शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

राजनारायण बोहरे की एक और कहानी







डूबते जल यान
                चूल्हे में लगी लकडी बहुत धुधुआ रही थी । सिलेण्डर कोने में लुडका पडा था ,शहर में गेस सिलेण्डर पन्द्रह दिन में नम्बर आता है  तब तक मिट्टी के चूल्हे और लकडी - कण्डा से जूझती रहेगी वह ।        
                खुल्ल खुल्ल खुल्ल !
      बाहर के कमरे से फिर खॅासने की आवाज आई है ।! अब्बल दर्जे के जिद्दी हैं बीडी को नहीं छोडेगें , और जब तकलीफ  भोगेंगे , तो खुद के अलावा  दुसरों को भी कश्ट पहुचाएगे । बाबूजी लकवे के शिकार हैं जब खॅासी चलती है तो दिवा ही कन्धेां से पकडकर उठाती है ओैर सीने को सहलाती है तभी ।  
                बाबूजी के अलावा दिवा को बाजार का काम भी देखना होता है सास जिन्दा होती तो कुछ हाथ बॅटाती लेकिन तीन वर्श पहले वे सुहागिन बनी , सजी -धजी, मॉग भर सिन्दूर , हाथ भर चूडी और पॉवो में तीन तीन बिछिया पहने स्वर्ग सिधारीं हैं । घर में दिवा अकेली है । उसका पति बिपिन छŸाीसगढ में डाक्टर हैं । कभी कभार महीने दो महीने में उसे छुट्टी मिलती है तो आ पाता है । यूॅ विपिन के बडे भाई नवीन यहीं है इसी शहर में नहर विभाग के दफ्तर में यू़ डी सी  है । अच्छी खासी कमाई है । चाहें तो बाबूजी ओर रश्मि को अपने साथ रख सकते हैं , लेकिन उन्हें तो सगों में सडाँध आती है । विपिन अपना कोर्स पूरा कर रहा था उन दिनों नवीन की पत्नी रूपा के माध्यम से आया रिस्ता, किसी कारणवश बाबूजी ने नहीं स्वीकारा तो नवीन भाई चिडकर अलग हो गये थे , । जैसे तैसे करके विपिन  ने डिग्री हासिल की फिर उसने कई जगह इन्टरव्यू दिये थे । छŸाीसगढ के धुर जंगली इलाके की पोस्टिंग मिलने पर चिन्तित हुए, एक बार वह नवीन के यहॉ भी गया , और अपनी अनुपस्थिति में घर की फिक्र करने की बात कही , तो नवीन भाई, बाबूजी के प्रति अनाप-शनाप बोलने लगे थे । खिन्न मन से विपिन डयूटी पर चला गया था ।                                                                                        एक दिन टेलीग्राम मिलने पर वापस आया , तो पता चला कि बाबूजी पर फालिज गिरा है । बिल्कुल लुंज -पुजं होकर बाबूजी खटिया पर लेटे मिले थे । विपिन तो घबरा ही गया था आनन -फानन में इन्दोर ले जाकर विपिन ने बडे अस्पताल में इलाज आरम्भ किया था । दो महीने तक इलाज कराया और जब बाबूजी थोडा चलने -फिरने की स्थिति में हुए तो उसने नोकरी की सुध ली थी जबलपुर वाली दीदी व जीजाजी को जल्द-से -जल्द विपिन की शादी निपटाने की फिक्र लग गई थी । उन दिनों दिवा ने एम ए फाइनल दर्शनशास्त्र की परीक्षा दी थी ,और रिजल्ट का इन्तजार कर रही थी ,कि एक दिन विपिन और उसके दीदी- जीजाजी उसे देखने अचानक आ पहँचे  । दिवा तब शरीर और मन के तर्क -युद्व के बीच निरुपाय -सी बैठी थी ।                                         बिपिन ने उसे एक नजर देखा और तुरन्त ही पसन्द कर                 लिया । दिवा का मैान उसकी सहमति मान ली गई थी ।
                कितनी दफा याद आया है दिवा को अपना वह अन्तर्द्वन्द्व । स्म्रति की जिस गली से होकर विपिन से उसकी शादी की बात याद आती है, उसके ही पास की गली में बैठा कोई और जैसे उस अन्तर्द्वन्द्व को कौंच कौंच कर जगाता है ।
वह यन्त्रवत सब कुछ करती रही थी शादी में जब लोग इकट्ठे हुए । दिवा ने अभी तक पिता का लाड देखा था और देखी थी अपने मन के महत्वाकांक्षी परिन्दे की असीम उडान । यूनिवर्सिटी की क्रिकेट टीम में वह विकेट कीपर के रूप में शामिल रहती थी और इसी कारण उसने प्रदेश ही नहीं देश के कई शहर अपनी टीम के साथ घूम लिए थे।  ससुराल पहुँच कर वह एकाएक घबरा ही गई ,क्यों कि एक देहाती घर था वह । अपने डैडी के नौकर -चाकरों से भरे घर में उसे कभी एक गिलास पानी भी अपने हाथ से नहीं पीना पडा था । जबकि यहॉ हर काम उसे खुद करना था, अपना भी  और परिजनों का भी । पहली रात देर तक रोती रही थी ।  शादी के चोथे दिन ही रसोई की राह दिखा दी गई जहॉ प्रविश्ट होते समय वह अपनी मम्मी की बेहताशा याद करती रही थी ,जिन्होंने स्त्रिीयोचित दूरगामी द्रश्टि से दिवा को कच्चा-पक्का खाना बनाना सिखा ही दिया था ।                                                               घर लोटकर वह अपने पूरे प्रयास के बाद भी चुप नहीं रह पाई थी । तडपकर उसने मम्मी से पूछा था क्यों नरक मे झोंक दिया उसे ? मम्मी विचलित हो उठीं थीं और डैडी भी भी उसके असंन्तोश से शान्त न रह सके थे डैडी आहिस्ता से बोले थे -देखो बेटा, आजकल  लडका सब देखते हैं । तुमको कितना रहना है उस घर में ? नोकरी पर रहना ही है तुम्हें । और बेटा जो होना था ,वह तो हो लिया । हम तो पराये हो गये तुम्हारे लिए ।संजीदा हो गये पिता की गोद में सिर छिपा लिया था दिवा ने ।       अगली दफा बाबूजी का आग्रह मानकर बिपिन असे छŸाीसगढ ले गया था । उस दफा जल्दी लोट आई थी दिवा । यहॉ सब कुछ ठीक-ठीक चलने लगा था। कि एक दिन अचानक अम्माजी की तबियत बिगड गई ओैर उन्हें अस्पताल ले जाना पडा था सीने में दर्द जान लेबा हो गया था । अस्पताल में ही  शरीर छूट गया । तार पाकर तीसरे दिन बिपिन आ पाया था माताजी की तेरही के बाद जिस दिन विपिन अपनी डियूटी पर लोटने की तैयारी कर रहा था उस दिन बाबूजी को सुबह से कुछ घबराहट होने लगी । सीने में दर्द और बेइंतहा गर्मी का अनुभव करते बाबूजी का चैक-अप जब खुद बिपिन ने किया तो पाया कि उन्हें हार्ट-अटेक हुआ है । स्थानीय अस्पताल में भर्ती करते-न- करते बाबूजी पर लकवे का दूसरा हमला हुआ । फिर तो विपिन प्राणपण से उनकी खिदमत में जुट पडा था टैक्सी करके वह फिर इन्दौर भागा था और बाबू जी को भर्ती करा दिया था ।
                इस बार सीबियर अटेक था ,इस वजह से डाक्टरों को भी ज्यादा उम्मीद न थी । बाबूजी  की प्राकृतिक चिकित्सा प्रारम्भ हुई थी । चुम्बक के पानी की मालिश होती , वही पानी उन्हें पिलाया जाता ।
                चमत्कार सा हुआ । बाबूजी अच्छे होने लगे । उनके हाथ- पॉव में हरकत शुरु हुई और मुँह से टूटे-फूटे स्वर निकलने लगे । अब जाकर सबने राहत की साँस ली थी । धीरे-  धीरे अपनी पुरानी हालत में लौटने लगे थे ।
                अचानक एक दिन अपने विभाग से विपिन को तार मिला । उसे तत्काल ज्वाइन करने  का आदेश दिया गया था । दिवा के जुम्मे सब कुछ छोडकर वह अपनी नोकरी पर भाग गया ।
                जब भी बिपिन आता वे दोनों अकेले में मिलने को तरस जाते । यदा-कदा ऐसा अवसर आता भी तो चिन्तित और व्यग्र बिपिन उससे उतावली में मिलता और उसी उतावली में पार हो जाता । वह क्षुव्ध हो उठती । हर बार की अतृप्ति अनबुझी प्यास, उसके मन में कुण्ठा बढा जाती ।
                दिवा चुपचाप उठी और किचन में घुस गई । उसने खना बनाया और बाबूजी को खिलाया , उसे अभी खाना नहीे खाना , क्योंकि आज गुरूवार का ब्रत हे उसका ।
                गुरूवार की याद आते ही उसकी स्मृति का दूसरा धडाक से खुल गया ।अरे बाप रे !आज तो दीपू आयेगा । उसे झटपट तैयार हो जाना चाहिए । नहीं तो उसे बागड बिल्लो बनी देख, जाने क्या-क्या सुनाने लग जाएगा । जहॉ का काम तहॉ छोडकर उसने बाल खोले और कघंी फेरने लगी ।
                दीपू! दीपू! दीपू!
                वह नाम उसके दिल-दिमाग में ताजगी भर देता है, पिछले कई वर्शौं से क्षण-क्षण । याद है उसे , दीपू से हुई मुलाकात । शादी के पहले की बात थी वह । दिवा को टायफाइड निकला था   दिवा की बडी दीदी श्ल्पिा उन्हीं दिनों मायके आई । शिल्पा के साथ एक अजनबी अल्हड-सा युवक भी था जो पूछने पर पता चला था कि वह था शिल्पा का देवर -दीपू! बाप रे! बचपन का वह दुबला पतला और शर्मीला दीपू अठारह-उन्नीस पार करते - करते कैसे खुबसूरत और जिन्दादिल युवक निकल आया था । दीपू ऊपर से  जितना मस्त और लापरवाह  भीतर से उतना ही भावुक और गम्भीर भी । कम  उम्र म में उसकी दृश्टी इतनी साफ और स्पश्ट थी , कि दिवा जैसी गम्भीर व पढाकू नव युवती उस के सामने नन्हीं बच्ची बनी टुकुर - टुकुर ताकती रहजाती ।
                हमेशा  दिवा को हँसाता - गुदगुदाता वह ढेर सारे चुटकुले छितराता रहता था  ।
                दीपू के आने के तीन दिन के भीतर उन दोनों में ऐसा लगाव हो गया कि एक-दूसरे से चुहल किये बिना उनका समय ही न कटता । पहली बार दिवा को अपनी रुचि का कोई मिला । वर्ल्ड -कप क्रिकेट से लेकर रणजी ट्रॉफी तक के खिलाड़ी और पॉप जॉर्ज संगीत से लेकर बुन्देलखंण्डी   लोक - संगीत तक नये से लेकर पुराने फैसन तक कोई भी तो एसा पक्ष न था, जिसको वह बारीकी से न जानता हो । शिल्पा ससुराल लौटी तो हवा पानी बदलने के लिये दिवा को साथ लेती आयी थी ।
                                फिर वह शायद अनिवार्य हादसा ही था उस रात, कि तब देर रात दिखाई जाने वाली शुक्रवार की फिल्म दूरदर्शन से प्रसारित हो रही थी ।बाहर मौसम बेहद खराब था । आसमान में गड़गड़ाते जलधर और चमकती बिजली वातावरण को अपनी रुपहली चमकसे एक पल के  लिये प्रकाशित कर फिर से अंधेरे में डुवा जाती थी । अपने कमरे में निकट बैठे दीपू और दिवा   टटोलने के लिये हाथ बढ़ाये,तो एक-दूसरे के अनियन्त्रित उत्तेजित शरीर उनकी जद में थे । घिरते   घुमड़ते बादल खूब बरसे उस रात ।    
                सुबह दिवा में संकोच और शर्म में डूबी थी, जब कि दीपू पूर्ववत स्वच्छन्द और मुखर मुद्रा मौजूद था दबे स्वरों में दिवा ने रात में गलत हो जाने की बात कही तो वह फट पडा था- कैसी गलती?काहे की गलती ?आपने समझा है कभी एसी प्यारी गलतियों के बारे में ? जिसे आप गलती कह रही हैं, वह
 तो इस दुनिया का मूल है सत्य है!
                ”पर हमारा समाज  और उसके कायदे
                ”किस कायदे की बातें कर रही हैं मैडम ?चलिए, आप की ही भाशा में बात करूँ।
आपने तो पुराण साहित्य खूब पढा है कोन देवता ऐसा है जो काम के पाश से बचा रह गया
है?इन्द्र! ब्रम्हा! महेश! है कोई उदाहरण?“
?
                ”   ध्यान रखो कि जायज-नाजायज रिश्तों की बातें नपुंसकों की बकवास है सबदीपू का स्वर तिक्त हो उठा था और दिवा को चुप रह जाना पडा था । इसके बाद दिवा ने प्रतिरोध नहीं किया था और कई दफा उस अनुभव को जिया था , । दीदी के यहाँ से लोटना बहुत अखरा था उम्र में पॉच वर्श छोटे नाबालिग दीपू के साथ जिन्दगीभर रहने की अनुमति कोन दे सकता था उसे, न घर वाले, न समाज और न कानून  ।
                घर लौटकर द्वन्द्व में जीने लगी थी वह कोमल मन पर पडे नैतिकता सम्बन्धी सस्ंकार उस पर हावी होने लगते थे।  उसके लिए लडका ढूँढा जाने लगा। बिपिन से रिश्ता हुआ।
                उसका विवाह हुआ। वह श्री मती दिवा बनकर इस घर में आ गई थी। अपने आपको नई जिन्दगी के प्रवाह में सम्मिलित करके उसने पिछला सब कुछ भुलाने का प्रयास किया था। बिपिन को तो घर में लगातार आते संकटों के कारण अपनी जिम्मेदारी और बीमार पिता से सरोकार रखने के अलावा इतनी फुरसत नहीं थी कि ज्यों-त्यों दिन गुजर रहे थे।  तभी हटात दीपू एक दिन उसकी ससुराल आ धमका था। दोनों मे बहस छिड गई थी पुराने सम्बन्धों को लेकर। दिवा पुरानी गलती न दोहराने की दुहाई दे रही थी, जब कि सूखकर कॉटा हो रही उसकी देह और दिनोंदिन बढते जा रहे चिडचिडेपन को अतृति- चिन्ह बताकर दीपू उसे प्रात्साहित करता रहा थार्। वह कहता था न पहले  गल्ती थी , और न अब है। पर वह न राजी थी । दीपू उसका मुखर प्रतिरोध देखकर वापस लोट गया था, और कई दिनों तक इस उलझन में उलझी रह गई थी कि किसके प्रति वफादार रहे वह, दीपू के या बिपिन के । मौजूद होने पर बिपिन पर भी तरस आता था उसे , क्याकरे बेचारा? न बाप के प्रति लापरवाह हो सकता है न अपनी नौकरी के प्रति । वैसे उसका तो दीवाना  है वह जब तक रहेगा ऐसे ताकता रहेगा, जैसे आँखों के रास्ते पी ही जायेगा उसे । घर और पिता से बचा रह गयाा समय वह दिवा को देता था। थके और श्लथ शरीरों को उस थोडे रात का मूल्य ही क्या था। हाँ बिपिन की गैर मौजूदगी में जरूर उसे गुस्सा आता रहता था।
                दीपू के लौट जाने के बाद बडी अन्यमनस्क बनी रही थी उस दिन और चाहती रही थी भीतर-ही -भीतर कि दीपू फिर लैाट आए। लेकिन जिस दिन दीपू आया, खुल कर स्वागत  नहीं कर सकी थी उसका किवाड खोलकर देहरी पर ठिठकी रह गई वह । कई क्षण बीत गए थे
                ”अन्दर आने के लिए नहीं कहोगी ?“
                दिवा ने एक भरपूर नजर से उसे देखा था और मुडकर भीतर चली गई थी। दीपू पीछे- चल पडा था।                 ”आओ भी नहीं कहा
               ”कुछ आगमन ऐसे भी होते हैं जिनकी प्रतीक्षा भी होती है और वे टल जाँए तो निश्कृति का बोध्
भी। शब्दों से स्वीकृति देने की निर्द्वन्द्वता और साहस नहीं है मुझमें दीपू । चाह तो होती है तुम्हारी ,पर जाने कैसे कॉटे बिछे हैं कि दौडकर तुम्हें अपने में समेट लेने की आतुरता ठिठक जाती है । पूछा मत करो तुम ।
                ”कैसे हो
                ”ऐसे पूछ रही हेा, जैसेपिछले जन्म के बाद मिली हो।
                ”तुमसे मिलकर हर बार पुनर्जन्म ही तो होता है मेरा।
                ”दर असल , ये दिमागी जडता ही तो तुम्हारी कमजोरी है।
                नहीं दीपू, मैं न लकडी-सी जल पाती हूँ और न आग से अप्रभावित हो रह पाती हूँ। सीलन और ताप के बीच धँुधआते रहना ही शायद मेरी नियति है। तुम समझा करो कुछ।
                इससे ज्यादा बात नहीं कर सके थे वे दोनों । रश्मि आ गई थी । फिर वह रात भी बातों -ही -बातों में बीत गई थी ,बिपिन केा भूल कर दीपू में खो गई थी वह । ढेर सी बातें और ढेर से विशय थे उन दिनों के पास, जुबान थकती न मन भरता था। सुबह दीपू लौट गया था।
                तब से यही क्रम जारी है। महीना पन्द्रह दिन मे दीपू आता है और कोशिश करता है कि उसकी झिझक टूटे , लेकिन दिवा उवर नहीं पाती है अपने द्वन्द्व से । कई दफा तो लगता है कि दीपू का आना सार्थक हो ही जाएगा, पर बात बस कुछ कदम आगे बढती है और श्लथ होकर गिरी रह जाती है मंजिल के पहले ही
                अचानक घंटी बजी तो चिहँक उठी। दरवाजा खोला तो गैस वाला था।वाह इस बार बडी जल्दी आ गई गैस।कहते हुए उसने रास्ता दिया और सिलेण्डर बदलवाने लगी।
                गैस वाले को गिनकर रुपये दे रही थी कि घण्टी फिर बजी। उसने दरवाजे की ओर झाँका तो तबियत प्रसन्न हो उठी । वहाँ मौजूद लकदक दीपू उसकी अनुमति के इन्तजार में तत्पर खडा था।                                                                                           0000

रविवार, 6 दिसंबर 2015

अनुराग पाठक जी की कहानी

अनुराग पाठक की कहानी " अ फील बीत डिफ़रेंस "





   



कहानी संग्रह " हादसा"


कहानी विश्वास





कहानी-
                                    विश्वास
                                                                                                                                  राजनारायण बोहरे
बाबू हरकचंद का ज़िंदगी भर का विश्वास एकाएक ढह गया।
            वे जब से म्युनिसपिल कमेटी की नौकरी में आये थे, ऐसा कभी नहीं हुआ था। उन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी शान से गुजारी है । बाज़ार में कभी किसी व्यापारी ने उनकी  बात नहीं टाली । लेकिन आज सेठ गहनामल ने उनके विश्वास को एक ही झटके में गहरे से तोड़ दिया ।
            जब उनकी म्युनिसिपिल-कमेटी के पास नाके लगाने का अधिकार हुआ करता था  तब कमेटी में हरक चंद जी ऐसी कुरसी पर थे कि वे नाकेदारों के कामकाज पर सीधे निगाह रखते थे। महसूल वसूली का काम उनके ही पास था । इसी वजह से क़स्बे के सारे व्यापारी उनका ख़ास ख़्याल रखा करते थे। उनने भी इस क़स्बे के हर व्यापारी पर खूब अहसान किये हैं ।
             चोरी -छिपे पूरा ट्रक भरके माल ले आये दुकानदारों को फाइल से उनने वे कागज- पत्तर कई बार बताए हैं, जिनके कारण दुकानदारों पर हजारों रूपया महसूल लग सकता था । जानकारी मिल जाने पर दुकानदारों ने कागज-पत्तर में लिखी चीजें अपने यहां दर्ज करलीं । सो दुकानदारों के हजारों रूपये बच गये, पर बदले में हरक बाबू ने कभी किसी  से कोई अपेक्षा नहीं की । जिसने जो दिया प्रेम से ले लिया ।नहीं दिया तो भी कोई पच्चड़ नहीं की । हां , इन सब कामों की वज़ह से बाज़ार में उनका इतना सम्मान जरूर था कि वे यदा-कदा बाजार से निकलते, दुकानदार उन्हे आवाज़ देकर बुला लेता और खूब मान देता । खुद उठ के उन्हे अपनी गद्दी पर बिठाता और नाश्ता-चाय-पान के बिना आने न देता । वे जब घर-गृहस्थी की कोई चीज़ खरीदते, मुंह से मांग के कोई उनसे सामान का मोल न लेता़ फिर भी वे न मानते , कम-ज्यादा थोड़े बहुत दाम देकर ही उठते ।
                कुछ बरस पहले सरकार ने सड़क यातायात को बिना बाधा चलने देने के लिये जब कुछ सुधार किये , तो सबसे पहले म्युनिस्पिलटी के नाके बंद कर दिये । अब सरकार को क्या पता कि म्युनिसपिल कमेटी के लिए नाके कितने जरूरी है ? जरूरी क्या ़़़ हरक बाबू यह मानते हैं कि ़वे तो प्राणवायु थे, इन कमेटीयों के लिए । नाके क्या बंद हुये, नगरपालिका वालेां के दिन फिर गये । बुरे दिन आ गये - कर्मचारियों के भी और संस्थाओं के भी ।
               नाकेदारों और किरानीयों के सारे ज़लवे खत्म हो गये । पहले बज़ट कम होना शुरू हुआ फिर दफ्तर में दरिद्रता के नजारे प्रकट हुये-घिसे-पुराने परदे, फटे-मेजपोश ,आधा-अधूरा उज़ाला और दिन में आने वाली चाय के घटते कपों से बाहर के लोग भी अंदाज़ा लगाने लगे कि म्युनिसपिल कमेटी की माली हालत इन दिनों पतली हो चली  है । फिर तनख्वाह बंटना अनियमित हुआ , और वेतन न मिलने का क्रम कई-कई माह तक चलने लगा ।
                भीतर-ही-भीतर हरकचंद ने अनुभव किया कि वे दुकानदार जो हरकचंद को अपना परिजन औेर आदरणीय माना करते थे , यकायक उनसे कन्नी काटने लगे हैं। चाय-पान की दुकान पर कोई व्यापारी खड़ा होता और हरकचंद वहां पहुंच जाते ,तो वहां खड़ा आदमी आंख बचा के वहां से खिसक लेता । रास्ते में आते-जाते भी व्यापारी यह कोशिश करते कि हरकचंद से दुआ-सलाम न करना पडे़ या तो मंुह फेेर के खड़े हो जाते ,या वहां से दबे पांव किसी गली में खिसक लेते । जैसे नमस्कार कर लेने से कुछ घट जायेगा या लेना-देना पड़ जायेगा ।
                वे घर के लिए कोई ज़रूरी सामान खरीदने किसी दुकान पर अब जाते, तो दुकानदार  नमस्कार तो करता , पर उनसे कभी बैठने या चाय-पानी लेने का आग्रह न करता । वे जो चीज़ ख़रीदना चाहते या तो सीधे-सीधे दुकानदार बाज़ार रेट से ज़्यादा क़ीमत बताता, या कह देता कि फलां चीज तो मेरे पास घटिया दरजे की है , आपके लायक नहीं है ़ ़ ़ ़ । मजबूर हरकचंद वह चीज़ दुकानदार के बताये ऊंचे दाम में खरीद लाते । सौदेबाजी  या मोलभाव उनने जिन्दगी में कभी नहीं किया था ,दुकानदार खुद ही पहले उन्हे बाज़बी दाम लेकर चीजें देते रहे थे, सो वे अब भी उनसे मोलभाव नहीं करते थे । लेकिन चीजें महगीं आती तो घर पर पत्नी चिनमिन करने लगती थी । व्यापारियों का बदला हुआ रूप  देख कर हरकचंद को बड़ा दुख हुआ-जिनके लिए वे रात दिन चिन्ता करते रहे, जिनके लिए अपने विभाग से उन्होने विश्वासघात किया, वे लोग भी इस तरह आंख फेर लेंगे,उन्हेे ऐसी आशा न थी ।
                नगरपालिका का बज़ट घटा तो विकास कार्य प्रभावित हुयेे ,नेता जागे। उनने फिर से नाके खोले जाने या म्युनिस्पिल कमेटी को ज़्यादा बजट देने की मांग की । नेताओं और संस्थाओं की तमाम लिखा-पढ़ी के बाद राजधानी ने नगरपालिकाओं की फरियाद सुनी । फाइलें पहले धीमें चली , फिर दुलकी चाल चलीं, और यह खबर जब कस्बों-तहसीलों में स्थित कमेटियों तक पहुंची तो वहां से जीवनीशक्ति आना शुरू हुयी और फाइलें दौड़ने लगीं । बाद  में तो ज़रूरत पड़ने पर फाइलों ने हवाई सफर भी किया । अंततः कमेटियों को दुबारा महसूल वसूलने की ताकत दे दी गयी ।  कमेटियों में ज़ोश जाग उठा ।
                हालांकि कमेटियों को सिर्फ आयात-निर्यात शुल्क  वसूलने की छूट मिली थी ।  निर्देश आये थेकि वे नाका लगा दें पर किसी वाहन को रोकें नहीं, व्यापारी स्वयं आकर जानकारी देगा । धीरे-धीरे काम शुरू हुआ, google से  नेट कनेक्शन लिया  गया और  मंडी से बाहर जाने वाले माल की जानकारी से लेकर, फैक्ट्रीयों से  भेजे गये माल की भी जानकारीयांप्रायः कमेटी में आने लगीं, और हरकचंद ने देखा कि व्यापारियों को भूले-बिसरे संबंध याद आने लगे । अब वे हरकचंद को दुबारा अपना आदमी मानने लगे । फिर वैसा ही मान-सम्मान और फिर वैसे ही संबंध दिखने लगे थे । वे फिर से आत्मीय हो गये । अब वे भूले -भटके किसी दुकान पर पहुंच जाते, तो दुकानदार उनका मांगा हुआ माल बाद में देते , चाय-पानी से सत्कार पहले करते ।
                हरकचंद मन के बड़े साफ थे , उनने बीच के समय में आयी दुकानदारों की बेरूख़ी और अपरिचय को भुला दिया और फिर से  सामान्य हो कर जीने लगे । सबकी तरह नगरसेठ गहनामल भी जो पिछले कई दिनों से हरकचंद को भुला चुका था, अब  ज्यादा आत्मीयता से हरकचंद से मिलने लगा । वे जहां भी दिख जाते, गहनामल उनके गले लग-लग जाता,उन्हे खूब सम्मान देता । हरक चंद ने अनुभव किया कि इसका कारण शायद वे कई-कई किराना ,कपड़ा , और कनफैक्शनरी की दुकाने हैं, जो अपनी जेवर दुकानके अलावा  गहनामल के परिजनों ने  पिछले दिनों  खोली हैं , और जिनमें  बिना हिसाब-किताब का अनाप-शनाप माल दूसरे प्रदेश से आता रहता है । दूसरा कारण तो गहनामल का शायद वह कारखाना भी होगा ,जो रोज के रोज ढेरों जालियां ,दरवाजे , खिड़की वगैरह लोहे का सामान उगलता है ,और जिसे  प्रतिदिन मैटाडोर-टैम्पो में भर के प्रदेश के बाहर भेजा जाता है । लेकिन सब कुछ जानते-बूझते भी हरकचंद ने अपने मन में कोई बात नहीं रखी और वे पूर्ववत गहनामल समेत सबसे प्रेम से मिलने लगे ।
                अचानक फिर व्यवस्था बदली , और प़द्धति में परिवर्तन आया । खेत में खड़े बिजूका से वे बेजान नाके भी हट गये । योंकि अब महसूल फिर से दुकानदारों की दया पर निर्भर हो गया था सो व्यापारियों का व्यवहार भी बदलने लगा था। बस कुछ दिन पहले की ही बात है यह ।
                तभी यह घटना घटी ।
               उनके ऑफिस में कई सालों से यह परंपरा थी ,कि दीपावली के त्यौहार के उपलक्ष्य में पूरे स्टाफ को चांदी के सिक्के उपहार में दिये जाते थे। ये सिक्के पहले तो कमेटी के कमाऊ-पूत नाकेदारों से अनुदान वसूल कर बाजार से क्रय किये  जाते थे , फिर नाके बन्द हुए और नाकेदार कमजा़ेर हो गये तो उनने हाथ उठा दिये। इस कारण अभी बाद के  बरसों  में स्टाफ के सब लोग मिलजुलकर कुछ चन्दा इकट्ठा  करने लगे थे, और उस एकत्र धन में से एकमुश्त चांदी के सिक्का खरीद लाया करते थे । इस महीने दिवाली का त्यौहार था । दीपावली की अमावस्या महीने के आखिरी सप्ताह में पड़ रही थी ,और म्युनिस्पिल-कमेटी घाटे में थी, सो किसी कर्मचारी को एक तारीख को तनख्वाह नहीं मिल सकी । अब स्थिति यह बनी, कि बीते हुए कल को यह सिक्के बंटना थे और उस दिन किसी की गांठ में फूटी-कोैड़ी तक न थी , सो सब चिंतित थे । तब किसी ने सलाह दी ,कि फिलहाल गहनामल की दुकान से उधारी में सिक्के उठवा लिये जायें और उपहार समारोह संपन्न कर लिया जाये । बाद में जब तनख्वाह आ जायेगी तो उधारी चुक जायेगी । अब समस्या यह थी, कि गहनामल के पास उधारी का संदेश कौन भेजे ? सबने एक मत से निर्णय लिया कि बाबू हरकचंद ही अपने नाम से यह संदेश भेजें , तो बाबू हरक चंद ने चपरासी मुन्नालाल को सिक्के लेने गहनामल की दुकान पर भेज दिया था । हालांकि हमेशा की तरह यूनियन सेक्रेटरी सिंग बाबू ने इस बात का विरोध किया था कि कर्मचारियों के किसी सार्वजनिक  काम में किसी व्यापारी का अहसान क्यों लिया जाये। लेकिन उनकी बात किसी ने नहीं सुनी , और मुन्ना चपरासी को भेज दिया गया ।
                मुन्नालाल उल्टे पांव वापस लौटा। हैरानी से सबने पूछा-काहे मुन्ना, क्या हुआ भाई !
                मुन्ना बहुत नाराज था , बोला-आयंदा कृपा करना । मुझे अपनी बेइज़्ज़ती कराने वहां मत भेजना । पचास ग्राहकों के सामने गहनामल ने सिक्के देने से साफ इन्कार कर दिया । बोले , हमारे यहां उधार नहीं मिलता !
                हरकचंद को काटो तो खून नहीं । भला ऐसा कैसे संभव है ! उनने असमंजस की मानसिकता में गहनामल के यहां  फोन लगाया । फोन पर गहनामल ही मिले । ताज्जुब , कि फोन पर भी उनका यही जवाब था-माफ करना यार ,अपन ने उधारी बंद कर दी है ।
               हरकचंद  ने समझाने की कोशिश की-अरे यार कौन साल दो-साल के लिये उधारी करना है ,दो-तीन दिन में सारा रूपया चुका देंगे। न हो तो मेरे नाम से लिखलो तुम ये रकम । मुझ पर तो विश्वास है न !
               पर गहनामल साफ नट गया क्षमा करना भाई ,हमने तय किया है कि उधार करना ही नहीं है ।
                यह सुनकर  बाबू हरकचंद को करारा झटका लगा । वे खड़े न रह सके, टेलीफोन रखके पास रखी कुरसी पर बैठ गये ।
                सिंग बाबू बगल में खड़े थे , वे सारा माज़रा समझ गये । उनने चपरासी से पानी मंगाया और हरक बाबू से बोले -छोड़ो ये उपहार-पुपहार का झमेला । मैंे तो बहुत पहले से कह रहा हूँ कि इस तरह चन्दा करके आपस में  सिक्के बांट लेना बिलकुल उचित नहीं है । काहे का उपहार है यह ! ये तो वो ही किस्सा हुआ कि कोई बूढ़ा शेर किसी सूखी हड्डी को चचोरके अपना खून निकाल ले और खून के खारे पन में उसी सूखी हड्डी से निकले खून के स्वाद की कल्पना करके व्यर्थ ही खुश होता रहे। ...और दिल छोटा मत करो, हो सकता है गहनामल तुम्हारी आवाज पहचान न  पाया हो ।
                बाबू हरक चंद का मन पहले तो झटके से बुझ सा गया था ,लेकिन अब सिंग की इस बात ने उन्हे बड़ा दिलासा दिया । उनने शांति से  ठण्डा पानी पिया और चुप बैठ  गये ।
                 कार्यालय के दूसरे लोग सक्रिय हुए । पता नहीं कहां से कैसे बंदोबस्त हुआ , पर शाम तक सिक्के भी आ गये और बाकायदा बांट भी दिये गये। हरकचंद शाम को घर लौटे तो उनका उदास चेहरा देखके ,पड़ौसिनों से घिरी बैठी पत्नी तत्परता से उठके उनके पास आगयी-काहे विनोद के पापा ,क्या हुआ ?‘
                -‘कुछ नहीं वे उदास बने बोले ।
                -‘नहीं कुछ तो हुूआ है । आप ऐसे कभी नहीं रहते । गली में घुसते ही मोहल्ले पड़ौस के लोगों से बोलते-बतियाते घर आते हो और  आज सूटमंतर बने चले आये । तुम्हे हमारी सोंह, सही बताओ ! क्या हुआ ?‘
                मजबूर हरकचंद ने गहनामल वाली घटना सुनाई और रूआंसे हो के बोले-मुझे गहनामल के बदल जाने का दुःख नही है ,बस तक़लीफ इत्ती-सी है  कि जिस रोजी-रोटी से हमारे पेट भरते हैं, हमने इन टुच्चे व्यापारियों के लिये बिना किसी बड़े लालच के, उसी से दग़ा की ।
                -‘काहे की दगा ? अरे आपने कौन कमेटी का लाख दो-लाख का हरजाना कर
दिया ? बस, केवल हजार दो-हजार का महसूल ही तो घटा होगा । ये क्यों नहीं सोचते कि, तुम्हारी इसी कमेटी के चेयरमैन और बडे अफसर तो  म्युनिस्पिल-कमेटी के लाखों रूपया डकार जाते हैं ।
                -‘अरे तुम भी , आदमी को अपना काम देखना चाहिये ।
                -‘बस अपना दी देखते रहो। दूसरों की तरफ से आंख मूंद लो ।
                -‘वो नहीं कह रहा ।
                -‘तो क्या कह रहे हो , चलो ये मन खराब करने की बातें मत करो ,उठके हाथ मुंह धोओ, चाय पियो ‘- कहती पत्नी ने उनका हाथ पकड़ के उन्हे उठा लिया था। लेकिन हरक बाबूू के मुंह पर कल से मुसकान ऐसी गायब हुई कि लौटी नहीं ।
               आज भी वे उदास से बैठे थे ।
                उनकी कुरसी बड़े हॉल में है, भीतर आने वाले हरेक आदमी की सबसे पहले उन्ही पर नज़र पड़ती है। हर साल सरदियों में  जड़ी-बूटी बेचने के लिये आने-वाले बड़े साफे वाले आदिवासी सरदारसिंह मोगिया ने यकायक दफ्तर मंे प्रवेश किया , और आते ही जोरदार स्वर में उसने हरक बाबू को संबोधित किया-बाबूजी, जै राम जी की !
                फीके से स्वर में हरक बाबू ने अभिवादन का जवाब दिया । फिर जाने किस प्रेरणा से बोल उठे-आज तुम जाओ भैया , यहां किसी आदमी को तनख्वाह नहीं मिली है, सब पैसे-धेले को परेशान हैं । कोई तुम्हारी दवाई कहां से खरीदेगा ?‘
                सरदार मोगिया ऐसे मौके कई जगह झेल चुका है , वह हंसते हुए बोला-आपसे रूपया कौन मांग रहा है बाबूजी ! हर बरस की तरह इस बार भी पूरी दवाई उधार दे दूंगा , आप चिन्ता क्यों करते हैं ?‘
                ‘हर बार सिर्फ महीने भर की बात होती थी , इस बार त्यौहार का समय है ,सो हरेक के पास ख़र्च ज्यादा है । अबकी बार चुकारा लम्बा खिंच जायेगा ।
                ‘तो भी कोई बात नही है बाबूजी । आप लोग कहां भागे जा रहे हैं ? ‘सरदार  आज दवा बेचने की क़सम खाके आया था ।
                ‘अरे यार , तुम तो पीछे ही पड़ गये ।
                ‘नहीं बाबूजी , आपके बच्चे हैं हम ! आप जैसे बड़े लोगों के भरोसे ही तो हमारा सारा कारोबार चलता है। हम तो अरज कर सकते है, पीछे काहे पडें़गे !कहता सरदार विनम्रता की मूर्ति बन गया था ।
               हरक बाबू फीकी सी हंसी हंस के बोले -दे दे यार जो तुझसे दवा लेना चाहे ।
                फिर तो ऑफिस के दर्जन भर से ज्यादा लोगों ने सरदार से जड़ी-बूटियां लीं , और वह प्रसन्न मन से पुड़िया बांधता चला गया । हरक बाबू ने हिसाब पूछा तो पता चला कि कुल मिला के पांच हजार रूपये की उधारी हो गयी है ।
                वे चौंके-गहनामल से तो सिर्फ हम सिर्फ एक हजार रूपये की उधारी मांग रहे थे , फिर भी उसे विश्वास न हुआ , और यह बेचारा ख़ानाबदोस आदमी बिना हिचक के पांच हजार की उधारी  बांट रहा है ।
                 यह  छोटीसी बात कई वृत्त बनाती हुई उनके मन के ताल में फैलती जा रही थी। और उन्हे ठीक से समझ में आ रहा था कि सेठ गहनामल बाज़ार में बैठा है, वह हर चीज़ बाज़ार की नज़र से देखता है, जबकि सरदार जीवन से जुड़ा आदमी है ।
                 मनुष्यता  पर उनका यकीन जैसे फिर बहाल हो रहा था । 
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                                                                                                राजनारायण बोहरे
                                                   एल 19 हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी 

                                                       दतिया मध्यप्रदेश