के आगे लाल-पीले-केशरिया धागे खिच आए, अधर में तेरते -सेेेे
                दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर पवित्र प्रायः कहा करते हैं कि आँखें के आगे खिच आये रगं -बिरंगेरखाचित्र अँधेरा और यह धागे, मनुश्य के मन की परछाई हैं। सब के अलग-अलग प्रतीक हैं। बन्द आँखांे के आगे यदि अंधेरा दिखे , तो समझ लो कि मन आराम चाहता है , और यदि उजाला झांके तो मन में बहुत प्रशन्न होने का अनुमान लगता है। आँखों के आगे लाल-पीले केशरिया धागों का मतलब कि मन विचलित -सा-है -द्वन्द्व मं उलझा -सा।
                बिना सायलेंसर के स्कूटर की भौंडी आवाज ने रवि बाबू का ध्यान भंग किया तेा उन्हें उत्सुकता हुई कि देखें -प्रोफेसर सिंह कहाँ से लौट रहे हैं । केण्टीन की खिडकी से उन्होनंे देखा तो पता चला कि कॉलेज के ठीक सामने बने हॉस्टल के कम्पस से अपने खटारा पर सवार सिंह लौट रहे थे। रवि के दिमाग में एक ही शब्द टुनका-गद्दार!े
                उन्होने चाय का प्याला उठाकर घूँट भरा तो मुँह का स्वाद बिगड गया। चाय बिल्कुल ठन्डी हो गई थी।अरे भाई जैन, गर्म चाय भेजो यार।केण्टीन वाले को आवाज देकर ठन्डी चाय एक ओर सरका दी उन्होने।
                चाय पीकर घडी देखी तो पता चला कि सात बज गये हैं।यानि कि केण्टीन में पूरा एक घण्टा गुजर गया है।शाम घिर आई थी। कैण्टीन से बाहर निकलते समय उन्होने देखा कि कॉलेज में एकदम सन्नाटा है। स्टाफ कभी का जा चुका है और अब तो चपरासी मुख्य दरवाजा भी बन्द कर रहे हैं। रवि ने बाहरी गेट की ओर तरफ बढते हुए सोचा,आज तो सचमुच बहुत देर हो गई।
                यहाँ से बस्ती दो किलोमीटर से भी ज्यादा दूर है और तो कोई बात नहीं है,पर ेे
पर सन्नाटे में गूजती खुद की पद चाप भी मनहूस लगती है न ,तो रवि ने लम्बे डग भरना शुरु कर दिया।ेे
                सो मीटर भी नहीं चले थे कि उन्हें एकाएक अहसास हुआ जैसे कुछ लडके उनके पीछे आ रहे हैं।दिन की घटना की स्मृति शेश थी ही इसलिए अनजाने में ही उनकी ज्ञानेन्द्रिय सतर्क हो गई । कान का केचमेंट एरिया बढाने का प्रयास किया।उन्होने आँख के पिछले सिरों पर अपने गोलक टिकाकर देखने का यत्न किया तो बेचेनी बढी। अचानक एक पल को भय की अनुभूति विद्दुत-तरंग की तरह मस्तिश्क से होती हुई दिल तक आई।...तो...तो आज बन गया मैं भी निशाना!अहसास हुआ कि यह सोचते-सोचते उनका समूचा शरीर एकबारगी पसीने से नहा उठा है। लगा कि पैरों की शिराएँ सुन्न सी हो रही हैं साइटिका के मरीज की तरह। मन बैठता-सा जा रहा है। उन्होने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि जिन्दगी में एसी स्थिति से दो-चार होना पडेगा। औरों की बात अलग है...पर वे ...वे तो (यानी कि लडकों के चहेते प्रोफेसर)रवि सर हैं और उनके खिलाफ भी कोई खडा हो सकता है यह तो कभी सोच भी नहीं सकता कोई । खुद भी नहीं सोचा था, वे तो गहरे हमदर्द हैं छात्रों के ,मित्र हैं उनके ।...और आज उनके खिलाफ भी...!खिलाफ भी नहीं बल्कि इस हद तक...। उनके पैरों की गति मन्द सी हो गई, भीतरी तनाव के कारण।
                आज अगर उनके साथ कोई हादसा हो गया तो कल कस्बे में हर जुबान पर उनका नाम होगा। अखबारों तक पहुँचने में भी देर नहीं लगेगी।वैसे भी यहाँ तिल का ताड बनते देर कहाँ लगती है(खास कर कॉलेज से जुडे मामलांे में)?और फिर इनके साथ तिल नहीं ताड ही घटित होने जा रहा है। इधर मार पिटाई तो दूर की बात ,लडके उन्हें छू भी लेंगे तो रवि बाबू की एसी बदनामी होगी कि सिर उठाकर चलने के काबिल भी नहीं रहेंगे। कॉलेज के साथी अध्यापक सुनेंगे तो बाछें खिल जाएगी उनकीअच्छा रहा!लडकों के हिमायती बनकर घूमते थे बडे । अब अक्ल आई ठिकाने ।स्टाफ क्लब में उनका बैठना मुहाल हो जएगा। यह समाचार जब घर पहुँचेगा तो उनकी पत्नी क्षिप्रा भी बहुत नाराज होगी। नाराज क्या बाकायदा युद्ध की मुद्रा में ही आ जाएगी वह -मैं कहती थी तो मानते कहाँ थे?देख लिया लडकों से दोस्ती का परिणाम!नकल पकडने के लिए भी कितना मना करती थी मैं, पर अपने आग सुनते ही कहाँ थे। अब मेरी तो नाक कट गई न, कल को कॉलानी की औरतें पूछेंगी तो क्या जबाब दूँगी !ेे
                नाते रिस्तेदारों तक बात जाएगी, कस्बे के मित्र परिचितों तक बात जाएगी और इन सबके उल्टे-सीधे उŸार देते-देते हल्कान हो जाएँगे वे। पुलिस में रिपोर्ट कर दंेगे तो कोर्ट में पेशियाँ करते-करते परेशान हो उठेंगे।यदि रिपोर्ट नहीं करेंगे तो दोहरी दिक्कतों में फँस जाएँगे, एक तो वे लडके और प्रोफेसर मूँछ उमेठते घूमंेगे,दूसरे,जो भी सुनेगा यही कहेगा कि रवि बाबू की ही कोई गल्ती होगी , तभी तो पुलिस में रिपोर्ट नहीं की।
                दरअसल आज यदि मारपीट हेाती है तो उसकी चोटों का डर नहीं है, उन्हें ,बल्कि
आज के बाद जो भोगना पडेगा वह ज्यादा पीडा दायक होगा।
                सोचते-सोचत भय का बुखार सा चढ आया उनक बदन में । शरीर शिथिल सा होने लगा फिर से उनका। पर मन और ज्यादा सक्रिय हो रहा था क्षण-क्षण।
                दस वर्श हो गये उन्हें इस कॉलेज में पढाते हुए पर ऐसी स्थित कभी नहीे आई।उन्होने सोचा तो भय का अंतरग हिस्सा बनकर मन में एक उत्सुकता ने करवट ली। देखें तो आखिर कोन से लडके हैं जो उन पर हमला कर सकते हैं। पीछे मुडना चाहा पर मुड न पाए तो मन -ही- मन उन सम्भावित लडकेा के चेहरों की कल्पना की । कुछ सेकिण्ड में ही उनके सामने कॉलेज और खासकर हॉस्टल के सभी सरारती लडकों के चेहरे घूम गए...अरुणसिंह, शिव प्रताप, जाहिद,जसपाल, भोला ये ही तो हैं और इनमें एक भी तो एसा नहीं है जो उनके सामने आकर तेवर बदल सके । इस विचार से लगा कि मन में कुछ हिम्मत बधंी है। हिम्मत बँधी तो यह भी प्रश्न उभरा कि क्या उन्हें सचमुच डरना चाहिए!न...न आज उन्होंने कोई गलत और बेजा काम नहीं किया। पिछले  दस वर्शों में तो दर्जनों नकलें पकडी होंगीं उन्होंने,पर कभी कोई लडका एसा फिरंट नहीं हुआ। वे विस्मित भी थे कि आज ये लडके क्यों उनके पीछे-पीछे हैं ।भय का एक तिलंगा दहका उनके मन मंे , तो आज ये लडके बेइज्जत करना चाहते हैं उन्हें...या उससे भी ज्यादा...मनसूबा  तो खराब ही दिखते हैं इनके।
                ये सब तो तय है कि ये सब सुरेन्द्र के ही साथी होंगे । सुरेन्द्र के पकडे जाने का क्षोभ भी होंगा उनके मन में सच तो यही है कि हाथापाई तो सुरेन्द्र ने ही की थी तभी पुलिस केस बना। यदि चुपचाप संग चल देता और अपने फार्म पर दस्तखत कर देता तो कोई दिक्क्त ही न थी।
                रवि बाबू विचारों में खेाए रहने की बजह से बडे धीमें चलने लगे थे वे तब चोंके जब कि पीछे आ रहे लडकों की पदचाप और आपसी बातचीत के छिटके हुए से स्वर उन तक आने लगे । अनजाने में सतर्क होते रवि बाबू की गति कुछ बढी और लडके पिछडने लगे । सिर पर आ गया संकट कुछ दूर सरकता अन्ुभव किया रवि बाबू ने। वे सोच रहे थे कि पीछे आ रहे छा़त्र निहत्थे तो आऐ नहीे होंगे निपटने, हरेक के हाथ में कुछ-न-कुछ जरुर होगा-हाकी, चेन,सरिया और हो सकता है चाकू और कट्टा भी यह याद करते -करते एक बार फिर पसीने से नहा गए वे। लगभग दोडने के ढंग से सरपट कदम बढा दिए उन्होंने भय के अजगर ने बुरी तरह लपेट रखा था उन्हें और इस कारण जल्दी हा्रँफने लगे थे ।
                तभी शाम के सुरमई अधेरे को बेधती किसी छोटे वाहन की हैडलाइट से एकाएक उनकी आँखें चौधिया गईं।उन्होंने आँखें मिचमिचाई। सामने देखने में परेशानी होती थी।इस कारण नजरें सडक से चिपका लीं और बढते रहे। चलो, आसपास कोई तीसरा निश्पक्ष व्यक्ति भी मौजूद है इस अहसास से मन कुछ आश्वस्त हुआ
                निकट आने पर पता चला कि वह एक जीप थी। सरकारी जीप ऊपर पीली बŸाी लगी थी और सामने पीतल के मोटे अक्षरों में लिखा था-एस. डी. ओ.पी.। वे और अधिक आश्वस्त हो गये । अचानक ही जीप को रोकने के लिए उन्होंने पुकारने का यत्न किया तेा गला अवरुद्ध पाया। वे घबराए। ये नई आफत क्या आ गई!एक दो लम्बी सांसे ले कर उन्होंने गले की खरास को ठीक किया...और तब तक ...तबतक उनके बगल से निकलकर वह जीप कॉलेज की तरफ बढ चुकी थी ।खुद को बडा निरीह महसूसते रवि बाबू फिर से भय के अन्धे लोक आ गिरे थे।
                ब्रेक चरमराने की आवाज से लगा कि लगभग पचास कदम आगे जाकर वही जीप रुकी है फिर उल्टी चलती हुई उनकी  तरफ आ रही है वे रुके और तनिक सा मुडकर पीछे देखा। जीप उनके बराबर तक आ चुकी थी और सडक के उस पार रुक गई थी। जीप में से पुलिस अफसर की वर्धी में सजा-धजा एक युवक उतर रहा था साँझ के भुकभुके में भी उस नौ जवान पर नजर पडते ही रवि बाबू के मस्तिश्क में एक ही नाम अचानक कौंधा था- कुणाल वर्मा ! निःसन्देह वह कुणाल ही था।
                बीस डग की दूरी पार करता हुआ कुणाल जब तक रवि तक पहँचे , रवि का मस्तिश्क जाने क्या-क्या सोच चुका था। कुणाल भी कभी इस कॉलेज का छा़त्र रहा है और यह भी एक इŸिाफाक है कि कुणाल को भी उन्होंने बी.ए.फाइनल में टेबुल के पास पडी नकल की पर्चियों के साथ पकडा था। तब रुआँसा होता कुणाल उनके पैरों में गिर पडा था और बोला था,”सर , ये र्पिर्चयाँ में नहीें लाया। न मैने किसी से माँगी हैं। पता नहीं किसने फेंक दीं, ये मेरे पास। प्लीज सर, छोड दीजिए मुझे ,मेरा एक साल बरबाद हो जाएगा ।
                निरपेक्ष भाव से रवि ने तब इतना ही कहा था- मैं चाहता हूँ, कि तुम्हारा एक साल भले ही बरबाद हो जाए, पर जिन्दगी तो बरबाद न हो । एक बात बताऊँ कुणाल तुम्हें कि जिन्दगी बहुत लम्बी है और जिन्दगी की सफलता में एक साल का कोई महत्व नहीं होता।
                हालाँकि उस घटना के पहले कुणाल का एसा कोई रिकार्ड नहीं था कॉलेज में पर प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या?अलबŸाा उस दिन के बाद कुणाल और ज्यादा गम्भीर हो गया था पढाई के प्रति और ज्यादा परिश्रमी । यूनिवर्सिटी से उसका वह प्रकरण बिना किसी प्रतिबन्ध के निपट गया था अगल वर्श कुणाल ने फिर परीक्षा दी थी और अच्छे  नम्बरों से पास हो गया था।
                जल्दी ही अपने पिता का तबादला होने की वजह से वह यहाँ से चला गया था।बाद में सुना था कि वह डी.एस.पी. के लिए चुन लिया गया है।
                आज पूरे पाँच साल बाद उनके सामने था वही कुणाल । एकाएक रवि बाबु के भीतर कुण्डली मारे बैठे भय के नाग का फन फिर फैला- वही कुणाल भी मौका देखकर आज उस दिन का बदला...।ेे
                ”प्रणाम सर !उन्हें चौकाता हुआ कुणाल उनके पैरों पर झुका था और अन्तर्द्वन्द्व में जकडे रवि के मुँह से बेतुका सा जबाब निकला था-हैलो!ेेेेे
                रवि के चेहरे को देखकर कुणाल को शायद कुछ असामान्य सा लगा था और उसने रवि से पचास फिट दूर खडे लडकों पर एक उडती सी नजर डाली थी । रवि से एक मिनट की मुहलत माँगकर वह उन लडकों की ओर लपका तो जीप  के पास खडे ड्राइवर और सिपाही ने भी मुस्तेदी से कुणाल का अनुसरण किया था रवि का माथा ठनका था । वे परेशान से होकर उधर ही ताकने लगे थे । एक अजीब सी उदासी धुआँ-धुआँ होकर उनकी आँखों से रिसने लगी थी । बाद में उन्होंने देखा कि कुणाल उन लडकों के बीच खडा उनसे बातचीत कर रहा है और वे लडके सहमति में सिर हिला रहे हैंेे
                उनकी सारी आसंकाए तिरोहित हो गईं थीं  एक साथ, जब वे आठों लडक पीछे मुडे थे और पराजित -हॉस्टल लौट गये थे । सिपाही वगेरह भी वापस चल दिए थेेेेे और कुणाल , रवि बाबू की तरफ चला आ रहा था - सूने माहोल  में अपने पुलिसिया जूते खटकाता हुआ । रवि बाबू ने याद करने की कोशिश की कि वे लडके कोन-कोन थे ।
                ”वे लोग लौट गये सर !कुणाल के तरल हो आए स्वर ने चेतन्य   सा किया ।
                ऐं ...हाँ...हाँ...चले गए!अटकते से वे बोले । फिर एकाएक उन्हें याद आया तो कुणाल से पूछने लगे-आप...तु...तुम यहाँ केैसे ?ये पता लगा था कि तुम डी. एस. पी. हो गए हो पर अचानक ...
                ”सर मैं यहीं आ गया हूँ इन दिनों । कल ही ज्वाइन किया है मैंने ।कुणाल के स्वर में उमग रहा था- आइए सर , मैं आपको घर छोड दूँ।
                                ”न...न रहने दो । चला जाऊँगा मैं तुम चलो।कहते हुए रवि आहिस्ता चल दिए थे ।
                पीछे से कुणाल ने उन्हें फिर टोका और बोला-सर, लगता है, आप बहुत परेशान हैं । आप निश्चिन्त रहिए। उन लडकों मंे अब इतनी हिम्मत नहीं आइन्दा आपसे बात करें ।लेकिन ...कुणाल ने अपनी बात अधूरी छोड दी थी।
                रवि की निगाहें उत्सुकता और व्यग्रता से कुणाल के चेहरे की तरफ उठ गईं ।वे अन्दाज लगा रहे थे किलेकिनशब्द से छूट गऐ । वाक्य को कुणाल इसी तरह पूरा करेंगेलेकिन मैं आपसे यही कहूँगा सर  ,कि आयदंा आप इस तरह के झंझटों नहीं पडे तो ठीक रहेगा।उन्होंन खुद की सारी चेतना कानों में केन्द्रित कर ली । बात पूरी करने के लिए कुणाल का इन्तजार करने लगे ।
                और वे पुलकित हो उठे । उनके अनुमान को ध्वस्त करना कुणाल कह रहा था।क्षमा करें सर,अक्सर आपकी ही कही हुई बात को दुहरा रहा हूँ कि सच भले ही दुनियॉ में हर जगह सुरक्षित नहीं है उसे तोडा जाता है , लेकिन सच कभी भी दुनियॉ से पूरी तरह खत्म नहीं होता । कोई-न-कोई इसको बचाए रखता है।सर, मैने अभी तक के  जीवन में सबसे ज्यादा आपसे श्रद्धा की है, इसलिए और भी खुलकर अपने मन की बात आपसे कहना चाहता हॅँ
                रवि सर की आँखों को गहराई तक बेधती नजरें गडाकर कुणाल फिर बोला-मैं यह चाहता हॅू सर ,कि आइन्दा भी ऐसी स्थितियों में नितान्त अकेले आप सच की एसी ही हिफाजत करते रहें , तकि मुझ जैसे कई लोंगों को सच्चाई के कदमों पर इसी झुकते रहने की प्रेरणा मिलती रह सके ,ओर....
                अपनी बात पूरी नहीं कर पाया वह और सजल नेत्रांे से रवि बाबू के पैरों में झुक गया। पाँव पर गिरी कुणाल के ऑसू की बूँद ने बहुत सुख दिया रवि बाबू को । उनका हृदय विगलित हो उठा। उ्रन्हांेने होले से कुणाल के सिर को सहलाया और बा्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्रँह पकडकर सीधा खडा किया उसे।

                नत नयनों से कुणाल मुडा और अपनी जीप की अैार बढ गया। आशकां और भय के कुहासे से निकलकर प्रेम की स्निग्ध हवा से सराबोर होते रवि बाबू अपनी स्वाभाविक चाल से धर को चल पड़े ।






महेश कटारे की कहानी-
पार

           जान-पहचानी गैल पर पैर अपने-आप इच्छित दिशा को मुड़ जाते थे। हरिविलास आगे था-पीछे कमला उसके पीछे अपहरण किया गया लड़का तथा गैंग के तीन सदस्य और थे यानी कुल छह जने। जिस समय वे ठिकाने से चले थे तब सामने पूरब में शाम का इन्द्रधनुष खिंचा था अतः अनुमान था कि सबेरे पानी बरसेगा-संझा धनुष सबरे पानी। ठिकाने पर एक दिन भी सुस्ताते हुए न काट पाए थे कि मुखबिर की खबर आ गई थी-ठिकाने पर कभी भी घेरा पड़ सकता है। ऊपर का दबाव है इसलिए डी0आई0जी0 भन्ना रहा है। दो जिलों की पुलिस का खास दस्ता एक नये डिप्टी को सौंप दिया है। नाक में दम कर रखा है हरामजादे ने।
           ऊँ.... कुछ कहा हरिविलास पथरीली पगडण्डी पर बढ़ता हुआ            बोला।
           नहीं तो ! कमला जाने किस सोच से बाहर आई-कभी-कभी पहाड़ दूभर हो जाता है।
           बूँदा-बाँदी से रपटन बढ़ गई है। पहाड़ की ऊँचाई तो पहले ही जितनी है। बात को मजाकिया मोड़ देने की आदत है हरिविलास को।
           तीन घण्टे में इस कीच-खच्चड़ के मौसम में छह कोस बढ़ आना कम नहीं है। ऊपर से कंधे पर पाँच-सात सेर वजन बंदूक का रहता है पीठ के सफरी बैग में जरूरत की चीजें और कपड़े-लत्ते ठुँसे होते हैं। पुलिसवालों के खाने-पीने गोली-बारूद के इंतजाम में तो पूरी सरकार पीछे होती है। यहाँ तो एक-एक चीज़ खुद जुटानी पड़ती है। सुई से लेकर माचिस तक के लिए दहेज-सा देना पड़ता है।
           इस बार की पुलिसिया सरगर्मी में कमला के गिरोह ने तय किया है कि पूरब में पचनदा पार कर यू0पी0 में दस-पन्द्रह दिन गुजार लिये जाएँ। खबरे हैं कि उधर की पुलिस और सरकार दूसरी उठा-धराई में उलझी है इसलिए माहौल अनुकूल है। वैसे डाँग ही डाँग (जंगल) शिवपुरी की ओर भी निकला जा सकता था या धौलपुर को बगल देते हुए राजस्थान में भी कूदने से सुरक्षित हुआ जा सकता था।
           पहाड़ की आधी चढ़ाई तक पहुँचते-पहुँचते कमला की पिण्डलियाँ और पंजे पिराने लगे। धाराधार धावे में केवल दो जगह पानी पिया है। चलते-चलते बैठने पर थकान चढ़ दौड़ती है और बागी जीवन में आलस नींद और खाँसी तीनों खतरनाक हैं। माता की मढ़ी बस एक सपाटे-भर दूर है-बीस बाइस मिनिट का रास्ता पर कमला ने हाथ की टार्च जमीन की ओर झुकाकर दो बार जलाई-बुझाई। इसका मतलब वहाँ कुछ सुस्ताना है।
           वह पगडण्डी के पत्थर पर बैठ गई तो गिरोह आसपास सिमट आया। अपहत यानी पकड़ छीतर बनिया का पन्द्रह सोलह साल का लड़का है। पखवारे पहले गाँव के बाहर से गिरोह ने धर लिया था। हँगने आया था-पूँजी के नाम पर वही लोटा उसके पास है। दो लाख की फिरौती माँगी गई है। बिचौलिया एक पर लाना चाहता है। कहता है कि बनिया जरूर है जाति से पर दम नही है उसमें। गाँव-गाँव फेरी लगाकर परिवार पालता है। गाँठ की कुल जमा चार बीघा जमीन बेच-बाचकर ही एक लाख की रकम जुटा पाएगा। खरीदार भी तो ऐसे बखत औनी-पौनी कीमत लगाते हैं।
           कमला डेढ़ लाख पर उतरकर अड़ी है। गरीब सही, पर है तो बनिया ! हाथी लटा (दुबला) होने पर भी बिटौरा सा होता है।
           इधर आ रे मोंड़ा !
           कमला की कड़क से सहमता लड़का उकरूँ आ बैठा। थकान से वह भी टूटा हुआ था। कमला उसे लद्दू बनाए थी। लद्दू यानी लादनेवाला। छह कोस से वह कमला का बैग और बंदूक ढो रहा है। अपनी ग्रीनर दोनाली कमला को बेहद प्रिय है, पर लंबे कूच में वह केवल पिस्तौल लटकाती है।
           तेरी फट क्यों रही है  पास आ.....के !
           मर्दो की तरह गंदी-गंदी गालियाँ कमला के मुँह से शुरू-शुरू में लड़के को बहुत भद्दी लगती थीं पर अब जान चुका है कि यह सब काम मर्दो की नकल पर करती है। वैसे ही कपड़े जूते व्यौहार ठसक और डॉंट-डपट बदहवासी से बलात्कार तक...।
           कमला ने लड़के की ओर पाँव पसार दिए। लड़का कुछ और सरककर पिंडिलियाँ दबाने लगा। पैरों पर सिपाहियों जैसे किरमिच के बूट चढ़े थे।
           बाबा के पास चून धरा हो तो आज रात माता के मंदिर में काट लें  आसपास गीधों की तरह बैठे साथियों से कमला ने सलाह ली।
           रात-रात में ही पार होना ठीक रहेगा। डर के मारे वह खुद भी रात को सटक लेता है। दूसरे ने मत प्रकट किया।
           नदी का पता नहीं कि चढ़ी है या पाट है। चढ़ी मिली तो औघट पार कौन करेगा ये पिल्ला अलग से संग बँधा है-भो....का !
           अपने आदमी कुछ न कुछ इंतजाम करेंगे ही.....।
           वो बम्हना भी तो होगा वहाँ। महीने-भर में ही तबादला थोड़े हो गया होगा उसका। इधर आने को कोई तैयार नहीं होता सो तीन साल से मजा मार रहा है हरामी। लैनेमेन की तनखा झटकता है। काम क्या है .... बिजली का तार इधर से उधर उधर से      इधर। सो भी बिजली चली गई तो अट्ठे पखवारे-भर पड़ा-पड़ा पादता रहेगा। इन साले बाम्हनों को तो लैन में खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए। सब सीटों पर जमे बैठे हैं।
           कमला ने चिड़चिड़ाकर लड़के पर लात फटकार दी-भैंचो....! हाथों में जान नहीं है क्या  अभी छूट दे दो तो भैंस को गाभिन कर देगा।
           आकस्मिक प्रहार से लड़का गुलांट खाता हुआ लुढ़क गया। दर्द से कराहता हुआ वह आँसूस बहाने लगा। पकड़ को इसी तरह रखा जाता है। भूख, मार और दहशत से इतना तोड़ दिया जाता है कि अवसर मिलने पर भी निकल भागने का साहस न कर सके।
           लड़के की दुर्दशा पर कोई न पसीजा। यह तो होता ही है- उठ बे ! साले ठुसुर-ठुसुर की तो गोली मार के घाटी में फेंक दूँगी। कहते हुए कमला की निगाह घाटी की ओर घूम गई।
           कमला मोहिनी में बँध उठी। घाटी और उसके सिर पर तिरछी दीवार की तरह उठे पहाड़ पर जगर-मगर छाई थी। जुगनुओं के हजारो-लाखों गुच्छें दिप्-दिप् हो रहे थे। लगता था जैसे भादों का आकाश तारों के साथ घाटी में बिखर गया है। चमकते-बुड़ाते जुगनू कमला को हमेशा से भाते हैं। सांझी में क्वार के पहले पाख में लड़कियाँ कच्ची-पक्की दीवार पर गोबर की साँझी बनाती थीं। दूसरी लड़कियाँ तो अपनी-अपनी पंक्ति तोरई के पीले लौकी के सफेद, या तिल्ली के दुरंगे फूलों से सजाती थीं, कमला अपनी पंक्ति में जुगनू चिपका देती फिर कुछ दूर खड़ी हो मुग्ध आँखों से अपना करतब निहारती थी। तब यह उसका खेल था- कहाँ समझती थी कि उसके खेल में जुगनू जान से जाते हैं।
           इलाके में आतंक है कमला का अपनी पर आती है तो किसी को नहीं छोड़ती। वह उसका खास था, जाति का था सप्लाई करता था, सुना जाता है कि कमला उससे जरूरत का काम भी लेती थी। गिरोह तक के लोग दबते थे उससे। अचानक जाने कैसे बिगड़ी कि कमला ने पचीसों के सामने उसके मुँह में मुतवाया और कोहिनी के ऊपर से दोनों हाथ गँडासेस से कतर दिए। जातिवाला था नहीं तो जैसा कि उसका तकिया कलाम है-अंगविशेष मे गोली घुसेड़ देती। वह आदमी इलाके में कमला का विज्ञापन बना घूमता है।
           चलो...माता की मढ़ी पै बिसराम करेंगे। कह कमला खड़ी हो गई।
           लड़के ने ग्रीनर बाँस की तरह कंधे पर रखी, ढीले बैग के फीते कसे और नाक सुड़कता हुआ बढ़नेवाले कदमों की प्रतीक्षा करने लगा। जानता है उसे न घाव सहलाने का     अधिकार है न दिखाने का। नाक में छल्ला-छिदे बछड़े की तरह उसी ओर मुड़ता है जिधर रस्सी का संकेत मिले।
           मंदिर पर पहुँच सबने चबूतरा छू, माथे से लगा, पा-लागन किया और जूते उतार फेरी लगाते हुए मढ़ी में घुस गए। मूर्ति के पैरों में एक चीकट दिया जल रहा था जिसकी आभा में मूर्ति प्राणवान् और रहस्यमय दिख रही थी। बाबा अँधेरा होते ही संझा-बत्ती कर शायद नीचे उतर गया होगा।
           पहाड़ के छोर पर बना यह छोटा-सा मंदिर रतनगढ़ की माता के नाम से प्रसिद्ध है। किंवदंती है कि दूज-दीवाली के दिन यहाँ आल्हा पूजा करने आते हैं। आल्हा अमर है-युधिष्ठिर का औतार। बड़े-बूढ़ों ने रात-बिरात किसी पचगजे (पाँच गज लम्बे) आदमी की पहाड़ी चढ़ती उतरती झलक देखी है। देखने वालों में ज्यादातर मर-जुड़ा गए। एकाध बचा है जिससे ब्यौरेवार कुछ पता नहीं चलता, बस धुंधा में कोई तस्वीर तनकर रह जाती है।
           मंदिर तक पहुँचने के केवल दो रास्ते हैं-एक तो पहाड़ी की कोर-कोर चलती ऊँची-नीची घुमावदार पगडण्डी और दूसरा खण्डहर हुए लौहागढ़ के किले होकर दीवार की तरह सीधी खड़ी पहाड़ियों के सिर पर माँग-सी-भरती तीन कोसी कच्ची सड़क। मढ़ी की छत पर बैठा आदमी पल्टन भी आगे बढ़ने से रोक सकता है। दो चार को तो गोफनी में गिट्टी भरकर निपटाया जा सकताा है।
           चौमासे में यह स्थान गिरोहों के लिए मैया का वरदान है। ऋषि-मुनियों की तरह दस्युदल चातुमार्स ऐसे ही ठिकानों पर बिताते हैं। कमला के गिरोह का नाई सदस्य हरविलास जनम का हँसोड़ है। कहता है- हम लोग जोगी-जाती हैं। करपात्री हैं। जब जहाँ जो मिल जाए खा लो और मौका मिल जाए तो सो लो। बाकी चलते रहो। जोगी-जती कहीं किसी से नहीं बँधते। हमारी भी वही गति है। न जिंदगी का मोह न घर-द्वार की मया (माया)।
           एक वही है जो कभी-कभी मौज में आकर कमला को बीबीजान कह देता है। पहली बार तो सुनकर कमला हत्थे से उखड़ गई थी, पर जब उसने बताया था कि फिल्मों में सबसे सुन्दर और घर की मालकिन को बीबीजान कहा जाता है तब से कमला यह सुनकर खिल जाती है। कमला ने हरिविलास की हैसियत बढ़ाई है, कैंची-उस्तरा की जगह बारह बोर सौंपी है।
           हरिविलास ने ही बताया था कि-बीबीजान को हम रण्डी समझते हैं.....कुछ जानते थोड़े हैं। जाननेवाले तो दिल्ली-बंबई में रहते हैं। तड़ातड़ मारनेवाले को वहाँ लाखों-करोड़ों, कोठी-कार मिलते हैं। हमें क्या मिलता है सेंतमेंत की दुःख-तकलीफ देते-लेते हैं।
           ऐसे में कमला हँसकर कहती है-साला नउआ घरवाली का टेंटुआ चीरकर     इधर क्या आ मरा  निकल जाता बंबई या दिल्ली।
           दिल्ली तो हम तुम्हें पहुँचाएँगे कमला बीबी ! वहाँ अपनी फूलन अकेली है- बस, एक बड़ा स्वयंवर रच दो। दिल्ली-बंबई वाले लार टपकाते तुम्हारे पीछे न घूमें तो मैं मूँछ मुड़ा के नाम बदल लूँगा। फूलन तो शकल-सूरत से मात खा गई। तू पहुँचते ही मिनिस्टर हो जाएगी।
           कमला सोचती है- नउआ ससुरा बड़ा ऐबी है। छत्तीसा साला ! सपनों के हिंडोले पे झुला देता है। प्रकट में कहती है- चुनाव तेरा बाप जितवाएगा
           मेरा बाप तो जाने सरग में है कि नरक में ....पर कोई न कोई बाप मिल ही जाएगा। और चुनाव तो आजकल जाति जितवाती है। तेरी जाति, मेरी जाति और बाप की जाति-बस हो गए पार। हरिविलास खी-खी कर देता है।
           टैम कितना हो गया ? कमला की पूछती निगाह हरिविलास पर घूमी। हरिविलास की घड़ी पानी भर जाने से बंद है। कमला की घड़ी पट्टा टूट जाने से सामान के साथ लद्दू की पीठ पर लदी है। बाकी बे-घड़ी हैं। बादलों की टुकड़ियों से सप्तऋषि और सूका (शुक्र) भी दुबके-ढके हैं।
           दस के लगभग होंगे। बन्दूक पर हाथ फेरते हरिविलास बोला।
           अब तो चार घड़ी यहीं बिसराम ठीक रहेगा। भोर में नदी पार कर लेंगे। छत की छॉव और चोटी का पवन पाकर गिरोह में आलस पसरने लगा था।
           थोडा-बहुत पेट में भी डालना है। भागमभाग में दोपहर आधा-अधूरा खाया, तब से एक घूँट चाय भी नहीं मिली।
           मौन स्वीकृति के साथ सबके झोले खुलने लगे। लड़के ने पीठ का थैला खोलकर कमला के सामने रख दिया। बोतल निकाल कमला ने तीन-चार बड़े बडे घूँट भरे। सबके पास इसी किस्म की बोतले हैं। इनका खास लाभ यह रहता है कि वजन में हल्की होती हैं। लड़का इस उसकी ओर टुकुर-टुकुर ताक रहा था कि कोई उसे दो घूँट पानी के लिए पूछ ले । मुँह से माँगने पर कमला के कोप का शिकार हो सकता है। संग-साथ रहते जान चुका है कि भूख-प्यास के बखत कमला खूँखार हो जाती है। पहाड़ी चढ़ते समय भी उसका गला चटका जा रहा था।
     प्यास के साथ उसे घर की याद भी आ रही थी। वहाँ पर वह भरपेट खाकर मजे से सो रहा होता। माँ याद आई- क्या वह सो चुकी होगी जग रही होगी। चारों भाई-बहनों पर हाथ फेरकर ही सोने लेटने है। मेरे बदले का हाथ किस पर फेरती होगी ?
     भूख-प्यास भूलकर लड़का झर-झर आँसू टपकाने लगा। हिलकियों से देह हिल उठी। कमला बिस्कुट कुतरने में लगी थी। भौंहे चढ़ाकर फुफकारती-क्या हुआ बे  बीछू लग गया क्या
     हिलकियाँ रोकने की कोशिश में लड़का और भी हिलने लगा।
     बोलते क्यों नहीं मादर....! कुछ खाने बैठो तभी खोटा करने लगता है। जी में आता है कि ....मैं गोली उतारकर ठूँठ पै टाँग दूँ हरामी को। चप....।
     कमला ने दो बिस्कुट उसकी ओर फर्श पर फेंक दिये। लड़का आँसू सँभालता हुआ बिस्कुट चबाने लगा। बिस्कुट का गूदा वह बार-बार जीभ से भीतरर की ओर ठेलता पर प्यासे मुँह लार न होने से पेट में न सरक पाता। लड़का घूँट से भरता बिस्कुट निगलने की कोशिश कर रहा था।
     दिए की पीली रोशनी में हरिविलास को लगा कि लड़के की आँखे बिल्कुल वैसी ही हो रही हैं जैसी उस्तरा गर्दन पर रखे जाते समय उसकी पत्नी की हो गई थीं। अनमने हरिविलास ने अपनी बोतल लड़के की ओर सरका दी- पानी पी ले पहले।
     लड़के ने बिस्कुट चबाती कमला की ओर देखा।
     पी ले ना ! हरिविलास ने नरमी से कहा।
     लड़का फिर भी हाथ न बढ़ा पाया।
     पी ना....के। हरिविलास की चीख मढ़िया में गूँज गई।
     लड़के ने सकपकाकर बोतल झपट ली। कमला मुस्करा उठी। दूसरे हँस पड़े- दीवारों के बीच कहकहे भर गए। माता की मूर्ति उसी तरह अविचल थी- सिंह पर सवार, सिर की ओर त्रिशूल ताने।
           सहमते लड़के ने गिनती के चार बड़े-बड़े घूँट भरे और ढक्कन कसकर बोतल हरिविलास की ओर बढ़ा दी।
           अब चल देना चाहिए। हरिविलास की गंभीरता से गिरोह के लोग चौंक गए।  
     क्यों ? यहाँ बिसराम .... दीवार के सहारे अधपसरी होती कमला ने पूछा।
           कान खोलो ! दखिनी तरी में मोर कोंक रहे हैं....सियार भी रोए हैं। दबस (दबिस) हो सकती है।’’
           अलसाता गिरोह चौकन्ना हो गया। कमला ने दीवार से टिकी ग्रीनर दुनाली झटके के साथ पकड़ ली। और कमर में बँधी बेल्ट से दो कारतूस निकाल तेजी के साथ बेरल में ठोंक दिए।
           अगले क्षण गिरोह खुले चबूतरे पर था। सबकेक आँख-कान टोह पर थे। अँधेरे में दुश्मन को गच्चा दिया जा सकता है तो दुश्मन भी अँधेरे का लाभ उठाकर घेर सकता है। मोर रह-रहकर कोंक उठते थे। संकेत, किसी के मंदिर की ओर बढ़ते जैसे थे।
           देखो-देखो। वो बाटरी चमकी !’’ तरी के घने बबूल वन में कुछ चमककर बुझा था।
     दूसरा गिरोह भी हो सकता है।
     कौन होगा ? चरन बाबा शहर में है। इधर है ही नहीं।
     देवा घूम सकता है। उसकी बिरादरी के काफी घर हैं इधर।’’
     पुलिस भी तो हो सकती है-गैल काटकर आ रही हो।’’
     डाबर में पुलिस वाले क्यों मरेगे ?
     नौकरी के लिए सब करना पड़ता है, मन-बेमन से।’’
     अब जल्दी से पार निकल जाना चाहिए।’’
     उधर यू.पी. की पुलिस डटी हो तो ? उधर की सूँघ-साँघ तो लेनी पड़ेगी।’’
           तो जा ! लुगाई के घाँघरे में दुबक जा। अबे साले, तू क्या पुलिस की जगह जिंदाबाद-जिंदाबाद गानेवाली भीड़ की उम्मीद रखता है ? बागी क्यों बना ? लुल्लू-लुल्लू करता घर रहता और टाँग पसारकर सोता।’’ हरिविलास की इस झल्लाहट पर चुप्पी हो गई। इसे अचानक हो क्या गया है ?
           जल्दी के लिए खड़ा उतार पकड़ा गया। टॉर्च जलाना खतरनाक था। पैरों को तौल-तौलकर रखना पड़ रहा था। लड़के को अब हरिविलास ने अपनी बगल में ले लिया- इन रास्तों के लिए कच्चा और निज़ोरा है लड़का। नेंक चूकते ही हजारों हाथ नीचे पहुँचेगा। हड्डियाँ भी नहीं बचेंगी- सबरे तक। लड़के की पीठ पर अब केवल सफरी बैग था। बंदूक कमला ने सँभाल ली थी।
           नीचे पहुँचते ही बेसाली के भरके (बीहड़) शुरू हो जाते हैं। यहाँ की मिट्टी पानी में बूँद के साथ घुलकर बहने लगती है। हर बरसात में बीहड़ा का नक्शा बदलता है। बड़े ढूह टूट और भहराकर निशान खो देते हैं तो छोटे ढूह नीचे की मिट्टी बहने से ऊँचे हो जाते हैं। हर साल पुराने के आसपास नए रास्ते बनते व चुने जाते हैं। गैर-जानकार के लिए पूरी भूल भुलैया हैं भरके। फँसने वाले का राम ही मालिक है। भेड़िए, बघेरे, साँप-सियार सभी का तो आसरा है इनमें। जंगली जानवरों से बचने के लिए गिरोह ने टॉर्च जला ली। रोशनी से चमकमकाए जानवर पास नहीं आते। पुलिस के यहाँ भय नहीं- कदम-कदम पर ओट व सुरंगो जैसे रास्ते हैं।
     आधी रात छूते-छूते गिरोह ने बेसली की रेत पकड़ ली। नदी में बाढ़ नहीं थी, पर बिना तैरे पार न हुआ जा सकता था।
     कमला ने नथुआ को बुलाकर समझाया-‘‘नत्थू ! तुम इस सुअरा को जलेकर खैरपुरा पहुँचो। मेहमानी करो दो-चार दिन। इसे भुसहरा में डाल देना- आराम कर लेगा। इधर की जानकारी लेते रहना ! ऐसी-वैसी बात न हुई तो छठे दिन मंदिर पै मिलेंगे। और सुन, चरन बाबा या भरोसा गूजरा की गैंग टकरा जाय तो बरक जाना। ये मादर....अपने को धरती से दो हाथ ऊँचा समझते हैं।’’
     नत्थू ने लड़के की पीठ से कमला का बैग निकलवाया और अपना कस दिया, फिर ‘‘जय भीमबोलकर दो छायाओं के साथ अँधेरे में समा गया।
     अब गिरोह तीन जगह बँट गया था। अपनी-अपनी जाति में सुरक्षा पाना आम चलन है। भरकों के बीच चौरस जगहों पर खेत हैं। जगह-जगह नलकूप व उसके साथ मंजिला-दोमंजिला कोठरियाँ हैं। आराम से खाते हुए पड़े रहो और खतरे की भनक मिलने पर बीहड़ में सरक लो।
     हरिविलास को कमला ने बिजली वाले रमा पंडित को लाने भेज दिया था। बाम्हन होकर भी तैरने में मल्लाहों के कान काटता है। यहाँ नौकरी करते, डाकुओं से साबका रोजमर्रा की चीज़ है, पर वह कमला से बेतरह डरता है। तरह-तरह के किस्से हैं, उसके बारे में-बड़ी जाति से घृणा करती है। आदमी छाँटकर महीने-दो महीने सेवा करवाती है, फिर गोली मार देती है। बुलावे पर पहुँचने की मजबूरी ठहरी-रोज यहीं रहकर बिजली के खंभों पर चढ़ना  उतरना है।
     रेत पर चित्त पड़ी कमला के पास पहुँच रामा ने हरिविलास के बताए अनुसार अभिवादन किया।
     तू ही रामा पण्डित है ? ’’ कमला ने पूछा।
     हाँ, बहन जी !’’
     भैंचो ....! तुझे मैं बहन दिखती हूँ ?’’
     रामा घबरा गया-मैंने तो .....मैं....माफ कर दें।’’ वह घिघियाने लगा। समझ नहीं पा रहा था कि कैसे संबोधित करें।
     ठीक है, जल्दी कर !’’ कमल बैठ गई- ‘‘और सुन, दगा-धोखा किया तो लाश चील-कौवे खाते दिखेंगे ! सामान ले जा पहले, तब तक मैं कपड़े उतारती हूँ।’’
     जी-ी-ी ?’’
     ठीक है।’’ रामा ने कंधे पर रखा मथना रेत पर रख दिया। बैग का सामान मथना के भीतर जमाया गया। दो बंदूकें खड़ी करके फँसाई गई।
     तुम दोनों इसके साथ तैरकर पार पहुँचो। मैं इसे निशाने पर रखती हूँ, तुम उस पार से से रखना।’’ कमला ने सुरक्षा-व्यवस्था समझाई।
     बादल छँट जाने से सप्तमी का चन्द्रमा उग आया था। पार के किनारे धुँधले-से दिखाई देने लगे थे। तीनों उघाड़े होकर पानी में ऊपर गए। कमर तक पानी में पहुँच रामा ने गंगा जी का स्मरण कर एक चुल्लू पानी मुँह में डाला, उसके बाद दूसरा सिर से घुमाते हुए धार की ओर उछाल दिया। दो कदम और आगे बढ़ रामा ने बाई हथेली तली से चिपकाई व दाहिनी मुट्ठी मथना के किनारे पर कस दी-जै गंगा मैया !
     जै गंगा मैया !
     तीनों पैर-उछाल लेकर पानी की सतह पर औंधे हो गए। गुमका मारता हुआ रामा आगे और बहमा छाँटते दोनों पीछे। पानी का फैलाव अनुमान से अधिक निकला। दोनों बागी पार पहुँचते-पहुँचते पस्त हो गए थे।
     पंडित थक गए क्या  लम्बी साँसे भरते हरिविलास ने पूछा।
     थकान तो आती ही है। मथना से सामान निकालते रामा ने उत्तर दिया।
     तुम आराम से आना-जाना। जल्दबाजी की जरूरत नहीं है। उधर सुस्ता लेना कुछ। औरत वाली बात है। मथना थामने की क्रिया बता देना उसे। हरिविलास ने समझाया।
     बैफिकर रहो कहा रामा पंडित मथना के साथ फिर पानी में आ गया। धार काटते हुए सोच रहा था कि बस आज की रात खेम-कुशल से गुजर जाए। कल इंजीनियर के सामने जाकर खड़ा हो जाऊँगा कि साब तीन साल हो गए सूली की सेज पर सोते, अब तबादला कर दो। जान सदा जोखिम में ऊपर से अपमान।
     सोच में उतराता रामा किनारे आ गया। कंधे पर मथना रख चुचुआती देह लिये वह कमला की दिशा में चलने लगा। हल्की-हल्की हवा से देह ठण्ड पकड़ने लगी थी। चाँद कभी खुलता कभी ढँक जाता। उस पार के आदमी धब्बे की झाँई मार रहे थे। नदी का फैलाव अस्सी-नब्बे हाथ तो रहा ही होगा।
     आ गया  कमला की आवाज आई।
     रामा के मुँह से केवल हूँ निकल सका। आने-जाने में हुई देर पर खींझकर कहीं भड़क न बैठे, इसके डर से रामा सहमा-सा खड़ा हो गया-सामान दे दो, रख दूँ।
     ले ! कमला ने अपने जूते बढ़ा दिए। रामा को लेने पड़े। वह ग्लानि से भर गया-साली नीच जाति की औरत। बड़उआ जाति का कोई ऐसा कभी न करता। उसेन जूते मथना की तरी में जमा दिए।
     और...
     इस बार कमला की पेंट थी। रामा सनाका खा गया। पेंट के साथ चड्डी थी। सिर नीचा किये उसने ये भी भर दिए।
     तेरे घर कौन-कौन है घरवाली है
     बस एक बिटिया है पाँच बरस की। घरवाली तीन साल पहले रही नहीं।
     अच्छा मैं अगर तुझे रख लूँ तो.... जैसे मर्द औरत को रखता है।
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     कुछ कहा नहीं तूने  कमला की आव़ाज कठोर हुई।
     मैं ...क्या कहूँ  तुम ठहरी जंगल की रानी और मैं नौकरपेशा। आज यहाँ, कल वहाँ।
     यहाँ है तब तक रहेगा मेरा रखैला
     अब मैं क्या बोलूँ
     गूँगा है  डर मत ! मैंने जिनकी कुगत की है वे दगाबाज थे। संग सोकर बदनामी करने वाले को मैं नहीं छोड़ती। तुझसे भी साफ कह रही हूँ-ले ये भी रख दें।
     लेने के लिए हाथ बढ़ाते रामा ने देखा कि कमला कमीज़ उतारकर बढ़ा रही है।
     हल्के-से उजाले में कमला की देह किरणें छोड़ रही थी। रामा की आँखें भिंच गई। उसे मथना का मुँह नहीं मिल रहा था। हाथ कभी इधर पड़ता कभी उधर। पसीना छलछलाकर रोएँ खड़े हो गए। नथुनों में कोई विकल गंध भर रही थी। पैर झनझना आए। कसमसाती देह फट पड़ने को हो गई।
     और ये भी....। कमला की काँसे की खनकती हँसी के साथ रामा ने पाया कि वह रेत पर पटक लिया गया है।
           ना....ना ! छोड़ो.....! करता रामा रेत रौंदने में शामिल हो गया।
           थोड़ी देर बाद उस पार से कूक आई। कमला ने कूक से उत्तर दिया कि- सब ठीक है।...ला पेंट निकाल।
           रामा ने अपराधी की तरह पेंट निकाली।
           कमीज...।
           पेंट कमीज कसकर सिर से साफी बाँध कमला ने बंदूक उठा ली-चल पार पहुँचा।
           मथना में दुनाली रखते हुए लोहे के ठण्डे स्पर्श से रामा में कँपकँपी भर आई। वह कमर तक पानी में खड़ा हो कमला के कदम गिनने लगा।

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