रविवार, 1 मई 2011

अन्ना hajaare

अन्ना हजारे जो एक सामान्य भारतीय किसान की तरह दिखाते है , आम आदमी उनमे अपना चेहरा देखता है इसी वजह से उनसे सबको बहुत अपेक्षाए हे।

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

कृष्ण बिहारी लाल पांडे का गीत





कृ’ण विहारी लाल पांडेय का एक गीत-

आपके घर

ठिठुरते गणतंत्र ’ में बस आपके घर गुनगुने हैं!
हम यहां पर किस तरह हैं
आपको अब क्या बतायें।
जगह भरने को छपी हों
जिस तरह कुछ लघु कथाएँ।।
वि’ाय सूची में नहीं है नाम अपना
खास कुछ वैसा नहीं है काम अपना
और ऐसा भी नहीं ये चौखटे हमने चुने हैं । ठिठुरते गणतंत्र....
जिन्दगी में बस अभी तक
यही हमको मिल सका है।
गल्तियों का सफर प”चाताप
पर आकर थका है।
सुभाि’ात भी नहीं कोइZ काम आये
वाक्य छोटा मगर कई विराम आये
हम नहीं थे पंच केेवल फैेसले ेहमने सुने हैं। ठिठुरते गणतंत्र....
“ाोक का उपलक्ष्य है पर,
म्ंाच फूलों से सजे हैं।
हाथ में विस्थापितों के
तथाकथित मुआविजे हैं।
पेड़ पौधे गाँव खेत मकान छूटे
पीढ़ियों के मिले जुले विधान छूटे
अब हमे क्या फकZ पड़ता चने कच्चे या भुने हैं। ठिठुरते गणतंत्र....
रो”ानी की पाण्डुलिपियों को
मिले कैसे प्रका”ान।
जब पुरस्कृत हो रहे हैं
जुगनुओं के भजन कीतZन।
महोदय सविनय निवेदन प्राथZनाएँ
हो गई भवदीय अब सारी कलाएँ
आप जिन पर चल रहे ये गलीचे हमने बुने हैं।
ठिठुरते गणतंत्र में बस आपके घर गुनगुने हैं!
’ ठिठुरता गणतंत्र-परसाइZ जी से साभार
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क्ृ’णविहारी लाल पांडेय, सेवा निवृत्त पृोफेसर स्नातकोत्तर महाविद्यालय दतिया

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

कृष्ण बिहारी लाल पांडे जी का गीत





कृ’ण विहारी लाल पांडेय सर का गीत-
अपना समय लिखा....

जब जब खुद को लिखने बैठे
अपना समय लिखा।
अच्छा नहीं लिखा लेकिन
जो सच था अभय लिखा।।

बड़े बड़े प्रस्थान चले पर थोड़ी दूर चले।
चलते रहे विमरस मगर निसकरस नही निकले।
हम क्या अभी आधुनिक होंगे सोच विचारों में
बन्द किताबों से बाहर हम निकलें तो पहले।
ऐसे लोग सभी समयों में होते आये हैं
जिनने घने तिमिर को भी सूरज का उदय लिखा। जब जब खुद को....
आधा वतZमान खोया है त्रासद यादों म।ें
संवादों के बदले खबरें मिली विवादों में।
सिफZ मंच पर नहीं हर जगह अभिनय ही अभिनय
जाने कितना कपट छिपा है नेक इरादों में।
फिर भी कुछ संवेदन बाकी हैं अब भी जिनसे
हर आँसू की परिभा’ाा में हमने हृदय लिखा । जब जब खुद को....
विज्ञापन में बसने वालों का क्या कहना है।
भूखी आत्माओं को सब ऐसे ही सहना है।।
कबिरा तुम तो लिये लुकाठी निकल पड़े घर से
हमको तो बाजारों मेें आजीवन रहना है।
जीवित तो रहना था जैसे भी होता आखिर
इसीलिए अपनी पराजयों को भी विजय लिखा।
जब जब खुद को लिखने बैठे
अपना समय लिखा।
अच्छा नहीं लिखा लेकिन
जो सच था अभय लिखा।।
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डाW0 कृ’ण विहारी लाल पांडेय
उम्र
लगभग चौहत्तर साल
प्रका”ान
दो कविता संग्रह
सम्प्रति
स्नातकोत्तर महाविद्यालय से प्राध्यापक से सेवा निवृत्ति बाद स्वतंत्र लेखन
सम्पकZ
70, हाथीखाना दतिया मध्यप्रदे”ा 475661
09425113172