बुधवार, 11 नवंबर 2009

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चम्पामहाराज, चेलम्मा और प्रेम कथा

चम्पा महाराज की नजरों में लूले कक्का पहले से ही महाऐबी हैं । हरदम गुनताड़ा लगाते रहेंगे कि कौन से कैसी विषैली बात कह देवें , जिससे सुनने वाला तिलमिला जाये । एब करने का मौका तलाषते रहते हैं । उन्हें देख के पंडित चंपाप्रसाद को कौआ नहीं गिध्द याद आता है। गिध्द से जुड़ी रामायण की एक अर्धाली वे गुनगुना उठते है - ''गीध अधम खल आमिष भोगी''
लूले कक्का ने देखा कि दालान में चंपाप्रसाद के तीनों पार्षद मौजूद हैं- परमा खवास, खेता भोई और रतना परजापत। यानी कि चंपाप्रसाद की पूरी परिषद बैठी है। उनके हाेंठ फड़क उठे - यह परिषद ही तो गांव में फसाद की जड़ है । यही परिषद् चम्पाप्रसाद को बलशाली बनाती है । गांव के छोटे वर्ग के लोगों को परेशान करने की साजिश की सूत्रधार यही परिषद तो है । लूले कक्का गांव के निरक्षर मजदूरों के हितू माने जाते हैं । वे चम्पाप्रसाद जैसे लोगों के खिलाफ ही चर्चा और माहौल तैयार करने का आंदोलन चलाते रहते हैं । ऐसे नवधनाढय लोग और ठकुरास के लोग भले ही उन्हें लाख बुरा कहें, पर वे उनकी बातों पर कान नहीं देते । शोषितों, दलितों और स्त्रियों के हित की बात करना उन्हें ईमान और सत्य की चर्चा करना लगता है ।
महुआखेड़ी के पुजारी वाला प्रसंग चल रहा था। चंपाप्रसाद जोर जोर से बोलते हुए देवचन्द को गरिया रहे थे। वे इस तरह उत्तेजित थे, मानो पुजारी देवचन्द परिषद के इजलास में मुजरिम बने खुद मौजूद हों और अदालत की लांछना सुन रहे हों। सब जानते हैं कि पिछले दिनों देवचन्द अपने गांव की एक औरत को लेकर कहीं भाग गये, आसपास के तमाम गांव वालों के पास ले देकर इन दिनों यही रोमांचक प्रसंग तो ताल ठोकता रहता है ।
लूले कक्का ने पंडित जी से जुहार की, और तख्त के बगल में बिछे डोरिया पर अपनी वैशाखी रखके बैठ गये। पुजारी देवचन्द के बहाने रामायण में बताये गयें कर्मकाण्डी ब्राह्यणों के आचरण और नियम बखानते चंपाप्रसाद उन्हें देखकर एक पल को रुके फिर आगे शुरु हो गये '' तो मैं कह रहा था कि - सोचिय बिप्र जो वेद बिहीना.... यानी कि वह ब्राह्यण सोचने योग्य है जोकि वेद के रास्ते पर नहीं चलता। अब वेद के बताये रास्ते तो थोड़े से ही है भैया, कि मारग चलते छुआ-छूत का ध्यान धरो, खान-पान में शुध्दता का ख्याल रखो। हो सके तो पात्रा-कुपात्रा से बातचीत का भी विचार रहे। जित्ती बार घर से बाहर निकलो हर बार घर लौट के स्नान करो ।
चम्पाप्रदसाद के दिखावटी प्रवचन सुनकर मन ही मन लूले कक्का बोले कि तुम तो सहस मुख हो अभी हाल यदि हरिजनों के उध्दार की कोई ऐसी बात होगी जिसमें तुम्हें लाभ पहुंचता हो तो तुम तुरंत ही रामायण में से शबरी और निषाद का उदाहरण देकर तुलसीदास और रामचन्द्र को हरिजनोध्दारक बता दोगे । तुम्हारे तो सैकड़ों मुंह हैं जिनसे अपने मतलब की हजारों बातें निकलती हैं ।
उधर चम्पाप्रसाद कह रहे थे - ''हर ब्राम्हण को रसोई-घर में जाने वाली हर चीज अमनिया कर लेना चाहिये, माने जल से पवित्रा कर लो । रोटी का आटा घर की चक्की का पिसा हुआ होना चाहिए । पीने का पानी घर के कुंआ या पाताली नल से लेने का विधान है।''
''आपके यहां तभी तो चूल्हे की लकड़ी भी धो के जलाई जाती है न महाराज'' परमा खवास अपनी जानकारी प्रकट करता हुआ पुलकित था।
चंपाप्रसाद को यह सुनकर बहुत अच्छा लगा। पर लूले कक्का सदा की तरह बीच में ताल ठोकने लगे - ''आजकल तो हरेक के रसोईघर में गैस के चूल्हे चल पड़े है न महाराज, उनमें गैस की टंकी जुड़ी रहती है। अब गैस की शुध्दि अशुध्दि को कौन जांच सकता है !''
खेता भोई को लूले कक्का की बात में दरार निकालने का उम्दा मौका हाथ लगा । वह तो उन पर चढ़ ही बैठा - ''वाह रे लूले कक्का, वैसे तो दुनिया भर की जानकारी अपने खीसा में डार के घूमते फिरते हो, और तुम्हें इतनी सी पता नहीं है कि गैस की टंकी में पेट्रोल से बनी गैस रहती है और सब जानते हैं कि पेट्रोल तो धरतीमैया की कोख से पैदा होने वाली कुदरती चीज है, दुनिया में इससे ज्यादा शुध्द चीज और क्या होगी ? इसमें शुध्दि अशुध्दि क्या देखना।''
लूले कक्का ने पैंतरा बदला ''खेता भैया, तुम्हें शायद पता नही है कि गोबर से भी गैस बनती है, और दारी इस जीभ को आग लगे भैया कि ये बात भी सोलहा आना सच्ची है कि अब तो आदमी के गू से भी गैस बनने लगी हैं।''
''कक्का तुम भी....'' रतना ने घिनाते हुये मुंह बनाया।
''सच्ची कह रहे, हमने तो अपनी ऑंखन से देखा कि अगल-बगल के कित्तेई गाँवन में बड़े-बड़े धर्मात्मा और कर्मकाण्डी लोगों के घर में वायो-गैस की मशीन लग गई है। हां ये बात अलग है कि आपत्ति काल में पढ़े लिखे विध्दानों को ऐसी बातों की चिन्ता करने की फुरसत कहाँ धरी है। धर्म पर जैसा आपत्तिकाल इन दिनों है, सृष्टि के निर्माण से अब तक कभी नहीं रहा। विश्वास न हो तो चंपा महाराज से पूछ लो। शास्त्राो में लिखा है आपात काले मर्यादा नास्ती। माने आपत्ति के दिन में मर्यादा की चिन्ता मती करो।''
वे एक पल को रुके चिर गहरी नजरों से चंपाप्रसाद को भीतर तक बेधते हुए बोले-''आज भिनुसारे जब हम टहलने निकले तो तुम्हारे बड़े भैया कालकाप्रसाद अस्पताल के पास वाली सड़क पर चेलम्मा नर्स की गलबहियां डाले टहलते मिले थे । हमे लगता है कि कालका भैया पिछली रात वहीं सोये थे। बल्कि.....अब आज की क्या कहें, हमने खुद देखा है कि वे रोज वहीं रुकते हैं। चंपा भैया एक दिना जाके देख तो लो कि वा आग लगी नर्स कौन विरादरी की है। कल को कहीं ऐसा न हो कि कालकाप्रसाद के संग-संग पूरे गांव की नाक काट ले जाये।''
चंपाप्रसाद ऐसे समय बड़ी पशोपेश में पड़ जाते है, जब वे किसी जिजमान के यहाँ कथा भागवत बांचते-बांचते पवित्रता, वैदिक आचरण और हिन्दू समाज की वर्ण परम्परा की तारीफ कर रहे हों और अचानक कोई जिजमान उनके भैया कालकाप्रसाद के आचरण के बारे में कुछ पूछने लगे। यही इस समय हुआ। लूले कक्का ने रंग में भंग कर दिया। चंपाप्रसाद भीतर ही भीतर तिलमिला उठे, पर प्रकट में चुप रहे। लूले कक्का जैसे खोजी आदमी को सिरजाना ठीक नहीं है। दुष्टों को दूर से ही नमस्कार कर लो शास्त्रा भी ऐसा ही कहते हैं- दुर्जन दूरत: परिहरेत।
लूले कक्का ने देखा कि महफिल फीकी हो चली है । वे यही चाहते थे कि अपने मिथ्या अहंकार, पाखण्ड और बौध्दिक साम्राज्य में आकण्ठ डूबे खाये-अघाये इन लोगों में कुछ बेचैनी पैदा हा,े वह हो चली थी, सो उनने अपनी वैशाखी सम्भाली और उठ के सब पंचों से ''जय राम जी की'' कहते हुए मूंछों ही मूंछों में मुस्कराते वहां से चल पड़े। उनका उद्देश्य हल हो गया था । वे शुरू से इस सिध्दांत के रहे कि खुद मस्त बने रहो पर इन शोषकों को चिन्ता और बेचैनी में डाले रहो । वह बेचैनी पैदा हो गई थी सो अब उनका काम भी क्या बचा था ।
लूले कक्का की ठक-ठक अब अपने प्रिय क्षेत्रा हरिजन टोले की ओर बढ़ने लगी थी जहां बैठे दर्जनों लोग उनका इंतजार कर रहे होंगे ।
इधर बड़ी देर तक उनकी वैशाखी की ठक-ठक दालान के शान्त हो गये वातावरण में गूंजती रही। फिर परिषद के लोग एक-एक करके वहां से खिसकने लगे।
संवदिया की भूमिका निभा के लूले कक्का चले गये थे, पर चंपाप्रसाद तो जैसे अपने तख्त पर कीलित से होकर रह गये थे।
अब कालका भैया से खुली बात करना बहुत जरुरी है कि दादा ये रंग-ढ़ंग छोड़ो, घर की बदनामी हो रही है। पचास साल की वानप्रस्थी उमर में भी तुम्हें ऐसे ऐल-फैल अच्छे लग रहे है। समाज में पचास दिक्कतें आने वाली हैं, मेरी बच्ची सयानी हो रही है, कल उसकी सगाई करने जायेंगे तो लड़के वाले यही उलाहना ठोक देंगे कि, लड़की के ताऊ तो ऐसा-वैसा करते फिरते हैं। शादी-ब्याह की चर्चा करते वक्त ब्राह्मणों में वैसे ही सात पीड़ी तक की खोज खबर ली जाती है। वरणशंकर और दशा ब्राह्मणों को तो देहरी से टिटकार के भगा दिया जाता है। यह सोचते-सोचते चंपाप्रसाद को अपना माथा भारी सा होता महसूस हुआ। वे तख्त पर पांव पसार कर पूरी तरह लेट गये।
जाने कब बिटिया उन्हें अकेला बैठा देख गयी थी सो चाय बना लाई। पीतल के गिलास को कटोरी से ढक के वह तख्त के पायताने रख गई थी। गुमसुम चंपाप्रसाद ने बैठ गये और चाय का गिलास उठाया फिर फूंक-फूंककर जोर-जोर से सरुटा भरने लगे।
बड़े भैया की खबरें सुन-सुन के कान पक गये हैं। अब पानी सिर के ऊपर निकलने ही वाला है। जल्दी ही कुछ करना पड़ेगा। लेकिन वे ''कुछ'' क्या करेगे.....? यही तय नहीं कर पा रहे है वे। कदाचित, आज अम्मा जीवित होती, तो उनसे परामर्श करते। कालका भैया को डांट दिलवा देते। इस गॉव में और पुरा पड़ौस में भी कोई ऐसा बुजर्ग नहीं बचा है जिससे सलाह लें। जिससे कहेगे, वही जुवान पकड़ लेगा। घर-घर जाके कह देगा कि दुबे महाराज के यहाँ फूटन पड़ गई है बात बात में छुआ-छूत और जाति-पांति की दुहाई देने वाले चंपाप्रसाद के निज बड़े भाई को किसी तरह की अपवित्राता का लिहाज नहीं है। हंस जैसे बेदाग कुल खानदान का सयाना पक्षी, गंदी तलैया में किलोल कर रहा है।
वैसे यह भी सच हैं कि आज अम्मां भी जिन्दा होती तो कुछ न कर पाती। आज जो स्थिति आई है उसके लिये पूरी तरह से अम्मां ही दोषी है।
पन्द्रह साल के ही हो पाये थे कालका भैया, कि सगाई के लाने आमखेड़े के ज्वालाप्रसाद सगया बनके आ गये थे। इर्द गिर्द के गॉवों में ज्वालाप्रसाद का चौधरी खानदान खूब बजीता खानदान था। सात पीढ़ी से उनके कुल में न कोई ऐब था, न किसी तरह का दाग। सो अम्मां भैरा के गिर पड़ी। न किसी जान पहचान वाले से कुछ पूछा, न आमखेड़े वाले रिश्तेदारों से सलाह ली। यहां तक कि पिताजी के पास बैठकर दो पल की चर्चा तक न की और खुद मुख्तार होके रिश्ता तय कर दिया।
ज्वालाप्रसाद उसी दिन नारियल-रुपया देकर चले गये तो अम्मां ने दूसरे दिन ही नाई के हाथ शगुन की धोती और पोलका (साड़ी-ब्लाउस) भेज दिये थे। सम्बन्ध पक्का हो गया। अम्मां बहुत खुश थीं।
आठवीं पास करते-करते कालका भैया की शादी हो गई। बहू उमर में छोटी थी, सो उन दिनों के रिवाज के मुताविक बहू की विदा नही हुई। तब दसवां पास किया था कालका प्रसाद ने, जब कि उनका गौना हुआ। अबकी बार बहू साथ मं आई थी। चमकीली चुनरी ओढ़े, लाल-सिन्दूरी साड़ी में लिपटी गोरी-भूरी बहू के मेंहदी रचे हाथ-पांव देख देख कर दूसरे किशोर रोमांचित हो रहे थे, कालकाप्रसाद का तो बड़ा हाल खराब था ! वे अपनी दुल्हन को देखने, उससे बतियाने, उससे मिलने को बड़े उतावले थे।
आमखेड़ा से सुबह छिरिया-बेरा विदा कराके वे लोग चले थे और दोपहर होते-होते अपने घर आ गये थे। मर्द लोग दालान में बैठ के सुस्ता रहे थे और अम्मां मेहमानों की पहुनई के किस्से सुन रहीं थी, कि मुन्नी जिज्जी ने उबलते दूध के उफान में ठण्डे पानी की कटोरी उड़ेल दी। वे कह रहीं थी - भौजी तो निराट पागल है।
यह सुनकर स्तब्ध हो गये थे सबके सब। अम्मां उठीं और लपकती हुई भीतर गर्इं। दो-पल बहू से बातचीत करी फिर माथा ठोकती बाहर निकलीं थीं- नासपीटे ज्वालाप्रसाद ने धोखा दे दिया। मीठी-मीठी बातें करके सिर्रन मोड़ी ब्याह दी धुंआ लगे ने। हर बाप को अपनी लड़की के अनुरुप वर देखना चाहिए, लेकिन इस काले मन वाले ने अपनी लड़की के लच्छन नहीं देखे। मेरे हीरा से लड़के को ठग लिया कपटी ने।
अम्मां लगातार बड़बड़ा रहीं थीं - देखा होगा कि घर में साठ बीघा की जोत है, विरासत में गांव के डाकघर का काम हैं। हजारों में एक दिखे ऐसा लम्बा लछारा लड़का हैं। सो राख भये ज्वाला की नीयत डोल गई और मेरे घर को बर्बाद कर डाला। नाश मिट जायेगा ठठरी बंधे का।
मुन्नी जिज्जी ने समझाया अम्मां तनिक धीरे बोलो। बात घर में दबी रहे, चिल्लाओगी तो बाहर के लोग सुनेंगे। और बाहर के लोगों का क्या है, सब हंसने के मीत है
अम्मां चुप रह गईं थीं।
गप्पो खवासन बड़ी सयानी औरत थी। अम्मां ने चुपचाप उसे बुलवाया। घर की बात घर में रखने के लिये आस-औलाद की सौगंध देकर उसे बहू के पास भेजा। तीन चार दिन तक दुल्हन से बातें करती गप्पो उसकी मालिश करने के बहाने पूरे शरीर पर हाथ फेर आई थी। उसने अम्मां को बताया कि बहू की देह में लुगाइयों जैसा कुछ नहीं है। उसकी तो सूखे मैदान सी मर्दो जैसी छाती है। सख्त हाथ-पांव में बड़े-बड़े रोम और कड़क-चामड़े की जांघ वाली ये दुल्हन आदमी-बइयर के आपसी संबंधो के बारे में कुछ भी नही जानती। गप्पो तो चली गई पर अम्मां का जियरा सुलग उठा था।
उनने फिर भी हिम्मत नही हारी थी।
एक दिन पड़ौस में गारी के बुलौआ का बहाना कर वे मुन्नी और चंपा को साथ ले गई थी, ताकि घर पर अकेले बचे कालका और बहू की आपस में कोई बातचीत शुरु हो सके।
दस मिनिट बाद ही बाखर में से बहू के रोने चीखने की आवाजें आने लगी तो किसी ने जाकर अम्मां को खबर की थी। अम्मां मन ही मन अनुमान लगाती लौट आई थीं कि घर में क्या हुआ होगा।
घर आके बहू को पुचकार के उनने चुप कराया और झेंपते खड़े कालका को बाहर जाने का इशारा किया था।
अम्मां ने बहू को सुदमती करने के लिए गांव भर के गौड़-घटोइया, देई-देवता मनाने शुरु कर दिये थे। एक सयाने को बुला के झाड़ा भी दिलाया था। पर सब बेकार रहा। चंपा को याद है कि पहले की तरह भौजी बावरी सी बनी सिर खोले, पल्लू लटकाये कभी भी अपने कमरे से बाहर चली आतीं। वे कभी आंगन की मोरी पर बिना लिहाज धोती उठाकें पेशाब को बैठ जातीं। कभी घर भर में समय-बेसमय झाड़ू लगाने लगतीं, तो कभी धुले-अनधुले कपड़े उठाके पानी में भिगो देती और कुटनी से कूट कूट कर उनका मलीदा बना देतीं।
वे दिन बड़ी मुश्किल के दिन थे।
भौजी की बात गांव में फैलने लगी थी। अम्मां शर्म संकोच में डूबी हूई घर में बंद रहने लगी थीं। गांव में कुछ औरतों का कुटनी का ही जन्म होता है न, सो उनमें से कोई किसी न किसी बहाने घर में चली आतीं और सुर्र-फूं निकालने का यत्न करतीं। अम्मां कुछ न कहतीं। भौजी की बात यूं ही टाल जातीं। पर ऐसी बातें छिपाये नहीं छिपतीं, सो एक मुंह से दूसरे, फिर तीसरे होती हुई कालका की बहू के पागलपन की बातें घर-घर में पहुंच गयीं थीं।
घर के दूसरे सदस्य भी परेशान थे। मुन्नी जिज्जी आपसी चर्चा में भौजी की बात उठने के डर से अपनी सहेलियों के पास जाने का साहस नहीं कर पातीं थीं और चंपाप्रसाद पढ़ाई के बहाने गांव में नही लौटते थे, कस्बे में ही बने रहते थे। पिताजी तो सदा से इकल मिजाजी रहे, न ऊधो का लेना न माधो का देना। सो उन्हें कोई दिक्कत न थी। वे अपने डाकघर के काम में लगातार व्यस्त रहते। कालका भैया तो सबसे ज्यादा दुखी व परेशान थे।
सावन का महीना आया। आमखेड़ा से कालका भैया के साले अपनी बहन को लिवाने आये तो अम्मां ने उनकी खूब आव-भगत की और भौजी को बिदा करके हमेशा के लिये अपने हाथ झटकार लिए।
महीनों बीते। आमखेड़ा से एक दो कहनातें आयीं। तीसरी बार ज्वालाप्रसाद खुद आये। पर अम्मां नहीं मानी। वे सिर्रन बहू को अपने घर में रखने को तैयार नहीं हुई। भौजी मायके में ही जिन्दगी बिताने लगी।
चाय का खाली गिलास उठाने पंडिताइन खुद आई थी। पति को टोकना चाह रहीं थीं पर पंडित जी को गंभीर बना देखके कुछ बोलने का साहस नही हुआ। सो चुपचाप लौट गई। इस वक्त चंपाप्रसाद भी चाह रहे थे कि रोक के कमला (पत्नी) से कुछ मशाविरा करें। लेकिन वे पुरानी यादों में डूब उतरा रहे थे, सो मन नहीं हुआ कि अतीत के गुनगने जल मे से ऊपर उछरें और वर्तमान की कड़क धूप में अपनी देह तपायें। आदमी का अतीत कैसा भी क्यों न हो वह सदैव ही अच्छा और स्मरणीय लगता है उसे। वर्तमान में रहके विकल्प चुनने के खतरे ही खतरे है, लेकिन अतीत में कोई विकल्प नहीं होता।
दसवीं पास करते करते चंपाप्रसाद की भी शादी कर दी थी अम्मां ने। इसके पहले उन्होने मुन्नी जिज्जी को भी शादी करके ससुराल विदा कर दिया था।
चंपाप्रसाद की बहू घर में आई, तो कालका भैया का आंगन में प्रवेश निषेध हो गया। वे दालान या पौर में ही बैठे रहते या फिर पिताजी के साथ डाकघर का काम निपटाते रहते। चंपाप्रसाद जब भी पत्नी के साथ होते एक अजीब सा अपराध बोध उन्हें घेर लेता। वे भारी संकोच में रहते। घर में बिना घरवाली वाला ब्याहा थ्याहा बड़ा भाई बैठा था और छोटा जवानी का सुख भोग रहा था। कालका भैया का ध्यान खेती में लगने लगा था और वे भुरहरा-बेला खेत-टगर में निकल जाते फिर रात गये तक ही उधर ही रहते।
ऐसे में ही एक दिन अचानक पिताजी सोते के सोते रह गये। घर पर आफत टूट पड़ी थी। अम्मां का धीरज एक बार फिर काम आया। उनने तेरही होने के पहले ही कालका प्रसाद को डाकघर का काम संभलवा दिया। डाकखाने के बड़े अफसरों को दरख्वास्त भेजी गयी कि पिता की जगह पुत्रा को डाकघर का काम दे दिया जाये। बाद में कालकाप्रसाद के नाम का रुक्का भी आ गया था, तो अम्मां ने चैन की सांस ली थी। चंपाप्रसाद की पढ़ाई छुड़ा के वापस बुलाया और अम्मां ने उन्हें घर द्वार संभालने की जिम्मेदारी सौप दी थी। सब कुछ ठीकठाक चलने लगा था। गांव के एक मात्रा पूजा स्थल राम जानकी मन्दिर की सेवा पूजा भी पंचों ने कालकाप्रसाद को सौंप दी, तो उनकी दिनचर्या सुबह से शाम तक एकदम तंग और कसी-कसी सी हो गई थी।
कार्तिक का महीना आया तो गांव भर की औरते ''कतक्यारी'' बन गईं और कार्तिक नहान का व्रत ले बैठीं। हर दिन सुबह पांच बजे औरतों के ठट्ठ के ठट्ठ कुऑं-तालाब की तरफ चल पड़ते। नहाने के बाद भीगे कपड़ों में ही स्त्रियां मूर्ति के आसपास गोल बनाके बैठ जाती फिर देर तक भगवान को पूजती रहतीं। वे आपस में खूब चुहल बाजियाँ भी करतीं। इतनी स्त्रियों की सुरक्षा के लिए एकाध मर्द बहुत जरुरी था, सो सब महिलाओं ने परस्पर घोका-विचारी करके पुजारी कालकाप्रसाद से थराई-विनती करी और उन्हें नहाने के बखत साथ चलने को राजी कर लिया।
चंपाप्रसाद अनुमान लगा सकते हैं कि बाहर से वैराग्य का प्रदर्शन करते कालका भैया का मन भीतर से तब भी अनुरागी रहा होगा। उन क्षणों में उनका मन कैसे स्थिर रह पाता होगा, जब एक वस्त्र बदन पर लपेटे, अगल-बगल से अपने गुदाज-ठोस स्तनों की झलग दिखाती,कनखियों से कालका की नजरों को पढ़कर आंखें में सुखानुभूति भरे अर्धनग्न महिलायें पूजा का बहाना करती हुई गीले कपड़ो में देर तक उनके सामने चुहल करती होंगीं, या जब कोई कतक्यारी अपनी सखी के कान में फुसफुसाती होगी कि 'रात को कुत्ता छू गया सो मेरा तो धरम भिरस्ट हो गया मै पूजा कैसे करूं गुइयां' या 'कल मेरे ऊपर कल छिपकली गिर पड़ी जो हर बार चौथ-पांचे को गिरती थी, सो आज मैं पूजा नहीं कर पाऊंगी।' साधारण बात है कि ''कुत्ताा'' और ''छिपकली'' के प्रतीकार्थ कालका भैया खूब समझते होंगे।
सुबह के स्नान में कतक्यारियों के सखा बने कालका भैया दोपहर के दूसरे स्नान के बाद लौटती उन्हीं सखियों का रास्ता छेड़ लेते -
प्यारी यहां दधिदान लगे, मम घाट यहां तुम जानत नाहीं।
दै दधिदान खौं जाव घरै, बस और यहाँ कछु लागत नाहीं॥
सखियां कहती-
इकली छेड़ी वन मैं आय श्याम तूने कैसी ठानी रे......।
कंस राजा ते करुं पुकार, मुसक बंधवाय दिवाऊं मार,
तेरी ठकुराई देय निकार,
जुलम करे नहीं डरे हरे तू नारि विरानी रे....। इकली छेड़ी ....
कालका भैया झूम कर गाते-
कंस का खसम लगे तेरो, वो तनहा कहा मेरो,
काउ दिन मार करु ढेरो,
करुं कंस निरवंश मिटा दऊं नाम निसानी रे.....।
कालका भैया को सैकड़ो कवित्त, सवैया, लावनी और दोहे मुखाग्र याद थे, जबकि सखियां अपने हाथ में किताबें लेकर मुकाबला करतीं। पर अन्त में कालका भैया की ही जीत होती और सखियों को प्रचलित रिवाज के मुताबिक उन्हें थोड़ा थोड़ा दान और माखन मिश्री देना पड़ता।
तीसरे पहर उजले सफेद धोती कुत्तर्ाा में सजे-धजे, इत्र से महकते कालका भैया मन्दिर में बैठ के प्रेमसागर की कथा कहते।
कृष्ण चरित्र की गाथायें सुनाते-सुनाते कालका भैया कथारस में गहरे डूब जाते और कथा में चल रहे हर प्रसंग, हर दृश्य और हर भाव का बारीक-बारीक वर्णन करते। उन्हें सारी बृज लीलायें अपने समक्ष साकार होती दिखतीं। गांव वृन्दावन लगने लगता और सारी स्त्रियां गोपी। कालका भैया को भ्रम होता कि वे कान्हा बन गये हैं, और वे कुछ ऐसी-वैसी हरकत कर डालते।
शुरु शुरु में मजाक मान के किसी ने कुछ न कहा पर रोज-रोज वही हरकत देख एक महिला ने घर जाके शिकायत कर दी, तो उस दिन लखन नौगरैया उलाहना लेकर अम्मां के पास आ गये थे।
अम्मां ने उन्हे समझा-बुझा के वापस भेजा, तो अगले दिन पंचमसिंह दाऊ आ धमके थे। अब कर्री बीध गई थी, पटक्का होना था। अम्मां ने उनसे थराई विनती कर क्षमा मांगी और कालकाप्रसाद को तत्काल ही कथा-भागवत के कार्य से बेदखल कर चंपाप्रसाद को उनका चार्ज दिला दिया था। चंपाप्रसाद ने निर्पेक्षभाव से कथा सुनाानी शुरू कर दी थी। कुछ ही दिनों में उन्हे अनुभव होने लगा कि सखियों को इस रूखी-सूखी कथा में मजा नहीं आ रहा है। वे कथा में दो अर्थ वाले संवाद नहीं जोड़ते थे, न रासलीला प्रसंग को लम्बा खींचते थे। दरअसल उनके घर में नवयौवना,सुंदर,सुघड़ दुलहन थी, सो उन्हे फुरसत ही नहीं थी कि गांव की किसी भौजी को नजर भर के देखें।
साठ बीघा खेतों की भरपूर फसल, कालका भैया की डाकघर की तनख्वाह और पुरोहिताई-चढ़ौत्राी से इतनी आमदनी हो जाती कि अल्लै-पल्लै पैसा बरसता। उनके घर के लोग कभी भी ज्यादा खर्चीले नहीं रहे। सब मोटा खाते-मोटा पहनते। सो टाईम-बेटाईम घर में पैसा बना रहता। अड़ौस-पडौस में जिसे जरूरत होती, अपना काम चलाने को रूपया मांग ले जाता। बाद में चंपाप्रसाद ने बाकायदा ब्याज पर रूपया उधार देना शुरू कर दिया। इससे उनका मान-सम्मान और ज्यादा बढ़ गया। अब वे कंगला ब्राह्यण न थे, बल्कि गांव के इज्जतदार बौहरे हो गये थे।
धन और प्रतिष्ठा बढ़ी, तो ब्राह्यण समाज की बिरादरी-पंचायतों में वे पंच बनाये जाने लगे। गांव की ग्रामीण पंचायतों में भी वे सर्वमान्य पंच बन गये। ज्यों-ज्यों इज्जत मिली, त्यों-त्यों वे छुआछूत और ब्राह्यण्ाी संस्कारों के प्रति ज्यादा कठोर होते चले गये। इस प्रतिष्ठा और मान-सम्मान ने उनके मन पर ऐसा असर छोड़ा कि वे कालका भैया के दूसरे ब्याह की बात तक नहीं सोच पाये। दरअसल कालका भैया को अब इस उमर में कोई कुंवारी लड़की तो देता नहीं, हां कोई विधवा या परित्यक्ता ब्राह्यणी मिल पाती। ऐसी औरत ले आने से चंपाप्रसाद की सारी इज्जत धूल में मिल जाती।
शुरूआत में तो अम्मां के पास जब-तब कालका भैया की बदचलनी की शिकायतें आतीं तो अम्मां उन्हैं खूब डांटतीं और वे चुप बने सुनते रहते। पर बाद में वे बेशर्म और उग्र होने लगे। एक बार खेती के मईदार (हलवाहे) नत्था की परित्यक्ता बहन झुमकी से संबंध बने और अम्मां ने उनको रोका तो उनने अम्मां को खूब खरी-खोटी सुनाई थीं। उनका तर्क था कि अम्मां सिर्फ चंपाप्रसाद और उसके बच्चों की फिकर करती हैं, कालकाप्रसाद की उन्हें कोई चिन्ता नहीं है। इसी तरह जब एक बाल विधवा गांव के स्कूल में मास्टरनी बनकर आयी और कालका भैया का उससे परिचय बढ़ गया तो उनका स्कूल में ज्यादा आना-जाना होने लगा, तब अम्मां ने उन्हें टोका तो कालका भैया ऐसे ही बिफर पड़े थे। दरअसल खेती पाती संभालने का हुनर तो घर में सिर्फ उन्हीं के पास था। चंपाप्रसाद तो ऊपरी उठा-धराई करते थे। इसलिए सब लोग कालका प्रसाद से दबते भी थे।
अभी साल भर पहले की बात है। उस रात अम्मां को अचानक हैजा हुआ, तो उन्हें तुरन्त ही मोटर सायकिल पर बिठा के कस्बे तक भागे गये। सारा घर परेशान हो उठा। इन्जेक्शन लगे। बोतलें चढीं। पर अम्मां बच नहीं पाईं। घर पर अचानक गाज सी गिर गई। सब लोग बुरी तरह टूट गये।
सबसे ज्यादा सदमा कालका भैया को लगा। उन पर ऐसा असर हुआ कि वे काम-वासना से एक बार फिर वैरागी से हो गये। उनका ध्यान पूरी तरह से खेती में लगने लगा। एक-एक करके चार कुंये खुदवाये और पूरी जमीन पटवारी की ही में सिंचित रकवा के रूप में दर्ज हो गई। बैल की तरह वे खेत टगर में घूमते रहते और फसल के सीजन में धन-धान्य से घर भर देते। हां ठसके से रहने का नया शौक चर्राया था उन्हेें। सफेद उजले कमीज-पजामा पहनकर पावों में वे चमड़े के पंप-शू पहन लेते। सिर में महकौआ तेल चुपड़ कर प्राय: गांव के बस स्टैण्ड पर सुबह ही जा बैठते, फिर सांझ ढले वहां से लौटते।
एक बार फिर सब कुछ ठीक हो गया था।
छह महीना पहले गांव में नया सरकारी अस्पताल खुला और दक्षिण भारत की एक नर्स उसमें स्थायी रूप से नियुक्त होकर रहने के लिए आ गई थी।
पता लगा कि यह नर्स केरल की रहने वाली है और इसका नाम चेलम्मा है। गाँव की औरतें कई दिनों तक चटखारे लेकर नर्स के नाम का उच्चारण करने की कोशिश करती रहीं थीं।
चम्पा प्रसाद ने चेलम्मा की सराहना सुनी थी कि इतने दूर से अकेली चली आई चेलम्मा सचमुच बड़ी निडर और समझदार औरत है। उसकी तत्परता का ये हाल था कि गाँव में से रात बिरात जब भी बुलौआ पहुँचता वह तुरंत ही अपने कंधे पर सरकारी बेग लादकर हाथ में टॉर्च ले तेज कदम रखती फटाक से गाँव में आ धमकती। गाँव में किसी की जचगी होती या किसी दुल्हन के पहली बार पांव भारी होने की खबर फैलती चेलम्मा सदा ही वहाँ मौजूद मिलती। धीरे-धीरे गाँव भर में वह इतनी लोकप्रिय हो गई कि लोग उसे घर का सदस्य मानने लगे।
चर्चा सुनी तो एकदिन चम्पा प्रसाद भी टहलते हुये भी अस्पताल जा पहुँचे थे। अस्पताल के चौकीदार ने नर्स को उनका परिचय दिया तो चेलम्मा ने उनके प्रति खूब आदर प्रकट किया और सिर पर पल्लू लेकर बैठ गई। उन्हें सुखद विस्मय था कि देश के किसी भी कोने की महिला क्यों न हो सब एकसी होती हैं- वही शालीनता, वही लज्जा और वही सौहाद्रता। देखने में सांवली और सूखे से चेहरे की चेलम्मा की उम्र मुश्किल से तीस वर्ष दिखती थी। रहन-सहन में वह बड़ी साफ और गरिमामय महिला दिखती थी। उसका हिन्दी बोलना अच्छा लगता था। वह खूब पढ़ी-लिखी थी और दुनियादारी की बातें अच्छे से समझती थी। उस दिन मन ही मन चेलम्मा की तारीफ करते वे वहां से लौटे थे।
उन्हीं दिनों की बात है। अचानक कालका भैया को पूरे बदन में खुजली का रोग फूट निकला। ऐसा भयानक कि वे बेहाल हो उठे। हाथ की उंगलियों के जोड़ से शुरु हुर्इं छोटी-छोटी पीली फुंसियां जांघों-रानों और जहां जगह मिली, बढ़ती चली गईं। खुजली टांगों में फैली तो चलना मुश्किल हो गया, लुंगी बांधे वे टांगें चौड़ी करके चलते थे तो बड़ी तकलीफ होती थी। कांयफर को तेल में मिलाके उनने कई दिन खाया और लगाया, चिरौंजी और मिश्री कई दिनों तक भसकी पर ठीक न हुये। पहले तो हिचकते रहे, फिर एक दिन अस्पताल जाकर कालका भैया ने खुजली की दवा मांगी, तो नर्स चेलम्मा ने बिना किसी लिहाज के अपने हाथों कालका भैया के शरीर पर नीली सी दवा पोत दी थी। उसके दवंग और वेलिहाज आचरण तथा समर्पित सेवाभाव और खुलेपन पर कालका भैया भावाविभूत हो उठे थे।
चंपाप्रसाद को ठीक से याद है कि कालका भैया तब से रोज ही अस्पताल पहुंचने लगे हैं। शरीर की बीमारी तो कब की ठीक हो चुकी थी, पर शायद दिल की बीमारी लग गई थी कालका भैया को। फिर तो घर से प्राय: दालें-दफारें, गेंहूं-चना यानी कि फसल पर जो भी चीज पैदा हो झोलों में भर-भर के चेलम्मा के पास पहुंचने लगी हैं। चंपाप्रसाद यह सब देखके जान बूझकर चुप रहते हैं।
चेलम्मा पढ़ी-लिखी खुद-मुख्तार औरत है। उसने जो भी किया होगा अच्छी तरह से सोच समझ के किया होगा। फिर दूर देश की इस अकेली औरत के वास्ते लड़ने-तकरार करने को कोई नहीं आने वाला है। यह सब उनने खूब सोचा है। चलो अच्छा है, इस बहाने बड़े भैया का कुछ दिन मन बहलता रहे। क्या हर्ज है? कई रातों से बड़े भैया के घर न लौटने पर इसी लिये उनने कुछ नहीं कहा है। पर आज जिस तरह से लूले कक्का ने उन्हें उलाहना दिया, उससे लगता है कि अब गांव वालों के पेट में दर्द हो उठा है।
बेटी की आवाज से वे चौंके। वह याद दिला रही थी कि दोपहर के दो बज गये हैं और उनने अभी तक न नहाया-धोया न पूजा करी।
उदास से वे उठे और अपनी धोती-बनियान लेकर बाखर के पिछवाड़े वाले हैण्डपम्प पर जा पहुंचे।
सिर पर ठण्डा पानी गिरा तो सारे बदन में एक फुरहरी सी आ गई। अभ्यस्त भाव से उनने हनुमान चालीसा बोलना शुरु कर दिया -जय हनुमान ज्ञान गुण सागर.........
पाठ पूरा होते ही उनने धुले कपड़े पहन लिये थे और पीतल का लोटा मांज के शुध्द पानी से भर लिया था। बाखर में रखी अज्ञात देवताओं की अस्पष्ट सी प्रतिमाओं पर जल ढार के उनने सूरज भगवान की ओर मुंह उठाया और लोटे को थोड़ा ऊँचा उठाके तुलसाने में जल धार गिराना शुरु कर दी- ऊँ तापत्राय हरं दिव्यं परमानंद लक्षणम्। तापत्राय विमोक्षायतवार्ध्य कल्पयाभ्यहम्।
अटारी के नीचे वाले मढ़ा में बने पूजा के स्थान पर अगरबत्ताी जलाके वे पूजा करने बैठे तो लाख जतन करने से भी ध्यान में मन न लगा। न वे जप कर सके, न गोपाल सहस्त्रानाम का पाठ। संध्यावंदन तो वैसे भी संभव न था। वे आंख मूंद के वहीं बैठे रहे।
बूढ़े पुराने सच कह गये हैं कि किसी के बारे में कुछ कहने से पहले दस बार सोचना चाहिये। लूले कक्का ब्राम्हण हैं और उन के मामले में उनसे यही गलती हो गई कक्का का छोटा बेटा प्रकाश पैंतीस साल का होकर अनब्याहा बैठा था । कारण था सिर्फ इतना कि लूले कक्का शुरू से हरिजनों के हितचिंतक रहे और वहीं उठते बैठते रहे । सो कौन ब्याह करता ? प्रकाश ने एक बाल विधवा हरिजन लड़की से संबंध जोड़े तो पंचायत बैठी थी । तब पंच की हैसियत से चंपाप्रसाद ने प्रकाश के खिलाफ फैसला दिया था और तब से लूले कक्का का गांव भर में हुक्का पानी बंद है । वे तो मन मार के कहीं भी चले जाते हैं पर कोई भी उन्हें दिल से आदर नहीं देता ।
आज लूले कक्का पूरे गांव में चर्चा फैला देंगे कि कालका दुबे ने अस्पताल की मद्रासी केरली नर्स को रखैल बना लिया है, और पखवारे भर से उसी के क्वार्टर में रात रुकते हैं। कल यही बात बाम्हन विरादरी में जायेगी तो मुंह दिखाने काविल नहीं बचेंगे वे। उनने जिन आरोपियों का फैसला किया है, वे अब आकर मुंह पर उलाहना ठोकेंगे। बरतन के मुंह पर तो ढक्कन हो सकता है, पर आदमी के मुंह पर कोई ढकना नहीं होता। कौन-कौन का मुंह रोकते फिरेंगे वे !
मुन्नी जिज्जी की ससुराल तक भी बदनामी पहुंचेगी तो बहनोई और उनके पिता की कहलान आ जायेगी। चंपाप्रसाद की खुद की ससुराल में यह प्रसंग नमक-मिर्च लगाके पहुंचेगा तो कितनी शर्मिन्दगी उठाना पड़ेगी। घर में जवान होती लड़की है। लड़की की पीठ का लड़का भी सयाना है। वे दोनों सुनेंगे तो गांव में लोगों से कैसे आंख मिला पायेंगे। अपने बाप से भी कैसे नजर मिला सकेंगे।
तो? तो क्या समाधान है इस समस्या का?
समाधान कहो, रास्ता कहो अब हल तो एक ही है कि कालका भैया को खुली साफ जुबान से समझा दिया जाये कि - तुरंत बंद करो अब अपने ये एैल-फैल। तिलांजलि दो अपने कुकर्मों को। तुम्हारे कुकर्मों की वजह से आज पूरे खानदान की नाक कट रही है। जिस जात कुजात से रिश्ता बनाके बैठ गये हो, छोड़ो उसे !
कालका भैया यदि चंपाप्रसाद की बात न समझें तो उन पर रिश्तेदारों का दबाब बनायेंगे। मुन्नी जिज्जी के ससुर को बुला लेंगे, उनसे कहलायेंगे।
न होगा तो मामा को बुला लेंगे। उनका कहना तो मानेंगे कालका प्रसाद। जिसका भी कहा मानें, उसी से कहलायेंगे। किसी भी तरह अब ये संबंध खत्म करवाना है उन्हें।
चंपाप्रसाद ने अनेक धर्मग्रंथ पढ़ रखे हैं। उनने अध्ययन किया है कि जब किसी व्यक्ति पर वासना का भूत चढ़ता है, तो वो किसी की नहीं मानता। बुढ़ापे में उठी वासना की आग तो वैसे भी ज्यादा भड़कती है, इसके कितने ही उदाहरण हैं ग्रंथों में। भीष्म के पिता शांतनु इसी उम्र में मछुआरे की लड़की पर मोहित हुये थे, और इसी अवस्था में पहुंचकर राजा ययाति भी देवलोक की अप्सरा के वशीभूत हो गये थे। वे तो इस कदर दीवाने हुये कि अपने बेटे की जवानी तक उधार ले ली थी उनने।
सहसा उनके विचारों के अश्व रुके........ कहीं कालका भैया इस बात पर अड़ गये और चेलम्मा से संबंध नहीं तोड़े, तो?
तो.........? तो.........? तो.........?
इस एक अक्षर के प्रश्न की अभेद्य दीवार को भेदने के लिये दो-तीन रास्ते सूझते हैं उन्हें।
एक तो यही कि बदचलनी के अपराध में ब्राह्मणों की बिरादरी से बहिष्कृत करवा सकते हैं वे कालका प्रसाद को। ताकि भूत-प्रेत की तरह ता उम्र अकेले जियें। रखें रहे और निहारते रहें उस काली-कलूटी बदजात औरत को।
दूसरा यह भी कि पूरे गांव के लोगों को भड़का कर थू-थू भी करा सकते हैं वे अपने बड़े भैया की। गली-गली में लोगों के उलाहने सुनेंगे, तो सारी अकल ठिकाने आ जायेगी।
एक रास्ता यह भी है कि अस्पताल और डाकघर के बड़े अफसरों के पास जाकर चंपाप्रसाद खुद शिकायत कर सकते हैं। नौकरी ही खतरे में होगी तो दोनों की मस्ती क्षण भर में काफूर हो जायेगी।
नर्स को यहां से दूर कहीं तबादले पर भी फिकवा सकते हैं वे थोड़े प्रयत्न से, ......... और तबादला न हो पाये तो उसके हाथ-पांव भी तुड़वाये जा सकते हैं। उनके ये इगड़े-बिगड़े चेले कब काम आयेंगे भला ! ज्यादा तीन-पांच करेंगे तो कालका भैया को भी सबक सिखाया जा सकता है। जमीन जायदाद के लाने तो महाभारत जैसे युध्द हो गये हैं भाई-भाई के बीच। शास्त्रा कहते हैं कि ऐसे युध्द धर्मयुध्द होते हैं।
नये-नये उपाय तलाशती उनकी बुध्दि के सामने फिर एक प्रश्न चिन्ह उठा कालका भैया आखिर उनके बड़े भाई हैं, हर रास्ते की काट सोच लेंगे। उन पर विरादरी और गांव के प्रतिबंधों का भला क्या असर होगा? वैसे भी सुबह पांच बजे से रात दस बजे तक खेत-टगर में समय काटने वाले कालका भैया को इन गांव वालों, जाति वालों और सरकारी अफसरों का भला क्या डर? उन्हें क्या मूसर बदलना है किसी से ! किसी से अपनी संतान थोड़े ब्याहने जाना है। नि:संतान रण्ड-सण्ड आदमी। आज मरे कल तीसरा। डरता-हिचकता वो हैं जिसके पास गंवाने के लिए, खोने के लिये कुछ हो। इनके पास कुछ है ही नहीं, तो खोंयेगे क्या? क्या बिगड़ेगा उनका?
हां, सचमुच कालका भैया का कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, यह सोचकर चंपाप्रसाद बैचेन हो उठे।
कालका भैया कल को ये भी कह सकते हैं कि चलो मैं छोड़ देता हूँ तुम्हारा घर! मेरा हिस्सा-पटा कर दो इसी वक्त !
हिस्सा-पटा !
हाँ सचमुच वे अपना हिस्सा तो मांग ही सकते हैं। हिस्सा माने आधी जायदाद, माने कुल जायदाद में से तीस बीघा जमीन, दो कुँआ, दो भैंसे, तीन बैल और आधी बाखर। अर्थात घर का सब कुछ आधा-आधा। यदि आधा धन चला गया तो क्या बचना है ! बहुत कमजोर होके रह जायेंगे चंपाप्रसाद। कुछ भी तो शेष नहीं रहेगा।
जिस जमीन जायदाद के जोर पर उछल रहे हैं वहीं न बची तो क्या इज्जत रह जायेगी? कानी-बूची जायदाद क्या माथे से ठोकेंगे वे !
कहाँ तो इस बरस नया ट्रेक्टर उठाने का मीजान लगा रहे थे और कहां अब मौजूदा चीजें बचाने के लाले पड़ गये हैं। तीस बीधा जमीन में तो कोई भी बैंक वाला ट्रेक्टर का कर्जा नहीं देगा। सारे अरमान अधूरे रह जायेंगे।
घर से ऊँचा-पूरा भाई चला गया तो हिम्मत ही टूट जायेगी उनकी। फिर कैसे संभालेंगे वे अपनी कच्ची ग्रहस्थी? गांव के लोग तो वैसे ही दुश्मन हैं। वे सब ऐसे ही मौके की तलाश में रहते हैं। अकेला देख के चढ़ ही बैठेंगे चंपाप्रसाद पर।
..... और अगर अपने हिस्से की खेती संभालने की जिम्मेदारी चंपाप्रसाद पर आन पड़ी तो कैसे संभालेंगे वे अपनी खेती? उनने अपनी जिन्दगी में खेती करी ही नहीं है कभी। खेती तो बिगड़ ही जायेगी अनाड़ी हाथों में पड़ के। खेती बिगड़ी तो सब कुछ बिगड़ा। फिर भरी-पूरी गृहस्थी का साथ है, आधी-अधूरी फसल में क्या नहायेंगे, क्या निचोड़ेंगे ! उधर कालका भैया और उस कल्लो चेलम्मा के मजे ही मजे होंगे। तीस बीघा खेत में दक्ष-सुघड़ हांथों से पैदा की गई अल्लै-पल्लै फसल, दो-दो तनख्वाहें और खर्च के नाम पर सुखे-पुछे दो जने। रईसी ठाठ होंगे उनके तो।
चंपाप्रसाद को कालका भैया का जीवन बड़ा सुखी दिखा। उनने मन ही मन अपनी जीवन शैली से कालका भैया की शैली की तुलना की वो एकर् ईष्या सी हो आई उन्हें। बस एक पत्नी की ही तो कसर रही जिन्दगी में, इस कमी की क्षतिपूर्ति दर्जनों जगह से करते रहे हैं। घाट-घाट का पानी पिया है कालका भैया ने, हर बिरादरी, हर नस्ल और हर उम्र की बछिया पर हाथ फेरा है। चंपाप्रसाद हैं कि अपनी पत्नी के खूंटे से बंधे बैठे रहे शुरु से। पंडिताईन की मौटी थुल-थुल देह पहली थी। और वही शायद आखरी रहेगी। उन्हें जजमान प्रोहिताई में ऐसी-ऐसी औरतें देखने को मिली हैं कि उनके आगे इन्द्र के दरबार की अपसरा भी फीकी लगें। संगमरमर सी तराशी नाक-नक्श वाली युवतियाँ जिन्हें देखकर ही अच्छे-अच्छों का मन विचलित हो जाये। पर वे कभी विचलित नहीं होंगे। या यों कहो कि उनके भाग्य में पर नारी को भोगना लिखा ही न था। सो वे लंगोट के पक्के बने रहे।
चंपाप्रसाद को लगा कि मन कुछ बैठ सा रहा है।
उन्हें अपने भाई पर एक बार फिर झुंझलाहट हो आई - ये कालका भैया भी खूब हैं ! अरे दिल भी लगाना था तो किसी ब्राह्मणी से लगाते। आज इतनी बात बढ़ गई थी तो मन मार के उस औरत को घर में ले आते। देखो तो, इस बदसूरत जात-कुजात अंजान मजहब की, कहां की औरत से नेह लगाया है, कालका भैया ने।
उनने गहरी सांस खींचते हुये सोचा- कदाचित यही औरत उत्तारी न सही दक्षिण भारतीय ब्राह्मण होती। तो भी वे कुछ सोचते। सोचते क्या, खुशी-खुशी तैयार हो जाते। इधर घर की जायदाद बची रहती, उधर नर्स की तनख्वाह के नये करारे पांच हजार रुपये के नोटों की गड्डी हर माह घर में आने लगती।
उनकी आंखों के आगे पांच हजार रुपये की गड्डी तैरने लगी।
उन्हें लगा कि उनके मन में इतनी देर से उठ रहा बवंडर कुछ ज्यादा ही तेज हो चला है।
प्रतिकूल और आपदाग्रस्त स्थितियों में सदा से चम्पाप्रसाद का मस्तिष्क कुछ तेज ही चलता रहा है। वे अपनी बिरादरी में चतुर दिमाग के माने जाते हैं। खुद की विलक्षण और शरारती क्षमताओं पर उन्हें भी खूब गर्व है। गहरी नींद में भी उन्हें अहसास रहता है कि वे समाज की सर्वोच्च बिरादरी में हैं। लोगों को सही गलत बतलाना उनका खानदादी अधिकार है, जो हर ब्राम्हण बच्चे को स्वत: ही जन्म जात मिलता है। बड़ी जाति वालों की मजबूरियों और तकलीफों के शुभचिंतक हैं वे। छोटी जाति वाले तो पशु योनि में रहे हैं। भला इनसे क्या सहानुभूति रखना। यह उन्हें बचपन से ही बताया गया है। अब ब्राम्हण तो ब्रम्हा का मुख हैं- ब्राम्हणो मुख मासीत्। सारे ब्राम्हण एक ही तो हैं चाहे उत्तारी हो चाहे दक्षिणी। यह तो भौगोलिक भेद हैं। सब ब्राम्हणों के गोत्रा, पटा, आसपद, वेद और बैक (आंकना) एक है। सब के ग्रन्थ एक, संस्कार एक और धार्मिक प्रतीक भी एक से होते हैं। खाल के रंग और भाषा, पहनावा तो ऊपरी भेद हैं। इन्हें छोड़दे तो सब गड्डम-गड्ड हो सकते हैं। मनुष्य-मनुष्य वैसे भी एक से होते हैं। वही हाथ-पांव, वही खून-मांस, काहे का फर्क और काहे का भेदभाव?
वे अनायास चेते। मन के किसी कोने से एक स्वर उभरा- यह क्या क्षेत्रावाद और जातिवाद का सबसे बड़ा समर्थक रहा उन जैसा व्यक्ति ऐसा उदार कैसे हो सकता है। उन जैसा कर्मकाण्डी-वेदपाठी व्यक्ति ऐसा सोचने लगेगा तो समाज के दूसरे लोगों का क्या होगा? यह तो पाप हैं, घोर पाप। ऐसा सोचने का दण्ड मिलेगा उन्हें।
एक पल मस्तिष्क शून्य रहा फिर मन ने तर्क गढ़ा - कलियुग में सोचने मात्रा से कभी पाप नहीं लगता, पुन्य जरुर लगता है। तुलसी बाबा कह गये हैं- कलिकर एक पुनीत प्रतापा, मनसा पुन्य होइ नहीं पापा। समाज के दूसरे लोगों की चिन्ता करने से भला उनका कैसे काम चलेगा! ये भौतिक जमाना है। रुपया पैसा ही सबकुछ है इस युग में। सम्पत्ति बचा लेना सबसे बड़ी सफलता होगी इस जमाने में। वैसे भी छोटी जाति की लड़की लेना तो सदा से अधिकार रहा है बड़ी जाति वालों का। कृष्ण द्वैपायन व्यास की प्रिया भला कोई उच्च वर्ण से थी क्या? मनु स्मृति में कहा गया है कि स्त्राी की कोई जाति नहीं होती। जिस बिरादरी का व्यक्ति कन्यादान करे, लड़की का गोत्रा वही होता है। जिस खानदान में ब्याही जाये उसी जाति की कुलवधू कहलाती है। चम्पा प्रसाद को याद आया कि समाज में हजारों साल पुरानी कहावत है -राजा घर आई रानी कहलायी, पंडित घर आई पंडिताईन कहायी। स्त्राी तो समाज की गूंगी गाय है। न उसकी अनुमति लेना न जाति पूछना, यह पुरातन रीति है इस देश की।
पूजा पर बैठे-बैठे ही चम्पा प्रसाद ने अनुभव किया कि उनने आज क्या-क्या नहीं सोच लिया। कभी-कभार आत्म निरीक्षण करने पर वे अपने आप को बड़ा सीधा, सौम्य और नीतिवान पाते हैं। लेकिन आज उन्हें स्वयं पर विस्मय था कि आदमी को खुद पता नहीं होता कि उसके अवचेतन मन में परिवार, समाज और विरादरी से क्या-क्या अवधारणा जम जाती हैं। गाँव में लूले कक्का और उनके सहयोगी लोग अब तक जो धूर्त, चालाक और गुरु घंटाल की उपाधियाँ देती रहे वे शायद सच्ची थीं। उन्हें ताज्जुव था कि इन उपाधियों को याद करके उन्हें जरा भी लज्जा और हीन भावना अनुभव नहीं हो रही है- बल्कि गर्व सा लग रहा है।
वे चैतन्य हो गये। मन ही मन उन्होंने एक निर्णय लिया कि उनने जो सोचा है ''कदाचित यही औरत उत्तारी न सही दक्षिणी भारती ब्राम्हण होती तो वे कुछ सोचते'' वह कल्पना हवाई नहीं है। उसे सच भी किया जा सकता है।
हो सकता है चेलम्मा सचमुच दक्षिण भारतीय ब्राम्हण बिरादरी यानि नम्बूदरी या आयंगर ब्राम्हण हो................। अब तक उससे जाति पूछी ही किसने है? चम्पा प्रसाद मन ही मन एकाएक उन्होंने बड़ा भीष्म निर्णय लिया जो न उनके पहले किसी ने लिया था न उनके खानदान में शायद कोई ले पाये। चेलम्मा अब इस घर में जरुर आयेगी। वह अगर ब्राम्हण जाति की ना भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। वैसे भी भविष्य में उसकी असली जाति का पता किसे लगना है। अभी उसी से कहला देंगे की वह केरल के नम्बूदरी ब्राम्हण खानदान की कन्या है। फिर क्या है, गांव में मंदिर में जाकर विधि विधान से कालका भैया की सप्तपदी करा देंगे, गांव वालों को खीर-पूरी के साथ पचबन्नी मिठाई की पंगत जिमा देंगे सो वे भी चुप। ब्राम्हण समाज के अध्यक्ष को बुलाकर कहेंगे- पंडित जी आप जो कान्य-कुब्ज, जिझौतिया, सनाडय और भार्गव जैसे उपभेद समाप्त करने की बात करते हैं ह उससे सहमत हैं और अपने घर में ही यह दिखाने को तैयार हैं। हम तो दो करम आगे जाकर दक्षिण भारतीय ब्राम्हण की लड़की घर में ला रहे हैं। चलो कन्यादान आप ही कर दो।
चेलम्मा से कहके केरल के रहने वालों में से इधर आसपास कहीं कोई परिवार होंगे तो उन्हें न्यौता भेज देंगे। विवाह संस्कार को ''दक्षिणी विवाह पध्दति'' से सम्पन्न करा देंगे। मलयाली स्त्रिायाँ इस अवसर पर कितनी भलीं लगेंगी जब वे एक स्वर होके गायेंगी-
विवाह करने के निर्णय के साथ ही उनके मन का सारा द्वंद्व धूल के अंधर की तरह एकाएक मंदा पड़ता हुआ शांत हो गया - चलो जायदाद बची रह गई तो जाति और समाज भी सम्मान देगा।
अपने इष्ट देव के सामने उन्होंने सिर झुकाकर प्रणाम किया। उठे और उतावली में आंगन में चले आये।
दिन ढल रहा था पर उन्हें न भूख थी न प्यास। कुछ देर बाद ही वे
धुले-चमकदार धोती-कुर्ता पहन कर नये पम्पशू पांव में उलझाये घर से बाहर निकल पड़े थे।
बाहर दरवाजे के आगे नौहरे में भैंसे और गायें बंधी थीं। उन्हें देखकर चम्पा प्रसाद को एकाएक लाड़ सा उमड़ आया। वे उनके पास गये और पुचकारने लगे। उनने सींग की जड़, कान और गर्दन को खुजलाया फिर ढोर के गले में नीचे लटकी नर्म खाल की झालर सहलाते हुये उनका मन मोह में डूबने उतराने लगा।
कुछ देर बाद ही वे अपने खेतों के बीच से गुजर रहे थे। यहाँ से वहाँ तक भरपूर जवानी से लदी गेंहूँ की सुनहरी फसल खड़ी थी। चारों ओर जैसे सोना ही सोना बिखरा पड़ा हो। फसल देखकर उनकी ऑंखों की चमक और ज्यादा बढ़ गई - इस साल बीघा पीछे छह क्विंटल से कम क्या झरेगा !
अस्पताल जाने वाले रास्ते पर मुड़ते हुये वे एक कुशल संवाद लेखक की तरह ऐसे वाक्य रच रहे थे, जो चेलम्मा के मुंह से बुलवाये जाने पर न तो बनावटी लगें और न अस्वाभाविक।
अब न उन्हें बैचेनी थी और न कोई भय। बल्कि एक अजीब सी उत्तोजना थी। उनकी चाल को देख के यह उत्तोजना सहज ही समझ में आ जाती थी।
राजनारायण बोहरे, दतिया (म.प्र.)
''''

सोमवार, 21 सितंबर 2009

माय फ्रैंड'स story

लेखक-परिचय



जन्म : दिस. 26, 1955

ए.असफल जन्मजात लेखक नहीं हैं, यह हुनर उन्होंने साधना से हासिल किया है। धर्मयुग, सारिका के जमाने से लेकर नया ज्ञानोदय और पुनर्प्रकाशित हंस तक उनका सफ़र बेहद श्रम-साध्य रहा। संगठन और प्रचार साहित्य से दूर दलित, स्त्री, प्रेम और दर्शन जैसे सरल किंतु जटिल विषयों पर निरंतर खोजपूर्ण लेखन करते वे अकेले जरूर पड़ते गये पर अपनी सृजनात्मक ऊर्जा, लेखन शैली, अनुभव संसार तथा भाषायी सौंदर्यबोध के कारण गुमनाम होने से बच गये। अपनी इसी खोजी प्रवृत्तिा के बल पर संस्कृति और ऐतिह्य से लेकर उत्तार आधुनिक समाज तक वे गहरी पड़ताल कर सके। वैविध्य और मौलिकता उनके साहित्य की खास पहचान है।

कृतियाँ
कथा संग्रह- जंग, वामा, मनुजी तेने बरन बनाए, बीज।
उपन्यास- बारह बरस का विजेता, लीला, नमो अरिहंता।

संप्रति: स्वतंत्र लेखन।

संपर्क: 20, ज्वालामाता गली, भिण्ड (म0प्र0)
फोन: 07534-236558
डवइ.9826695172





























बीज उर्फ एक और एन.जी.ओ.



कोई स्वप्न नहीं, मेरी ऑंखों में सिर्फ अाँसू थे। चेहरे पर खीज और मन में भूखे सो जाने की जिद।...

वातावरण निर्माण के लिए स्थानीय स्तर पर कलाजत्थे बना दिए गए थे। जिन्हें नाटक और गीत सिखाने के लिए मुख्यालय पर एक प्रशिक्षण शिविर लगाया गया। प्रशिक्षु मुझे दीदी कहते और उन्हें सर। हम लोग रिहर्सल में पहुँच जाते तो वे फेज और सफदर के गीत गाने लगते। ऐसे मौकों पर हम अक्सर भावुक हो उठते, गोकि दिल से जुड़े थे!
जब प्रत्येक टीम के पास प्रशिक्षित कलाकार हो गए तो उन्हें उनका स्थानीय कार्यक्षेत्र दे दिया गया। यानी हरेक टीम को अपने सर्किल के आठ-दस गाँवों में नुक्कड़ नाटक व गीतों का प्र्रदर्शन करना था। कलाजत्थों, कार्यकत्तर्ााओं व ग्राम-समाज के उत्साह-बर्ध्दन के लिए हमेेंेंं प्रतिदिन कम से कम पाँच-छह गाँवों का दौरा करना पड़ता।
...और एक ऐसे ही प्रदर्शन के दौरान जिसे देखते-सुनते हम भाव विभोर हो गए थे। ...मैं उनके कंधे से टिक गई थी और वे रोमांचित से मुझी को देख रहे थे, किसी फोटोग्राफर ने हमारा वह पोज ले लिया! और वह चित्र उसे एक खबर प्रतीत हुआ? जो उसने एक स्थानीय अख़बार में छपा भी दिया... जबकि उस क्षण हम लोग अपने आप से बेखबर अपने लक्ष्य को लेकर अति संवेदित थे!
बाद में उस अख़बार की कतरन एक दिन आकाश ने मुझे दिखर्लाई तो मैं तपाक से कह बैठी-
'यह तो मृत है- जिसे देखना हो, हमें जीवंत देखे!'
वे हतप्रभ रह गए।
पापा ने भी वह चित्र कहीं देख लिया होगा! वे कॉलोनी को जोड़ने वाली पुलिया पर बैठे मिले।... माँ दरवाजे पर खड़ी। भीतर घुसते ही दोनों की ओर से भयानक शब्द-प्रताड़ना शुरू हो गई। वही एक धौंस कि- कल से निकली तो पैर काट लेंगे! बाँध कर डाल देंगे! नहीं तो काला मुँह कर देंगे कहीं! यानी हाँक देंगे जल्दी-जल्दी में किसी स्वजातीय के संग जो भले तुझसे अयोग्य, निठल्ला, काना-कुबड़ा हो!
और उसी क्षण जरा-सी जुबानदराजी हो गई तो पापा ने क्रोध में रण्डी तक कह दिया!

रोतेरोते मैं भूखी सो गई।... ऑंख खुली तो छोटी की हालत बद्तर! कुछ दिनों से उसके पेट में अपेंडिसाइटिस का जानलेवा दर्द होने लगा था। आखिर मैंने माँ के फूले हुए चेहरे को नज़रअंदाज कर धीरे से कहा, 'मैं रिक्शा ले आती हूँ।'
उसने कौड़ी-सी ऑंखें निकालीं, बोली कुछ नहीं। मैं सिर खुजला कर रह गई। फिर छोटी की तड़प और तेज़ हो गई तो, मैंने तैयार होकर उसे अकेले दम ले जाने का फैसला कर लिया। पीछे से माँ ने अचानक गरज कर कहा:
'केस बड़े अस्पताल के लिए रैफर हो गया है!'
मैं निशस्त्र हो गई। अचानक ऑंखों में बेबसी के ऑंसू उमड़ आए।
'पापा?' मैंने मुश्किल से पूछा।
'गये... उनके तो प्राण हमेशा खिंचते ही रहते हैं,' वह बड़बड़ाने लगी:
'हमारी तो सात पुश्तों में कोई इस नौकरी में नहीं गया। जब देखो डयूटी! होली-दीवाली, ईद-ताजिया पर भी चैन नहीं... कहीं मंत्री-फंत्री आ रहे हैं, कहीं डकैत खून पी रहे हैं!'
वह पहले ऐसी नहीं थी। न पापा इतने गुस्सैल! भाई मोटर-ऐक्सीडेंट में नहीं रहे, तब से घर का संतुलन बिगड़ गया। ...फिर दूसरी गाज गिरी पापा के निलंवित होकर लाइन हाजिर हो जाने से।... पुलिस की छवि जरूर खराब है, पर पुलिस की मुसीबतें भी कम नहीं हैं। एक अपराधी हिरासत में मर गया था। ऐसा कई बार हो जाता है। यह बहुत अनहोनी बात नहीं है। कई बार स्वयं और कई बार सच उगलवाने के चक्कर में ये मौतें हो जाती हैं। राजनीति, समाज और अपराधियों के न जाने कितने दबाव झेलने पड़ते हैं पुलिसियों को। पापा पागल होने से बचे हैं, हमारे लिए यही बहुत है। इकलौते बेटे का ग़म और दो बेटियों के कारण असुरक्षा तथा आर्थिक दबाव झेलते वे लगातार नौकरी कर रहे हैं, यह कम चमत्कार नहीं है। कई पुलिसकर्मी अपनी सर्विस रिवॉल्वर से सहकर्मियों या घर के ही लोगों का खात्मा करते देखे गए हैं। माँ तो इसी चिंता में आधी पागल है! मेरी समाजसेवा सुहाती नहीं...

और मैं सुन्ना पड़ गई। ...आकाश रोजाना की तरह लेने आ गए थे!
क्षेत्र में ट्रेनिंग का काम शुरू हो गया था। हम दोनों ही की-पर्सन थे। मास्टर ट्रेनर्स प्रशिक्षण हेतु जो सेंटर बनाए गए थे उन पर मिलकर प्रशिक्षण देना था। वे रोज़ सुबह आठ बजे ही घर से लेने आ जाते।
'क्या हुआ?' उन्होंने गर्दन झुकाए-झुकाए पूछा।
'सर्जन ने केस रीजनल हॉस्पीटल के लिए रैफर कर दिया है...' आवाज बैठ रही थी।
'पापा?' उन्होंने माँ से पूछा।
उसने मुँह फेर लिया।
वे एक ऐसी सामाजिक परियोजना पर काम कर रहे थे, जिसे अभी कोई फण्ड और स्वीकृति भी नहीं मिली थी। मगर वे प्रतिबध्द थे। क्योंकि- परिवर्तन चाहते थे। क्षेत्र में उन्होंने सैकड़ों कार्यकत्तर्ाा जुटाए और साधन निहायत निजी। सभी कुछ खुद के हाथपाँव से। जिस पर साइकिल-बाइक थी, वह उससे, आकाश ने एक पुरानी जीप किराए पर ले रखी थी। शहर से देहात तक सब मिलजुल कर एक परिवार की तरह काम कर रहे थे। उन्होंने सभी को गहरी आत्मीयता से जोड़ रखा था।... मगर माँ अक्सर उनका विरोध किया करती थी। ...परीक्षा से पहले मैं एक युवा समूह का नेतृत्व अपने हाथ में लेकर बिलासपुर चली गई थी, उसे वह मंजूर था। मेरे जम्मू-कश्मीर विजिट पर भी उसने कोई आपत्तिा नहीं जताई! पर आकाश के संग गाँवों में फिरने, रातबिरात लौटने से उसे चिढ़ थी।
और मैं प्रार्थना कर उठी कि वे यहाँ से चुपचाप चले जायं। मगर उन्होंने परिस्थिति भाँपकर तुरंत साथ चलने का निर्णय ले लिया!
माँ यकायक ऋणी हो गई।...
मैं खुश थी। बहुत खुश।

ज़रूरत का छोटामोटा सामान जीप में डालकर, बैग में केस के परचे रख मैं तैयार हो गई। ...उन्होंने माँ को आगे बिठाया, बहन उसकी गोद में लेटा दी। ड्रायवर से बोले, 'गाड़ी संभाल कर चलाना।' मैं उड़ती-सी दरवाजे पर ताला लगाकर पीछे बैठ गई। जीप स्टार्ट हुई तो वे भी बग़ल में आ बैठे। शहर निकलते ही कंधे पर अपना हाथ रख लिया, जैसे- सांत्वना दे रहे हों! उनके सहयोग पर दिल भर आया था।... जबकि शुरू में उनके साथ जाना नहीं चाहती थी। जीप लेने आती और मैं घर में होते हुए मना करवा देती, क्योंकि शुरू से ही मेरा उनसे कुछ ऐसा बायां चंद्रमा था कि एक दिशा के बावजूद हम समानांतर पटरियों पर दौड़ रहे थे।... तकरीबन एक-डेढ़ साल पहले आकाश जब एक प्रशिक्षण कैम्प कर रहे थे; मैं अपने कोरग्रुप के साथ फाइल में छुपा कर उनका कार्टून बनाया करती थी। उनकी बकरा दाढ़ी और रूखा-सा चेहरा माइक पर देखते ही बोर होने लगती। और उसके बाद मैंने एक कैम्प किया और उसमें आकाश और उनके साथियों ने व्यवधान डाला... न सिर्फ प्रयोग बल्कि विचार को भी नकार दिया! तब तो उनसे पक्की दुश्मनी ही ठन गई। जल्द ही बदला लेने का सुयोग भी मिल गया मुझे! एक संभागीय उत्सव में प्रदर्शन के लिए आकाश को मेरी टीम का सहारा लेना पड़ा। और मैं चुपचाप कान दबाए चली तो गई उनके साथ पर एक छोटे से बहाने को लेकर ऐंठ गई और बगैर प्रदर्शन टीम वापस लिए अपने शहर चली आई! वे वहीं अकेले और असहाय अपना सिर धुनते रह गए थे।
फिर अली सर ने कहा, 'नेहा, सुना है- तुम आकाश को सहयोग नहीं दे रहीं? यह कोई अच्छी बात नहीं है...'
वे मेरे जम्मू-कश्मीर विजिट के गाइड... मेरी नज़र झुक गई। हमने राजौरी तक कैम्प किया था। मैं उनका सम्मान करती थी।
मगर उन्होंने दो-चार दिन बाद फिर ज़ोर डाला तो मैंने उन्हें भी टका-सा जवाब दे डाला:
'मैं खुद से अयोग्य व्यक्ति के नीचे काम नहीं कर सकती...'
और यहीं मात खा गई। वे बोले:
'तुम जाओ तो सही, तुम्हारी धारणा बदल जाएगी!' उन्होंने विश्वास दिलाया, 'नीचे-ऊपर की तो कोई बात ही नहीं... वह तो एक एन.जी.ओ. है- स्वयंसेवी संगठन! वहाँ सभी समान हैं। कोई लालफीताशाही नहीं।'
मैं अख़बारों में उनकी प्रगति-रिपोर्ट पढ़ती और सहमत होती जाती। और आखिर, उस संस्था में तो थी ही... समिति ने मुझे उनके यहाँ डैप्यूट भी कर रखा था! परीक्षा के बाद खाली भी हो गई थी। सिलाई-कढ़ाई सीखना नहीं थी, ना-ब्यूटीशियन कोर्स और भवन सज्जा! फिर करती क्या? उन्हीं के साथ हो ली।
...उन दिनों वे मुझे आगे बिठा देते और खुद पीछे बैठ जाते। सिगरेट पीते। मुझे स्मैल आती। पर सह लेती। पिता घर में होते तब हरदम धुआं भरा रहता। नाक पर चुन्नी और कभी-कभी सिर्फ दो उंगलियाँ सटाए अपने काम में जुटी रहती। हालाँकि बचपन में मैंने भाई के साथ बीड़ी चखी, तम्बाकू चखी, चौक-बत्ताी खाई... पर अब उन चीजों से घिन छूटने लगी थी। ...तीन-चार दिन में आकाश ने मुझे नाक मूँदे देख लिया। ...उसी दिन से जीप में सिगरेट बंद। वे दूसरे कार्यकत्तर्ााओं को भी धूम्रपान नहीं करने देते। वे वाकई अच्छे साबित हो रहे थे।
उन दिनों मैं एक वित्ता विकास निगम के लिए भी काम करती थी। आकाश दाएं-बाएं होते तब कार्यकत्तर्ााओं को अपनी प्लान्टेशन वाली योजनाएँ समझाती।... धीरे-धीरे तमाम स्वयंसेवकों को निगम का सदस्य बना लिया। पर एक बार जब एक मीटिंग के दौरान प्रोजेक्ट पर बात करते-करते निगम का आर्थिक जाल फैलाने लगी तो वे एकदम भड़क उठे। कुरसी से उठकर जैसे दहाड़ उठे, 'नेहा-जीऽ! सुनिये-सुनिये, ये ऐजेंटी- जुआ-लॉटरी यहाँ मत चलाइये। ये लोग एक स्वयंसेवी संगठन के प्रतिबध्द कार्यकत्तर्ाा हैं! इन्हें मिस गाइड मत करिये! यहाँ सिर्फ प्रोजेक्ट चलेगा... समझीं-आपऽ?'
समझ गई... मैंने मुँह फेर लिया। कल से बुलाना! अपमान के कारण चेहरा गुस्से से जल उठा। उठकर एकदम भाग जाना चाहती थी, पर वह भी नहीं कर पाई। रात में ठीक से नींद नहींर् आई। बार-बार वही हमला याद हो आता! पर दो दिन बाद एक किताब पढ़ी, 'यह हमारी असमान दुनिया' तो सारा अपमान, सारा गुस्सा तिरोहित हो गया। मैं फिर से पहुँच गई उसी खेमे में। ...और गाँव-गाँव जाकर पुरुष कार्यकत्तर्ााओं की मदद से महिला संगठन बनाने लगी। मुझे अच्छा लगने लगा। वित्ता विकास निगम की ऐजेंटी एक सहेली को दान कर दी। जैसे- लक्ष्य निर्धारित हो गया था और उपस्थिति दर्ज हो रही थी। ...समाज में स्त्री की मौलिक भूमिका।

जीप इण्डस्ट्रियल ऐरिया के मध्य से गुज़र रही थी। हॉस्पीटल अब ज्यादा दूर नहीं था। लेकिन छोटी दर्द के कारण इठ रही थी। माँ घबराने लगी। आकाश ने ड्रायवर से कहा, 'गाड़ी और खींचो जरा!' मैं खामोश नज़रों से उन्हें ताकने लगी, क्योंकि- चेसिस बज रही थी। गाड़ी गर्म होकर कभी भी नठ सकती थी।...
कुछ नहीं होगा!' उन्होंने चेहरे की भंगिमा से आश्वस्त किया।
मैंने पलकें झुका लीं। ...वापसी में हमलोग अक्सर लेट हो जाते थे। तब भी गाड़ी इसी कदर भगाई जाती...। और वह कभीकभी ठप्प पड़ जाती तो सारी जल्दी धरी रह जाती! मुझे लगातार वही डर सता रहा था।... मगर इस बार उसने धोखा नहीं दिया। ...बहन को कैज्युअलिटी में एडमिट करा कर हमने सारे टेस्ट जल्दी जल्दी करा लिए। दिन भर इतनी भागदौड़ रही कि ठीक से पानी पीने की भी फुरसत नहीं मिल पाई। रात आठ-नौ बजे जूनियर डॉक्टर्स की टीम पुनर्परीक्षण कर ले गई और अगले दिन ऑपरेशन सुनिश्चित हो गया तो थोड़ी राहत मिली।
वे बोले, 'चलो- जरा घूमकर आते हैं।'
मैंने माँ से पूछा, 'कोई जरूरत की चीज़ तो नहीं लानी?'
उसने 'ना' में गर्दन हिलादी। माथे पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं। किंतु उसकी परेशानी को नज़रअंदाज कर मैं आकाश के साथ चली गई।...
चौक पर पहुँच कर हमने पाव भाजी और डिब्बाबंद कुल्फी खाई। असर पेट से दिमाग तक पहुँचा तो रौशनी में नहाई इमारतें दुल्हन-सी जगमगा उठीं। ...चहलक़दमी करते हुए हम फव्वारे के नजदीक तक आ गए। बैंचों पर जोड़े आपस में लिपटे हुए बैठे थे। अनायास सटने लगी तो, वे विनोदपूर्वक बोले, 'योगी किस कदर ध्यान-मग्न बैठे हैं!'
लाज से गड़ गई कि आप बहुत खराब हैं!
फिर मुझे वार्ड में छोड़कर वे अपने मित्र के यहाँ रात गुज़ारने चले गए। मैं तब भी उन्हें आसपास महसूस कर रही थी। मानो, करीब रहते रहते कोई भावनात्मक संक्रमण हो गया था। उनकी आवाज, ऊष्मा और उपस्थिति हरदम सर पर मंडराती थी।
सुबह वे जल्दी आ गए और दुपहर तक ऑपरेशन निबट गया। बहन को खुद अपनी बाँहों में उठाकर ओ.टी. तक ले गए और वापस लाए। हड़ताल के कारण उस दिन कोई स्ट्रेचर न मिला था। दुपहर बाद अचानक बोले, 'नेहा! अब मैं रिलैक्स होना चाहता हूँ! तुम्हें कोई जरूरत न हो तो चला जाऊँ?'
बहन को फिलहाल दवाइयों की जरूरत थी, ना जूस की। नाक में नली पड़ी थी और प्याली में उसका पित्ता गिर रहा था। सहयोग के लिए वे ड्रायवर को छोडे ज़ा रहे थे।... वह एक शिष्ट लड़का, मुझे दीदी कहता और मानता भी। पापा का फोन आ चुका था, घंटे-दो घंटे में आने वाले थे, बस! पर उनके जाते ही मैं खुद को अस्वस्थ महसूस करने लगी।...

ज़हन में तमाम नई-पुरानी घटनाएँ आ रही थीं। ...एक बार वे कहीं फंस गए और मुझे लेने नहीं आ पाए। दुपहर तक प्रतीक्षा करने के बाद बस से और फिर पैदल चल कर खुद स्पॉट पर पहुँच गई।... टीम दुपहर के प्रदर्शन के बाद तालाब किनारे वाले मंदिर पर लौट आई थी। उस दिन उन्हें खाना नहीं मिला था। गाँव में पार्टीबंदी थी। दल प्रमुख ने स्थानीय राजनीति में उलझने के बजाय शाम का प्रदर्शन निरस्त कर खाना खुद पकाने की योजना बनाई हुई थी। सुबह उसने टीम को गाँव की दूकानों से छुटपुट नाश्ता करवा दिया था। अब- आटा, तेल, मिर्च-मसाला, सब्जी, बर्तन, ईंधन आदि का जुगाड़ किया जा रहा था। पीपल के नीेचे चंद र्इंटों का चूल्हा बना लिया गया था।...
मुझे हँसी छूटी। बोली, 'खाना मैं पका लूँगी। तुम लोग नाटक नहीं रोको...'
'अरे-दीदी, आप क्यों चूल्हे में सिर देंगी... छोड़ो, एक प्रदर्शन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा!' लड़के खिसियाए हुए थे।
'मैं क्या पहली बार चूल्हा फंँकँगी... कई बार गैस की किल्लत हो जाती है तब स्टोव और कभीकभी लकड़ी का चूल्हा चेताना पड़ता है। जाओ- तुम लोग नाटक करो, हार नहीं मानते...' मैंने समझाया।
थोड़ी देर में वे राजी हो गए। शाम का नाटक वहाँ के शाला भवन में रखा गया था, जहाँ रामलीला होती, सारा गाँव जुड़ता। मैं अपनी सफलता पर आत्मविभोर थी। सहायता के लिए एक लड़का मेरे पास छोड़कर वे सब चले गए। शाम घिर आई थी। बिजली सदा की तरह गुल थी। मंदिर का दीपक उठाकर हमने अपने चूल्हे के पास रख लिया। यह भी एक विचित्र अनुभव था। ...इतने लोगों का खाना मैं पहली बार बना रही थी। जैसे- किसी शादी-समारोह में हलवाई बन के लगी होऊँ! खूब बड़े भगौने में आलू और बैंगन मिलकर चुर रहे थे। नीचे ईंटों के चूल्हे में सूखी लकड़ी और उपले भक्भक् जलते हुए... पसीने से लथपथ मैं बड़े से परात में आटा गूँद रही थी, दुपट्टा गले में लपेट रखा था।
तभी अचानक आकाश आ गए। जैसी कि उम्मीद थी। ...वे दिन में नहीं आए थे। प्रत्येक टीम के पास दिन में एक बार जरूर पहुँचते थे। इसी सम्बल के कारण अभियान अपने शिखर पर था।... मुझे इस तरह सन्नाध्द पाकर इतने भावुक हो गए कि ड्रायवर और उस लड़के के सम्मुख ही झुककर सिर पर हाथ फेरने लगे।... यह शाबाशी थी मेरे तईं। मेरे सहयोग, और प्रतिबध्दता के प्रति उनका हार्दिक आभार। मेरी जगह कोई लड़का होता तो वे ठोड़ी चूम लेते।...
'नाटक चालू हो गया?' मैंने मुस्कराते हुए पूछा।
'अभी नहीं- लड़के गैसबत्ताी और माइक वगैरह चालू कर रहे हैं।'
बिजली क्यों नहीं है?' मैं चिढ़ गई।
'यहाँ भी ट्रांसफार्मर फुँका पड़ा है...'
'कब से?'
'पता नहीं... रिलैक्स,' वे मुस्कराए, 'हम इसी जागृति के लिए कटिबध्द हैं! मोक्ष और जातीय पहचान दिलाने वालों और अपन में यही फ़र्क है। वक्त लगेगा, पर एक बार फिर नहरों में पानी, तारों में बिजली, पाँवों में सड़क, हाथों में काम, शाला में टीचर और पंचायत में धन और न्याय होगा- हमें इसी तरह लगे रहना है, बस!'
मैंने ऑंखें झुका लीं। मुझे यकीन है, वे यह चमत्कार एक दिन अवश्य करके दिखा देंगे इस धरती पर। भगौने से सब्जी पकने की महक आने लगी थी। मैंने ढक्कन खोला तो खदबदाहट धीमी पड़ गई। चूल्हे की लौ से आकाश का चेहरा नवोदित सूर्य-सा दमक रहा था। दाढ़ी और सिर के बालों के बीच जैसे- भोर के कुहासे में उगता सूरज।...
चमचे द्वारा सब्जी इधर उधर पलटने के बाद मैंने कहा, 'लड़कों को बुलवा कर खाना खिलवा देते... प्रदर्शन में समय लगेगा। सुबह से भूखे हैं- बेचारे!'
घूम कर उन्होंने ड्रायवर और उस लड़के की ओर देखा।
'बुला लाएँ-सर!' वे दोनों एक साथ बोले।
हाँ। आकाश ने सिर हिला दिया और वे दौड़ गए।... पीपल के बग़ल में हनुमान जी का पुराना मंदिर था। उन्होेंने चुटकी ली, 'इनकी बहुत मान्यता है...'
'होनी चाहिए,' मैं स्वभावत: धार्मिक, तुरंत एक वैज्ञानिक कयास जोड़ती हुई बोली, 'हमारे पूर्वज हैं! आखिर हम मनुष्य वानर जाति से ही तो...'
'वे केशरी नंदन, पवन देव के औरस पुत्र हैं!' आकाश मुस्कराए।
'क्या-हुआ! उस युग का समाज ही ऐसा था,' मैंने हमेशा की तरह उन्हें हराने की सोची, 'दशरथ का पुत्रेष्ठ-यज्ञ और कौरव-पाण्डवों की वंश परंपरा...'
'वही तो...' वे खुल कर हँसने लगे। और अर्थ समझ कर मैंने अपनी जीभ काट ली! फिर भगौना उतार कर चूल्हे पर तवा चढ़ा दिया और टिक्कर ठोकने लगी। सेंकने के लिए वे उकड़ूँ बैठ गए। दोनों इतने चौकस तालमेल के साथ काम कर रहे थे, जैसे- अपने बच्चों के लिए खाना पका रहे हों।... यह बात सोचकर ही मेरे मन में गुदगुदी-सी होने लगी। चेहरे पर स्थाई मुस्कान विराजमान हो गई थी, जिसे निरख कर आकाश अभिभूत थे। उस सघन मौन में हम एक-दूसरे से मन ही मन क्या कुछ कह-सुन रहे थे, खुद को ही नहीं पता! उस बेखुदी से गुज़रते हुए दिल को जिस सच्चे आनंद की अनुभूति हो रही थी, उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता, शायद!
थोड़ी देर में चिल्लपों मचाती टीम आ गई। अधिकांश किशोर वय के भोले साथी। और गरम गरम सब्जी और मेरे हाथ के टिक्करों पर टूट पड़ी। ...खिलाने का वह अद्वितीय सुख मैने पहली बार भोगा। एक-एक थाली में चार-चार हाथ... बाद में अनायास हम दोनों ने भी एक ही थाली में ग्रास तोड़े! आनंद में मैंने अपनी पलकें मूँद रखी थीं। लग रहा था, माँ ने यह एहसास कभी जिया ही नहीं... पिता को देखकर यह लगता ही नहीं कि उनके भीतर भी कोई पूर्ण चंद्र है और माँ के भीतर अतल-अछोर समुद्र! जो होता तो जीवन मिठास से लबरेज होता।...

तीन-चार दिन बाद वे अचानक फिर अस्पताल पहुंच गए। मेरी आंखों में चमक और आवाज में चहक भर गई। थोड़ी देर में मां ने उनसे कहा, 'ये इंजेक्शन यहां आसपास कहीं मिल नहीं रहा।...'
परचा उन्होंने हाथ से ले लिया। उठते हुए बोले, 'चलो- नेहा! चौक पर देख लें, वहां तो होना चाहिए!'
मैं जैसे उपासी-सी बैठी थी! चुन्नाी और चप्पलें बदल कर झट साथ हो ली।
चौक पर स्कूटर से उतरते ही इंजेक्क्शन हमें पहली दूकान पर ही मिल गया। लेकिन आकाश मेरा हाथ पकड़ कर लगभग दो फर्लांग तक पैदल चलाते हुए एक रेस्त्रां में ले गए। वहां हमने ताज़ा नाश्ता करके दही की लस्सी पी।... इस बीच उन्होंने बताया कि- आप लोगों के चले आने से कैसी कठिनाई आ रही है! जीप तो जैसेतैसे हैंडल कर ली, पर जो महिला संगठन सुस्त पड़ रहे हैं- उन्हें सक्रिय नहीं कर पा रहे।...'
वार्ड में लौट कर वे जाने लगे तो मैं अवश-सी उन्हें अकेले जाते हुए देखती रही।
पहले मुझे समझ में नहीं आता था कि वे इतने बेचैन और उद्विग्न क्यों हैं! जबकि हम यथास्थिति में मज़े से जिए जा रहे हैं... लोग तीज-त्यौहारों, खेलों, प्रवचनों-कुंभों में इतने आनंदित हैं...। और यह सुविधा हमें लगातार मुहैया करायी जा रही है!
वे कहते- हमारी मूल समस्या से ध्यान हटाने की यह उनकी नीतिगत साजिश है। समाज को नशे में बनाए रखकर वे अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।...
एक दिन मुश्किल से कटा। दूसरे दिन मैंने ड्रायवर से कहा, 'तुम्हें पता है- अपने क्षेत्र में आज पर्यवेक्षक आ रहे हैं...'
'सर ने बताया तो था एक बार... पर उन्होंने मुझे यहाँ छोड़ रखा है! कोई और इंतजाम कर लिया होगा!'
'नहीं,' मैं मुस्कराई, 'गाड़ी खुद चलाने लगे हैं! कभी उसका गीयर निकल जाता है, कभी सेल्फ नहीं उठता... खूब पचते रहते हैं!'
'अरे!' वह आश्चर्य चकित-सा देखता रह गया। उनके गाड़ी चलाने लगने से एक कौतुहल मिश्रित खुशी उसके भीतर नाच उठी थी। उसने कहा, 'अपन लोग चलें-वहाँ? छोटी दीदी की हालत में अब तो काफी सुधार है, मम्मी-पापा हैं-ही!'
...मैं जैसे, इसी बात के लिए उसका मुँह जोह रही थी! पहली बार पापा से मुँह फोड़ कर बोली, 'आप देखते रहे हैं- हम लोगों ने कितनी मेहनत उठाई है! यही समय है जब अच्छे से अच्छा प्रदर्शन कर हम अपने प्रोजेक्ट को आगे ले जा सकते हैं...'
उन्होंने बेटी की ऑंखों में गहराई से देखा। वहाँ शायद, ऑंसू उमड़ आए थे! बीड़ी का टोंटा एक ओर फेंकते हुए धीरे से बोले, 'चली जाओ...' फिर माँ को कसने लगे, 'इससे कहोे- रात में अपने घर में आकर सोए!'
मुझे बुरा लगा। सिर झुका लिया तो ऑंसू पलकों में लटक गए।

लेट होने पर माँ प्राय: बखेड़ा खड़ा कर देती थी। कभी-कभार जुबानदराजी हो जाती तो रांड, रण्डो, बेशर्म कुतिया तक की उपाधि मिल जाती! मगर अगले दिन पैर फिर उठ जाते। माँ देखती, हिदायत देती रह जाती... ऐसे वक्त निकलती जब पापा घर में नहीं होते। गाड़ी समिति के दूसरे लोग मॉनीटरिंग वगैरह के लिए ले जाते तो साइकिल से ही आसपास के गाँवों में चली जाती। एक भी दिन खाली नहीं बैठती। नेहा को बच्चा-बच्चा जानता... चहुँओर से नवजात पिल्लों की तरह दुम हिलाते, दौड़े चले आते! औैरतों के चेहरे खिल जाते। लड़कियाँ जोर से गा उठतीं- देश में ग़र बेटियाँ मायूस और नाशाद हैं...' किसान-मजदूर सभी उत्साह से भर उठते। कोई कहता- बोल अरी ओ धरती बोल, राज सिंहासन डाँवाडोल!' कोई कहता- इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें' ...और मैं खुद भी गुनगुनाती हुई आगे बढ़ जाती, 'ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के...'

बैग में वापसी योग्य सामान ठूँस कर ड्रायवर के साथ बस में बैठ अपने नगर चली आई। भाग्य से रिक्शा आकाश की जीप से बीच राह टकरा गया। मैं किलक कर अपनी जगह पर आ बैठी। ड्रायवर अपनी जगह। वे पर्यवेक्षकों की अगवानी के लिए स्टेशन जा रहे थे। नेहा को अचानक पाकर हर्षातिरेक में हाथ अपने हाथ में ले बैठे। दूसरी ओर ड्रायवर घने बाजार में पूरी चपलता से गाड़ी चला रहा था। वे अब आधेअधूरे नहीं थे। उनके स्वर में वही पहले-सी बुलंदी और दिमाग में वही तेजी मौजूद थी, जिसके बल पर इतना बड़ा संचालन अकेले दम करते चले आ रहे थे।...
पर्यवेक्षकों को रेस्टहाउस में टिका कर हम लोग फील्ड में निकल आए। घूमते घूमते शाम हो गई। बारिश रुक-रुक कर हो ही रही थी। पर सोच रहे थे, जितने केन्द्रों से सम्पर्क सध जाय अच्छा! इसी चक्कर में जीप एक कच्चे पहँच मार्ग में फँस गई। और ड्रायवर आगे-पीछे कर करके हड़ गया तो उसने उसका इंजन बंद कर दिया।
घबराकर मैंने आकाश से पूछा, 'अब?'
'कोई ट्रेक्टर मिले तो इसे खिंचवाया जाय!' वे हिम्मत से बोले।
'लाइट बंद कर लेते...' मैंने सुरक्षा की दृष्टि से कहा।
उन्होंने छत की ओर हाथ बढ़ाकर हुड में लगी बत्ताी का स्विच दबा दिया।
आसमान साफ नहीं था। आसपास झींसियाँ बोल रही थीं। संझा-आरती का वक्त। दूर किसी देवालय से शंख-झालर की मधुर ध्वनि आ रही थी।... मुरली बजाते श्याम और उन पर मुग्ध राधा मेरे जेहन में नाच उठे।
'गाड़ी यहीं छोड़कर मेनरोड तक निकल चलें... अभी तो कोई साधन मिल जाएगा!' मैंने मुस्कराते हुए कहा।
वे पसोपेश में थे।
अचानक ड्रायवर ने मोर्चा संभाल लिया, 'सर! दीदी को लेकर आप निकल जायं।'
तब मैदा-सी झरती उस बारिश में हम निशब्द साथ साथ चलते हुए मुहाण्ड तक आ पहँचे! वहाँ से ट्रक में चढ़कर शहर। लगता था, ट्रक ड्रायवर ने मुझे देखकर ही लिफ्ट दी थी! सड़क से बार-बार नज़रें हटाकर वह इधर ही टिका लेता, जहाँ वोनट के पार मैं भीगी हुई बैठी थी! आकाश उसके भोलेपन पर रह-रहकर मुस्करा लेते।...
अब से पहले मैं रात में कभी उनके घर नहीं आई थी। कपड़े गीले हो रहे थे। झिझकते-झिझकते उनकी पत्नी से लेकर बदल लिए। फिर हम बेड पर ही खाने के लिए बैठ गए। उन्होंने अखबार बिछाते हुए कहा:
'यह रहा हमारा दस्तरख्वान!'
मैं मुस्कराती रही।
भाभी जी प्रसन्नता के साथ खिला रही थीं। ...बीच में उन्होंने इम्तिहान-सा लेते हुए पूछा:
'अच्छा-नेहा, बताओ- काहे की सब्जी है?'
मैंने एक क्षण सोचा और किसी प्रायमरी स्टूडेंट-सी सशंकित स्वर में बोली:
'चौल्लेइया की...'
'तुम कभी धोखा नहीं खा सकतीं...।' मुस्कराते हुए उनकी ऑंखें चमकने लगीं।
मैं पापा की हिदायत भूल गई कि रात में अपने घर में जाकर सोना है...। सुबह वे मुझसे भी पहले उठ कर फील्ड में निकल गए। तब मैं अपने घर पहुँची। बरसात अभी थमी नहीं थी। पर जाने क्या हुआ था-मुझे! सारे फर्श झाड़पोंड डाले। ढेर सारे कपड़े भिगो लिए। बेडसीट्स, चादरे, मेजपोश, कुर्सियों के कुशन और खिड़की-दरवाजों के परदे तक नहीं छोड़े। माँ होती तो कहती, जिस काम के पीछे पड़ती हँ- हाथ धोकर पड़ जाती हूँ...।

पर्यवेक्षकों ने मेप ले लिया था। वे अपनी मरजी से कुछ अनाम केन्द्रों पर पहँचने वाले थे। दुपहर तक जीप आ गई और मैं ड्रायवर के साथ फील्ड में निकल गई। पर्यवेक्षण के आतंक में सौ फीसदी केन्द्रों को सजग करना था।
...रात नौ-दस बजे तक हम सब लगाम खिंचे घोड़ों की तरह लगातार दौड़ते-दौड़ते पस्त पड़ गए। ...मगर काम से पर्यवेक्षक इतने प्रभावित हुए कि सबके सामने ही आकाश का हाथ अपने हाथ में लेकर बोले, '...हमें प्रोजेक्ट की सफलता के लिए पूरे देश में आप जैसे वॉलिन्टियर्स चाहिए!'
-अरे!' मेरे तो हाथपाँव ही फूल गए! ऑंखों में खुशी के ऑंसू छलक पड़े।
वे मुझे आकाश से भी अधिक पसंद कर रहे थे, क्योंकि- असेसमेंट के दौरान ही एक ग्रामीण ने बड़ा अटपटा प्रश्न खड़ा कर दिया था, कि हमारे मौजे का रक़बा इतना कम क्यों होता जा रहा है? और वह अड़ गया कि हमें परियोजना नहीं ज़मीन चाहिए, पानी और बिजली चाहिए!'
ज़ाहिर है, वे राजनैतिक नहीं थे जो कोरे वायदे कर जाते।... हकला गये बेचारे! आकाश ने उसे समझाना चाहा तो मुँहज़ोरी होने लगी। विरोध में कई स्वर उठ खड़े हुए।... तब मैंने बीच में कूदकर सभा में एक ऐसा प्रतिप्रश्न खड़ा कर दिया कि सबके मुँह सिल गए... मैंने कहा था कि आपकी ज़मीनें कोई और नहीं हमारी जनसंख्या निगल रही है।... बस्तियाँ बढ़ती जा रही हैं। गाँव से जुड़ा एक छोटा-सा उद्योग ईंट भट्टा ही कितने खेतों की उपजाऊ मिट्टी हड़प लेता है! परिवार के विस्तार से ही जरूरतें सुरसा का मुख हो गई हैं जिनकी पूर्ति के लिए खुद आप लोग ही हरे वृक्ष काटने को मजबूर हैं। फिर पानी क्यों बरसेगा, नहरें और कुएँ कहाँ से भरेंगे।... ज़रा सोचें, बिना जागरूकता के यह नियंत्रण संभव है! अशिक्षा के कारण ही सारी दुर्गति है, फिर आप जानें... पर आप क्यों जानें? आप तो प्रकृति और सरकार पर निर्भर हो गए हैं!'
आवेश के कारण चेहरा लाल पड़ गया था मेरा। सभा में सन्नााटा खिंच गया।

वे मुझे अपनी कार से घर छोड़ने को राजी थे। उन्होंने उत्साहित भी किया कि प्रोजेक्ट के बारे में उन्हें अपने अनुभव सुनाऊँ तो वे दीगर क्षेत्र के कार्यकत्तर्ााओं को लाभान्वित कर सकेंगे! ऐसी बातों से आत्मविश्वास काफी बढ़ गया था। पर अपने सर को छोड़ कर इस वक्त मैं कहीं जाना नहीं चाहती थी।
उनकी रवानगी के बाद हम केन्द्र प्रमुख के यहाँ भोजन के लिए गए। कम से कम आधे गाँव की औरतों ने मुझे घेर लिया। इतनी उत्साहित कि आने नहीं दें। रतजगा करने पर आमादा! मुझे भी कुछ ऐसी भावुकता ने घेर लिया कि उसी घर में पनाह ढूँढ़ने लगी। इच्छा हो रही थी कि रातभर साथ रहकर जश्न मनाऊँ! शहर पहुँचते ही अपने-अपने दरबों में गुम हो जाना था।...
मगर जीप स्टार्ट हो गई और मैं अपनी जगह पर आ बैठी। हृदय की उमंग हृदय के भीतर ही दफ्न हो रही। मैंने निराशा में भरकर कहा, 'मंजूरी के बाद तो हमें उनके निर्देशन में यह आंदोलन चलाना पड़ेगा!'
'हाँ।'
'फिर आपके परिवर्तनकामी सोच का क्या होगा?'
'हम वही करेंगे...' उनकी ऑंखें हँस रही थीं।

नदी-पुल पर आकर इंजन यकायक गड़गड़ा उठा।
ड्रायवर बोला, 'सर- गाड़ी गरम हो रही है!'
-क्या!' मैं यकायक चौंक गई। एक क्षण के भीतर रात और जंगल का भय मन के भीतर भर गया। एक बार इसी तरह चेम्बर कहीं टकरा गया था, सारा ऑयल निकल गया और फिर इंजन सीज...
'स्पीड डाउन करो... स्पीडऽ!' आकाश बौखला रहे थे, 'रोकना मत, अब स्टार्ट नहीं होगी- फँस जाएँगे... तुमने ध्यान नहीं दिया, रेडिएटर लीक था!'
फिर थोड़ी देर में अपनी विशेषता मुताबिक धैर्यपूर्वक कहने लगे, 'दस मिनट और खींचाेंे जैसेतैसे, पहले तुम्हारा ही घर पड़ेगा, वहीं रोक लेना, हम लोग पैदल निकल जाएँगे।'
मैंने घड़ी देखी। अलबत्ताा, ऑटो रिक्शा भी नहीं मिलेगा! फिर ध्यान इंजन की ध्वनि पर केन्द्रित हो गया। पहले जब सीज हो गया था, आकाश को बारह हजार भरने पड़े। उस रात मैं साढ़े तीन बजे घर पहुँची।... मन हजार कुशंकाओं में फँस गया। पर इस बार वह दुर्घटना नहीं घटी। और हम पहुँच गए अंतत:। शहर में घुसते ही उन्होंने पंजा दायीं ओर मोड़ कर गाड़ी ड्रायवर के कमरे की ओर मुड़वा दी। ...थोड़ी देर में वह रूम के आगे ब्रेक लगाकर बोला, 'स-र! साइकिल निकाल दूँ?'
उन्होंने एक पल सोचा और हाँ में सिर हिला दिया।
और वह खुशी से साइकिल निकाल लाया तो वे पैडल पर पाँव रखकर सीट पर बैठ गए, मैं जम्प लेकर कैरियर पर।... इस तरह बचपन में पापा और भैया के साथ जाया करती थी। राह में गश्त पर सिपाही मिले, वे भी कुछ नहीं बोले। उस वक्त वे सचमुच फैमिली मेम्बर ही लग रहे थे। घर आकर मैंने ताला खोला तो उन्होंने साइकिल अंदर गैलरी में लाकर रख ली।
दिल धड़कने लगा।
देर से रुकी थी, सीधी बॉथरूम के अंदर चली गई। ...घर में इस छोर से उस तक मेरे और उनके सिवा एक चिड़िया न थी! मैंने सोचा जरूर था कि दो पल एकांत के मिल जायं और मैं बधाई दे लूँ! पर इतना अरण्य एकांत और क्षणों का अम्बार...। यह तो कुन्ती जैसा आह्वान हो गया! भीगी बिल्ली बनी जैसेतैसे निकली।... साइकिलिंग की वजह से पसीने से लथपथ वे शर्ट के बटन खोले पंखे के नीचे बैठे मिले!
नज़रें मिलीं तो उठकर करीब आ गए! फिर हथेली थामकर सहमे से स्वर में पूछने लगे, 'मे आइ गो..?'
घर बहुत सख्त हो आया था, तब मैंने डूबते दिल से ताजिए के नीचे से निकल कर मुराद माँगी थी। साथ के लिए, सिर्फ साथ के लिए! तब मुझे खबर नहीं थी कि- मुहब्बत इतनी विचित्र शह है! लाख घबराहट के बावजूद मुस्करा पड़ी, 'कॉन्ग्रेच्युलेशन्स ऑन योर सक्सैस।'
'ओह! सेम-टु-यू!!' वे गहरे भावावेश में फुसफुसाए। फिर अचानक चेहरा हथेलियों में भरकर ओठ ओठों पर रख दिये!
'आऽकाश...'
मेरा स्वर भहरा गया। जैसे, होश में नहीं थी। मैंने कभी उन्हें नाम से नहीं बुलाया। हमेशा सर या भाईसाहब!... वे दो पल यूँ ही बाँधे रहे, जिनमें बीती बरसातें, सर्दियाँ-गर्मियाँ, माँ की जलीकटी बातें और पापा का तमतमाया चेहरा सब बिला गया। ...मगर मैं यथार्थ से भयभीत उन आखिरी लम्हों में भी उनसे बचने की कोशिश कर रही थी, 'आप उनसे दूर जा रहे हैं...'
'किससे...?'
'नज़रें उठाकर मैं मुस्कराने लगी। रात सघन एकांत के दौर से गुज़र रही थी। ...दो पल बाद वे एक निश्वास छोड़कर कांधे में सिर दिए सुबकते से बोले, 'नेहा-आ! मुझे पता नहीं, यह सब क्या है? पर लगता है, तुम नहीं मिलीं तो अब बचूँगा नहीं...'
'तुम- निरे बच्चे हो आकाश!' आखिर मैं सख्त हो आई।... फिर वे लाख मायूस हुए, दामन छुड़ा ही लिया!

रात करवटों में बदल गई। अजीब-सी नर्वनैस और गुस्से ने मुझे अपनी गिरफ्त में ले लिया था। अगले दिन कोई जीप लेने नहीं आई। वह तो अच्छा रहा कि पापा छोटी की छुट्टी करा लाये! मैं पूर्ववत् उसकी तीमारदारी में जुट गई। ...लेकिन उसके बाद पता नहीं क्यों, आकाश ने जीप पहुँचाना ही बंद कर दी। दिन-बदिन मेरा अफसोस गहराने लगा। अनायास सोचने लगी कि मेरी नादानियों का कोई अंत नहीं है। अव्वल तो मुझे एक विवाहित पुरुष की ओर बढ़ना नहीं था और बढ़ रही हूँ तो उनके पूर्व सुरक्षित क्षेत्र को अतिक्रमित करने का क्या हक़ है मुझे! वे अपनी बीवी से दूर हुए या मुझसे आकृष्ट, ये ऐसी घटनाएँ नहीं हैं जो इकहरी हों।... इनके कोई निश्चित कारण भी नहीं हो सकते। पिछले दो-ढाई साल से हम जिस तरह सब-कॉन्शसली एक-दूसरे की ओर बढ़ रहे हैं, उसका अंतिम परिणाम यही था, शायद!
मुझे घर में और लगातार घर में पाकर घर खुद हैरान था, क्योंकि- घर तो मुझे काटने को दौड़ता था। रेलमपेल काम निबटा, सदा रस्सी तुड़ाकर गाय-सी भागती रही थी। दिन छह महीने का होता तो शायद, छह-छह महीने न लौटती! वह तो रात की आवृत्तिा ने पैर बाँध रखे थे, घर की चौखट से। ...पापा ताज्ज़ुब से पूछते, 'तुमने काम छोड़ दिया?' मैं रुऑंसी हो आती।
माँ टोह लेती। भीतर खुशी, बाहर चिंता जताती, 'बैठे से बेगार भली थी... दिन भर घर में घुसी रहती हो।'
तब शायद, उसकी बनावटी पहल की दुआ से ही एक दिन उनका फोन आ गया:
'नेहा! कैसी हो-तुम...'
'जी- अच्छी हूँ...' मेरा दिल धड़कने लगा।
'देखो,' वे हकलाते-से बोले, 'तुम्हें रिप्रिजेंटेशन के लिए दिल्ली जाना है!'
'मुझे!' जैसे, यकीन नहीं आया।
'हाँ! हमें...। मंत्रालय से फैक्स मिला है... मैंने रात की गाड़ी में रिजर्वेशन करा लिया है!'
'नहीं!' मेरा स्वर काँप गया।
'क्यों?' वे जैसे, आफत में पड़ गए।
'जा नहीं पाऊँगी...' मैंने फोन रख दिया।
मैं अपने पापा को जन्म से जानती थी। हालांकि, वे पापा ही थे जो मेरे लेट होने पर घर के बाहर या और भी आगे कॉलोनी को जोड़ने वाले रोड की पुलिया पर रात दस-दस, ग्यारह-ग्यारह बजे तक बैठे मिलते। चेहरा गुस्से से तमतमाया होता पर मुँह से एक शब्द नहीं निकलता। मुझ पर यक़ीन भी था और मुझे पुरुषों के समान अवसर देने का ज़ज्बा भी।... पर उनके पास एक पुलिसिये की ऑंख भी है।... वे कभी इज़ाज़त नहीं देंगे। मेरा दिल बैठ गया था।... मगर शाम को एक दूसरा ही चमत्कार हो गया! आकाश मौसी जी को लेकर घर आ गए! वे मॉनीटरिंग सैल में थीं। उनके होने से ही मुझे इतनी छूट भी मिली हुई थी। उन्होंने आते ही पापा को झाड़ा, 'आपने उसे रोक क्यों दिया?'
'किसे?' उन्हें कुछ पता नहीं था।
मौसी ने आकाश की ओर देखा, वे सकपका गए, 'जी- वो नेहा ने खुद मना किया है...'
'नेहा का दिमाग़ ख़राब है-क्या! कोई बच्ची है जो इतनी गैर जिम्मेदारी दिखाती है! प्रेजेंटेशन के लिए तो जाना ही पड़ेगा। हम लोग कब से लगे हुए हैं...'
मैं अंदर छुपी हुई सारा वार्तालाप सुन रही थी। खुशी से दिल में दर्द होने लगा। माँ ने आकर टेढ़ा मुँह बनाया, 'जाओ अब! इसी के लिए इतने दिनों से बहानेबाजी हो रही थी।...'
और मैंने उसकी बड़बड़ाहट को नज़रअंदाज कर सफ़र की तैयारी शुरू कर दी। ऐसे उपालम्भों की तो जनम से आदी थी।... लेकिन संकोच के मारे रास्ते भर उनसे हाँ-हूँ के सिवा कोई खास बात नहीं हुई। मुझे लोअर बर्थ देकर वे खुद सामने की ऊपर वाली पर चढ़ गए थे। वहीं से रात भर नज़र रखे रहे। सोते-जागते मुझे बराबर एहसास होता रहा कि मुहब्बत निश्चित तौर पर दैहिक आकर्षण से शुरू होती है। देह प्रत्यक्ष नहीं होती वहाँ भी स्त्री के लिए पुरुष और पुरुष के लिए स्त्री की इमेज से ही प्रेमांकुर फूटते हैं हृदय में।...

कन्जेक्शन के कारण ट्रेन दो घंटे लेट पहुँची। ...और हमें सीधे मीटिंग में पहुँचना पड़ा। थकान और घबराहट दोनों एक साथ! मगर बड़े से प्रोजेक्टर पर जब हमारे परियोजना क्षेत्र का नक्शा दिखलाया गया और रौशन बिंदुओं को स्ट्रिक से छू-छूकर मेरे और आकाश के नाम के साथ उल्लिखित किया गया तो दिल में खुशी से दर्द होने लगा। ...लंच के बाद ग्रुप डिस्कशन हुआ। संयोग से मुझे ग्रुप लीडर के रूप में बोलने का मौका मिला। तब सेक्रेटरी ने एक ऐसा प्रश्न खड़ा कर दिया कि मैं चकरा गई। आकाश ने अपनी सीट से हाथ उठाकर बोलने की अनुमति चाही, पर उसने उन्हें वरज दिया और मुझी को चैलेंज करने लगा, 'येस-मैडम! सपोज कि आपको प्रोजेक्ट मिल गया। आपका एचीव्हमेंट भी सेंटपर्सेन्ट रहा। मगर क्या ग्यारन्टी है कि आफ्टर सम-टाइम रेट जहाँ का तहाँ नहीं पहुँच जायेगा?'
'नो-सरऽ इसकी तो कोई ग्यारन्टी नहीं है...' मेरा श्वास फूल गया।
पार्टिसिपेटर्स हूट करने लगे। आकाश का मुँह उतर गया था। मगर अगले ही पल मैंने साहस जुटा कर आगे कहा:
'लेकिन-सर! इतिहास साक्षी है कि बुध्द ने अहिंसा का कितना बड़ा तंत्र खड़ा कर दिया था... गांधी ने स्वदेशी का जाल बुन फेंका और आम्बेडकर ने मुख्य रूप से जातिगत असमानता से निबटने के लिए ही समाज को ललकारा।... पर हम देख रहे हैं- सब उल्टा हो रहा है। सर... मैं कहना चाहती हूँ कि समाज अपनी गति से चलता है-सर!'
तो तालियाँ बजने लगीं। सेक्रेटरी ने कहा, 'आपकी साफ़गोई के लिए शुक्रिया। पर हमें किसी निगेटिव्ह पाइंट ऑफ व्यू से नहीं सोचना है, दोस्तो! ओ.के.। अटेन्ड टु योर वर्क!'
जाते समय हमें बताया गया कि कुछेक प्रोजेक्ट्स पर आज नाइट में ही मंत्रालय की मुहर लग जायेगी। वे लोग आज डैली में ही रुकें।... और यह बात सभी जिलों से नहीं कही गई थी, इसलिए हमने कयास लगा लिया कि कम से कम हमें तो हरी झंडी मिल ही गई।...
उत्साह और हर्ष के कारण दम फूल-सा रहा था। गिले-शिकवे सब ध्वस्त हो चुके थे। मेरे रोल से आकाश तक इतने इम्प्रैस हुए कि आदरसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने लगे। रोके गए प्रतिनिधियों को एक रिप्युटेड गेस्टहाउस में ठहराया गया! वहीं पदाधिकारियों के साथ रात्रिभोज की व्यवस्था थी।...
फ्रेश होकर हम वी.आई.पीज. की तरह डाइनिंग हॉल में पहुँचे।... बैरे तहज़ीब से पेश आ रहे थे। कुछ ऐसा माहौल बन गया था कि मुझे खुद पर गर्व महसूस हो रहा था। इम्प्लीमेंटेशन को लेकर दिमाग़ में नए-नए आईडियाज कौंध रहे थे। अब मैं समझ सकती थी कि तनाव मुक्त मस्तिष्क ही बैटर प्लानिंग दे सकता है।...
आकाश ने जोड़ा- अफसरों को इसीलिए सुविधाएँ मुहैया कराई जाती हैं, ताकि पीसफुली सोच सकें। बेहतर कर सकें। सर्वहारा के मसीहा लेनिन तक बड़ी ग्लैमरस लाइफ बिताते थे। क्योंकि- जनता को आकर्षित करने का यही एक तरीका है। जब तक उसे नहीं लगे कि नेतृत्व अवसर और सुरक्षा दे सकता है, वह साथ नहीं देने वाली...'
एन्जॉयमेंट की गरमी में जोड़े चिड़ियों से चहक रहे थे। उनकी ऑंखों में उड़ान, बदन में बिजलियाँ कौंध रही थीं।...
-मतलब, गरिष्ठ भोजन और खुले मनोरंजन से ही शरीर को बल, दिमाग़ को ऊर्जा मिल सकती है ना! होटल तभी आबाद हैं...।' मैंने विनोद किया।
वे झेंप कर मुस्कराने लगे। मौसम बेहद खुशगवार हो गया।
डाइनिंग हॉल से निकल कर हम होटल के पार्क में आकर बैठ गए थे। मैथ्यु सर वहाँ पहले से बैठे हुए थे।... मुझे देखकर खासे चपल हो उठे। थोड़े से नशे के बाद वे काफी खुल भी गए थे। आकाश से कहने लगे, 'इस लड़की में बहुत ग्रेविटी है... तुम इसकी ऑर्गनाइजिंग केपेसिटी नहीं जानते... जानते हो, टु एविल ए चांस!'
और आकाश हर बात पर जी-जी कर रहे थे, क्योंकि उन्होंने असेस किया था, सैंक्शन उन्हीं की रिकमन्डेशन पर मिलने जा रही थी।... और वे बीच में शायद, किसी शारीरिक जरूरत के लिए उठ कर चले गए तो मैथ्यु सर मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछने लगे:
' नेहा, मेरे साथ सोओगी-तुम?'
'..............'
'बोलो-तो!' नशे में वे अड़ गये। पेंसठ-छियासठ की उम्र। कलाइयाँ भूरे रोमों से आच्छादित। भारतीय प्रशासनिक सेवा से रिटायर्ड, योजना आयोग के सदस्य। उनके खिलंदड़े पन पर मैं मुस्कराने लगी:
'... अभी बिगनिंग नहीं हुई, सर!'
'माय ग्रेशस!' वे सिर पर पैर रखकर नाच उठे, फिर हँसते हुए बोले, 'उसके लिए मुहूर्त निकलवाओगी?... ओ.के. यू मीट मी आफ्टर मैरिज!'

रूम में आकर मैं सीरियस हो गई। थोड़ी देर पाक-अमेरिका की बातें करने के बाद कपड़े बदल कर अपने बिस्तर पर आकर लेट गई।... बीच में एक खूबसूरत-सा सोफा लगा था। आकाश उस पर अधलेटे होकर न्यूज देखने लगे। ...टीवी की आवाज, रात-दिन की थकान और भोजन के नशे के कारण मेरी पलकें झपने लगीं। कुछ देर तो ऑंखें तान-तानकर देखती रही, फिर मुझे गहरी झपकी लग गई। अचानक सपना देखने लगी कि घर में ग़ज़ब की भीडभाड़ है... और मेरी उनसे शादी हो रही है! ...और मम्मी मान नहीं रहीं। ...मैं रो रही हूँ! फिर देखा कि वे अचानक बहुत छोटे हो गये हैं... मुझसे आधी उम्र के! महज दस-बारह बरस के! तो, मम्मी हँस कर मान गई हैं! पर मैं घबरायी हुई पड़ाेस के घर में जा छुपी हूँ... वे ढूँढ़ते फिर रहे हैं।...
फिर नींद अचानक टूट गई। टीवी पर लव'यू लव'यू... किस'मी किस'मी... का दौर चल रहा था। और वे सोफे से टिके मुझी को ताक रहे थे!
स्वप्न और यथार्थ के मेल से घबराई-सी उठकर बॉथरूम के अंदर चली गई। लग रहा था, अधूरा अध्याय अब पूरा होने जा रहा है।... इसे मैं रोक नहीं सकती। इसे मेरे मम्मी-पापा, उनकी पत्नी और सारी दुनिया भी मिलकर नहीं रोक सकती...। इसका लिखा जाना आदि-अनादि से तय है!
काँपती-सी लौटी तो वे पूर्ववत् तपस्यारत् बैठे मिले। जाने क्या सूझा कि करीब आकर हठात् मुस्कराने लगी, 'व्हेन डु यू गो टु बैड?'
दो पल स्थिर दृष्टि से ताकते रहे। फिर धीरे से हाथ पकड़कर बाजू में बिठा लिया।
दिल में झींसियाँ-सी बज उठीं। दिन का घटना-प्रसंग याद करती हुई बोली, 'ये लोग कितने श्रूड हैं... कैसा चकमा दे रहे थे!'
वे मुग्ध भाव से निहारते रहे।... फिर अचानक सीने में सिर देकर भावुक स्वर में बोले, 'तुमने सचमुच कर दिखाया, और किसी की सामर्थ्य नहीं थी... और कोई था ही-नहीं!'
सीने में गुदगुदी-सी भर उठी। मैंने मदहोशी में मज़ाक-सा किया, 'आपने तो सिगरेट तक छोड़ दी, यहाँ लोग जाम लड़ा रहे हैं!'
हठात् वे ऑंखों में झाँकते हुए धीरे से बोले, 'क्यूँ- एन्जॉय करना है, क्या!'
स्क्रीन पर संभोग का दृश्य चल रहा था! दिल ज़ोर से धड़कने लगा...।

सुबह जब चिड़ियाँ बोल रही थीं, वे पीसफुली सो रहे थे। और मैं थकान और जगार से उनींदी बिस्तर में एक अप्रतिम सुख से सराबोर सोच रही थी कि- अब शायद मैं एक ऐसी स्त्री बन जाऊँ जो उनसे सम्बंध बनाए रखकर भी अपने परिवार में बनी रहे। अपनी संतान को अपने नाम से चीन्हे जाने के लिए संघर्ष करे। शायद- उसे सफलता मिले!
परिस्थिति-वश एक सामाजिक क्रान्ति के बीज मेरे मन में उपज रहे थे। और मेरे चेहरे में तमाम पौराणिक स्त्रियों के चेहरे आ मिले थे।...

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रविवार, 20 सितंबर 2009

कहानी-
राजनारायण बोहरे बाजार वेब



एकबारगी मैं तो पहचान ही नहीं पाया उन्हे ऽ
कहां वो अन्नपूर्णा भाभी का चिर-परिचित नितांत घरेलू व्यक्तित्व , और कहां आज उनका ये अति आधुनिक रूप ! चोटी से पांव तक वे बदली-बदली सी लग रही थीं ।
वे कस्बे के नये खुले इस फास्टफूड कॉर्नर से जिस व्यक्ति के साथ निकल रहीे थीं , वह सोसाइटी का कोई भला आदमी नहीं कहा जा सकता था । मुझे तो ऐसा अनुभव हुआ कि सिर्फ संग-साथ वाली बात नहीं , यहां कुछ दूसरा ही मामला है । क्योंकि वे बात-बेबात उस भले आदमी से सट-सट जा रहीं थीं , जैसे उसे पूरी तरह रिझाना चाहती हों !
आज उनने बनने संवरने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी थी । उनके चमक छोड़ते गोरे बदन पर ' सब कुछ दिखता है ' नुमा कपड़े सरसरा रहे थे । हल्की शिफॉन की मेंहदी कलर की साड़ी से मैच करता लो कट ब्लाउज , इसी रंग की बिन्दी और कलाई भर चूड़िया/ , पांव में मेंहदी कलर की ही चौड़े पट्टे की डिजाइनदार चप्पलें और ताज्जुब तो ये कि हाथ के पर्स का भी वहीं रंग । मैंने उन्हे गौर से देखा तो ठगा-सा खड़ा रह गया ।

मैं ऐसी जगह खड़ा था ,जहां से उन्हे निकलना था । मुझे यहां पाकर वे कोई संकोच अनुभव न करें ,इस लिये मैं वहां से हटा और पीसीओे बूथ की ओट में आ गया ।
यह संयोग ही था कि वे दोनों पीसीओ वूथ में प्रविष्ट हो गये । वे कह रहीं थी -'' आप गलत अर्थ मत लगाइये , किसी के यहां जाने से पहले आजकल फोन कर लेना ठीक रहता है । पता नहीं वे फुरसत में हैं या नहीं , या फिर उन्हे कहीें बाहर जाना हो , या ये भी हो सकता है कि वे बाहर ही चले गये हों ।
उनके साथ वाले व्यक्ति ने निरपेक्ष भाव से कहा था-'' अरे मैं कहां बुरा मान रहा हॅू । आप का कहना दुरूस्त है मैेडम ।''
वूथ में फोन डायल करने तक सन्नाटा रहा , फिर कुछ देर बाद आवाज गूंजी-'' हलो सिमरनपुर से ! पटेल साहब हैं क्या ? मैं मनीराम बोल रहा हूं । जरा बात कराइये उनसे ।''


'' हलो पटेल साहब, मैंने कहा था न , मैं आज मिलने आ रहा हूं । उन्हे साथ ला रहा हूं । ''
कुछ देर बाद वे लोग बाहर आये । मनीराम ने जेब से चाबी निकाल कर अपनी वाइक स्टार्ट की और पीछे देखने लगा । अन्नपूर्णा भाभी अपनेपन की भीतरी खुशी से मुस्कराती हुयी लपक के मनीराम के पीछे बैठ गयी । गियर डाल के मनीराम ने गाड़ी आगे वढ़ायी तो वे मनीराम पर लद सी गयीं ।
मैं निराश सा वहां से मुड़ा और अपने बीमा ऑफिस की ओर चल पड़ा ।
अगले दिन मेरा मन न माना तो मैं सुबह-सुबह उनके घर जा धमका ।
उनके सरकारी क्वार्टर के बाहर , बाउंण्ड्रीवाल पर पुरानी नाम-पट्टिका की जगह पीतल की नयी चमकदार नेम-प्लेट लग चुकी थी- भरत वर्मा , क्षेत्रीय अधिकारी ।
दरवाजा वर्माजी ने खोला , मुझे देख कर वे थोड़ा चौंके -'' क्यों साहब ,प्रीमियम डयू हो गया क्या?''
मैंने हमेशा बनियान-पैजामा पहने रहने वाले वर्माजी को अच्छी क्वालिटी के गाउन में सजा धजा देखा तो काफी बदलाव महसूस हुआ । लेकिन गौर किया तो मैंने उनके पैतालीस वर्षीय बदन को वैसा ही दुबला और कमजोर पाया । वही गरदन के पास से झांकती कालर
बोन, कपोलों पर मांस से ज्यादा हाड़ दर्शाता सूखा-सा चेहरा ओैर वे ही खपच्चीयों से लटके दुबले लम्बी अगुंलियों वाले हड़ियल हाथ । उन्हे आश्वस्त करता हुआ मैं बोला-'' नही वर्मा जी , प्रीमियम तो तीन महीने बाद है ! मैं तो बस यूं ही !''
'' कोई बात नहीं ,स्वागतम् ! आइये न !''
'मैं प्रसन्न मन से भीतर घुसा और सोफा की सिंगल सीट पर पसर के बैठ गया । वर्माजी मेरे ऐन सामने बैठे फिर मुस्कराते हुये बोले-'' और सुनाइये ,आपकी प्रोग्रेस कैेसी है ? अब तक 'डी एम क्लब' के मैम्बर बने या नही !''
'' हां , वो तो मैं दो बरस पहले ही बन गया था , अपनी ब्रांच का पहला करोड़पति ऐजेण्ट हूं मैं ।'' बताते हुये मैं पुलकित था , पर भीतर ही भीतर सोच रहा था कि पहले कभी किसी बात में रूचि न लेने वाले वर्माजी आज बड़े व्यवहारिक दिख रहे है । ऐसा क्यों है ?
तभी भीतर से अन्नूपूर्णा भाभी की ' कौन हैं जी ' मीठी आवाज आयी तो मेरा दिल उछल के हलक मे आ गया , मेरी निगाहें बैठक कक्ष के भीतरी दरवाजे पर टिक गयीं ।
सुआपंखी रंग की ज़मीन पर गहरे काले रंग की छींट वाला , सूती कपड़े का ढीला-ढाला गाऊन पहने, दोनों हाथ पीछे करके जूड़ा बांधती वे जब नमूदार हुयीं , तो मैं ठगा सा उन्हे देखता ही रह गया । इस अस्त-व्यस्त दशा में भी वे गजब की जम रहीं थीं ।
मुझे देखकर वे गहरे से मुस्करायीं और हाथ जोड़कर बोलीं-'' अरे गुप्ताजी आप आये हैं ! बड़ी उमर हैं आपकी ! मै कल ही इनसे कह रही थी, कि एक दिन आपसे मिलना है । आप न आते तो मैं आज ही आपके पास आ रही थी ।''
हमें बतियाता देख, यकायक वर्माजी चुपचाप खिसक गये ।
और अब जाने क्यों मैं खुद को सहज नहीं पा रहा था।
मुझे सोच में पड़ा देख वे तपाक से बोलीं-''अरे अमर, किस टैन्शन में फंसे हुये हो यार !''
'' कहां ? मैं किसी टैन्शन में नहीं हू/ ।'' कहता हुआ मैं मुस्कराने की व्यर्थ सी कोशिश करने लगा-''आपके बच्चे नही दिख रहे आज ! ''
'' वे दोनों स्कूल गये हैं '' कहते हुये वे मुझसे पूछने लगीं -''आपने बीमा एजेंसीं लेते वक्त , ग्राहक को डील करने का कोई खास कोर्स किया था क्या ?''
'' नहीं तो , बस पन्द्रह दिन का ओरियेंटेसन प्रोग्राम हुआ था ,मंडल कार्यालय में ! क्यों कोई खास बात ?'
मुझे लगा ,आज कोई ख़ास बात है ,इसी वजह से वे इतना अपनत्व दिखा रही हैं। वे इस तरह धाराप्रवाह ढंग से मुझसे बतियाने में जुट गयीं कि मैं उन्हे ठीक ढंग से देख ही नही पा रहा था। शायद मुझे इसी उलझन में डालने के लिये वे लगातार बोलती जा रही थीं।
वर्माजी चाय बहुत अच्छी बनाने लगे थे ।
बिस्कुट कुतरते समय वे गहरे आत्मविश्वास में डूबी थीं , मै उनके व्यवहार पर क्षण क्षण चकित था । बीमा की किश्त लेने मैं हर छह माह में इनके यहां आता रहा हू/ । बीच में नयी लांच की गयी पॉलिसी लेने के लिये उनको पटाने भी मैं अक्सर आ जाता था , पर वे इतनी खुलकर कभी नहीं मिली । प्राय: वर्माजी से भेंट होती थी , वे बीच में कभी-कभार बैठक में आती थीं तो नमस्कार करके तुरंत भीतर चली जाती थीं ।
मेरी निगाह उनके मोहक चेहरे औेर ढील- ढाले गाऊन में से उभरते उनके आकर्षक बदन को ताकने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही थी और अब अपने को ताके जाने का ज्ञान होने के बाद , वे मुझसे नजरें नही मिला रही थीं , छत को बेवजह घूर रहीं थी , औेर खुद को ठीक से ताकने का मौैका दे रही थीं ।
शाम को कार्यालय से लौटकर , मैं बाथ रूम से बाहर ही आया था कि पत्नी ने आंखें चमकाते हुये कहा-''जाओ , बैठक में एक स्मार्ट और सुंदर सी महिला आपसे मिलना चाहती है । ''
मै समझ गया कि वे ही होंगी । पांच मिनट में ही बाहर जाने वाले कपड़े पहन ,सेंट का छिड़काव कर मैं बैठक में था ।
'नमस्ते ! सॉरी ,मुझे जरा देर हो गयी ।'' आवाज में ढेर सी मुलामियत भर के मैं अदब से झुकते हुये बोला ।
'' नमस्ते , नमस्ते !'' वे चहकीं ।
'' अरे शुभा ! भाभी जी को चाय पिलाओ , औेर देखना ,जरा बिस्कुट वगैरह लेती आना ।'' मेैंने भीतर की ओर मुंह करके पत्नि से इल्तिज़ा की ।
'' अरे रहने दीजिये ,गुप्ता जी । मेरे रिसोर्स परसन आने वाले हैं ,उन्हे चाय पिला देना आप ।''
''रिसोर्स परसन माने ?''
''माने मुझे काम सिखाने वाले ! मेरे अपलाइनर !''
''आप कोई काम करने लगी हैं क्या इन दिनों !''
''आपको पता नहीं , मैंने पिछले महीने से एक बिजनेस शुरू किया है । आपको जानकारी होगी कि कुछ ऐसी मल्टी नेशनल कंपनीयां हैं , जो विज्ञापन में फिजूलखर्ची नहीं करती बल्कि अपना नेटवर्क डेवलप करके और अपने ऐजेंट नियुक्त करके सीधे अपनी वस्तुयें ग्राहकोें तक पहुंचाती हैं ।''
'' ह/ू !:'' मैंने गंभीर होते हुये उनकी बात में रूचि प्रदर्शित की ।
वे बोलीं-'' मैंने अभी तक ज्यादा काम नही किया , इसलिये मैं ज्यादा नही बता सकती , बस मेरे रिसोर्स परसन आ रहे है !ं वे आपको विस्तार से सारी बातें समझायेंगे ।''
शुभा चाय लेकर आयी तो उनने उठ कर उससे नमस्ते की ,और बोली -''आप भी बैठिये भाभी जी ,दरअसल मैं जिस काम से आयी हू/ ,वो आप दोनों पति-पत्नी मिलके ज्यादा अच्छी तरह से कर सकेंगे ।''
अब मेरी भौहों में बल पड गये थे ।
झिझकती सी शुभा बैठ तो गयी , पर उसकी निगाहें जमीन से चिपक गयी थीं । यकायक मुझे लगा कि शुभा तो मेरी इज्ज्त खराब करे दे रही हैं । इसे इतना संकोची नहीं होना चाहिये कि एक ओेैरत के सामने भी नयी दुल्हन सी शरमाये ।
हमारी चाय खत्म ही हुयी थी कि उनके वे रिसोर्स परसन आ गये । मैने उनका स्वागत किया और अपना परिचय दिया -'' मै अमर गुप्ता ,बीमा ऐजेंट ।''
'' मैं जम्बो कंपनी का एक छोटा सा वर्कर -सिल्वर एजेंट मनीराम !''
हम लोग हाथ मिला कर बैठने लगे तो शुभा बर्तन समेट कर बाहर जाने लगी , वर्मा भाभी ने उसे फिर रोका -'' भाभी आप रूकिये प्लीज !''
'' मै अभी आती हू/ ' कहती हुयी शुभा पीछा छुड़ा कर भागी , और भीतर पहुंच के बर्तन बजाकर मुझे अन्दर आने का इशारा करने लगी ।
मैं भीतर पहुंचा , तो वह झल्ला रही थी -'' कोन है ये सयानी मलन्दे बाई !''
हंसते हुये मैं बोला-'' तुम काहे जल रही हो ? बेचारी वो तुम्हे क्या सयानपन दिखा रही है ? वो अपना कोई प्रॉडक्ट बेचने आयी है ।''
'' हमे नहीं खरीदना उसकी कोई चीज । उससे कहो अपने खसम के साथ उठे औेर कहीं दूसरी जगह जाकर नैन मटक्का करे ! और जो मर्जी हो बेचे चाहे गिरवी रखे ।''
मै शरारतन मुस्कराया -'' अरे यार ,हजार दो हजार रूपये देकर इतनी कमसिन और ख़ूबसूरत औरत के साथ बैठने का मौका मिल जाये तो महंगा नही है ।''
शुभा की आंखें अंगार हो गयीं थीं , वह जलते स्वर में बोली -''कहे दे रही हूं , मैं अभी बैठक में जाकर उसे घर से बाहर निकाल दूंगी ।''
मुझे लगा कि खेल बिगड़ रहा है ,सो समझौते के स्वर में उससे कहा-''यार तुम भी बिना पढ़ी-लिखी औरतों की तरह बेकार की बातें करने लगती हो । वो क्या हमारी जेब में हाथ डाल के रूपया निकाल लेगी । अब कोई अपना माल दिखाये ,तो लो मत लो देखना तो चाहिये । अपने घर में हर सामान भरा पड़ा है, हमको क्या खरीदना है ? वो जो बतायेगी , देख लेते हैं बेचारी को निराश काहे करती हो ?''
मैं बैठक में जा कर बैठ गया और उनके रिसोर्स परसन से बात करने के बहाने मुस्कराते हुये पूछने लगा-'' आप कहां रहते हेै मनीराम जी !''
''मै घाटीपुरा में रहता हॅू ,उधर हाई स्कूल की पुरानी इमारत है
न ,उसके पीछे हमारा पुराना मकान है ।''
''अच्छा उधर ,जहां दरोगा संग्रामसिंह रहते हैं ।''
''आप उन्हे जानते हैं ! वे मेरे चाचा हैं ।''
अब हमे बात करने को एक विषय मिल गया था , सो हम पूरी दिलचस्पी के साथ दरोगा संग्रामसिंह और अपने हाई स्कूल के जमाने की बातें करने लगे थे । हालांकि यह विषय अन्नपूर्णा भाभी के लिये बोर कर सकता था , पर ऐसा नहीं दिख रहा था ,बल्कि वे बड़े प्रसन्न भाव से मनीरामजी को देखते हुये हमारी बातें अपनी आंखें फैला कर इस तरह सुनने लगीं ,मानों वे इस विषय से बहुत गहराई से जुड़ी हों ।
इसके बाद वे घर के अन्दर चली गईं और कुछ देर बाद वे लौटीं , तो उनके साथ आंखों में उलझन का भाव लिये शुभा भी थी ।
मनीराम जी ने उठकर मेरी श्रीमती जी का अभिवादन किया और बोला -'' भाभीजी मैं जम्बो कंपनी का एजेन्ट मनीराम हूं । माफ़ी चाहूंगा कि मैं आपके मूल्यवान समय में से दस मिनट ले रहा हूं । आपको अच्छा लगे तो आप मेरे बिजनैस-प्रपोजल पर विचार करें, और न जमे तो कोई बात नहीं ।''
अब उसकी आवाज में एक मखमली अंदाज आ गया था-'' सर कभी आपने सोचा कि आप दूसरों से कुछ हटकर यानी कि अलग हैं । दरअसल आपको अपनी योग्यता के अनुरूप जॉब नहीं मिला है । इसलिये आप अपने वर्तमान-व्यवसाय से पूरी तरह संतुष्ट नहीं होंगे मन में कहीं न कहीं यह चाह रहती होगी यानी कि एक सपना होगा आपका भी , कि आपके पास खूब सारा पैसा हो ! ़ बड़ा सा बंगला हो ! ़ शानदार कार हो! भाभी के पास ढेर सारे जेवर हों ! अापके बच्चे ऊंचे स्कूल में पढ़ने जायें ! आप लोग भी फॉरेन टूर पर जायें ! यानी कि आपके पास वे सारी सुख-सुविधायें हों जो एक आदमी के जीवन को चैन से गुजारने के लिए जरूरी हैं । लेकिन आप लोग मन मसोस के रह जाते है, क्योंकि आपके सामने वैकल्पिक रूप में अपनी इतनी बड़ी इच्छायें पूरी करने के लिए कोई साधन नहीं हैं । छोटी-मोटी एजेंसी या नौकरी से यह काम कभी पूरे नहीं होंगे-हैं
न ! एम आय राईट ?''
मैंने सहमति में सिर हिलाया-'' आप बिलकुल सही कह रहे है। ''
''अपने सपने पूरे करने के लिए आपको कम-से-कम पचास हजार रूपये महीना आमदनी चाहिये और पचास हजार रूपये के मुनाफे के लिए आप अगर कोई बिजनैस करेंगे तो उसमें पच्चीस लाख रूपये की पूंजी लगाना पड़ेगी ठीक है न ! अब पच्चीस लाख रूपये की रिस्क , फिर नौकर-चाकर, दुकान-गोदाम क़ित्ते सारे झंझट हैं ! लेकिन मैं आपको ऐसा बिजनैस बताने आया हूं , जो आप बिना पूंजी,और बिना रिस्क के शुरू कर सकते है, और जितनी मेहनत करेंगे ,उतना ज्यादा कमाऐंगे ।''
'' हमे बेचना क्या है ?''मुझे उलझन हो रही थी ।
'' आप तो सिर्फ नेटवर्किंग करेंगे जनाब , सीधे कुछ नहीं बेचेंगे ।'' मनीराम ने उसी मुस्तैदी के साथ कहा-'' अब वो जमाना नहीं रहा जब दुकान खोलके बैठना पडता था । आप जिन लोगों को डिस्ट्रीब्यूटर बनाऐंगे , वे जम्बो कंपनी के प्रॉडक्ट बेचेंगे ,और घर बैठे मुनाफा आपको मिलेगा ।''
'' लेकिन इसमें मेरी क्या भूमिका होगी ?'' शुभा अब तक मनीराम का जाल नहीं समझ पा रही थी ।
'' आपकी वजह से ही तो गुप्ताजी के डाउनलाइनर्स की फेमिली को इस बिजनैस और इन प्रॉडक्टस में विश्वास होगा । हमारी सोसायटी में ये माना जाता है कि आदमी तो ब्लफ दे सकता है, औरत नहीं ! सो आप इस मान्यता को फोर्स के साथ अमल में लायेंगी । इसका आपको व्यक्तिगत लाभ भी होगा, क्योंकि इस काम के लिए आप दोनों के एक साथ जाने-आने से एक बहुत बड़े सर्कल में आपकी सोशल-रिलेशनशिप बनेगी । जम्बो कंपनी की फेमिली बड़ी रिच है इसके लिये ऊंचे-ऊंचे आइ ए एस अफसर और बड़े-बड़े बिजनिस मैन तक काम करते हैं। उन लोगों के ऐक्सपीरियंस, बिजनैस के टिप्स, आर्ट-ऑफ-लिविंग और थिंकिग, आपकी लाइफ-स्टाइल बदल देगी ।''

मनीराम द्वारा दिखाये गये सपने का जादू हम लोगों पर असर करने लगा था ,हम दोनों उसके चेहरे को मंत्रमुग्ध-से होकर ताकने लगे थे ,यह अनुभव करके वर्माभाभी अब मनीराम की तरफ बड़े गर्व से देखने लगी ।
हठात् शुभा ने मनीराम से पूछा''आपके इन प्रॉडक्ट की कीमत क्या है ?''
''यह टुथ-पेस्ट एक सौ दो रूपये का है , और ये नाईटक्रीम एक सौ बीस रूपये की है।''
मैंने हस्तक्षेप किया-''वाय द वे , आपको नहीं लगता ये चीजें कुछ ज्यादा मंहगी हैं ? हमारी सोसायटी में कितने लोग ऐसे होगे ,जो ये चीजें अफोर्ड कर सकेंगे !''
'' हां , थोड़ी सी कॉस्टली ! वट एक्चुअली , जनरल प्रॉडक्ट की तुलना में हमारे प्रॉडक्ट तीन गुना ज्यादा सेवा देते हैं । एक बार उपयोग करने पर कंज्यूमर सैटिसफाय हो जाता है। फॉर एग्जामपल देखें ,जनरल पेस्ट की एक इंच लम्बी टयूब जितना काम करती है, इस पेस्ट का चने बराबर हिस्सा ही उससे ज्यादा काम कर देता है ़ । ़मतलब ये कि सही मायने में ये चीजें महगी नहीं हैं ।''

'' आप कह रहे हैे कि आपका बनाया हुआ चना बराबर पेस्ट वो काम कर जाता है जो बाजार में मिलने वाले जनरल पेस्ट का एक इंच लम्बा टुकड़ा काम नही कर पाता । इसका मतलब ये भी तो हो सकता है कि इस पेस्ट में ज्यादा कैेमिकल मिला दिये जाते हों ,जो शरीर के लिये नुकसानदायक हों ।'' मेरा मन लगातार प्रश्न पैेदा कर रहा था औेर मेरी जुबान उन्हे मनीराम की ओर मिसाइलों की तरह दाग रही थी।
'' गुप्ता जी , हमारे यहां कंज्यूमर एवेयरनेस अब भी उतनी ज्यादा नही है ,जितनी अमेरिका या दूसरे यूरोपीय देशों में है । यह माल भी यूरोप में बनाया गया है , इसलिये मेैं दावा करता हूं कि उसमें मानव शरीर के लिये नुकसान देने वाला कोई रसायन शामिल नही ंहोता ।''
'' इसकी शुरूआत कैसे करना पड़ती है ।'' मुझे लगा कि प्रश्नों के बजाय मनीराम के सामने सीधा समर्पण कर दिया जाये तो शायद इस बहस का अंत हो जायेगा ।
'' हमारा एक किट चार हजार छ: सौ रूपये का है , इसमें हमारा हर प्रॉडक्ट छोटी मात्रा में ं शामिल है'' मनीराम ने गंभीरता से बताया ।
''तो ठीक है , आप एक पैकेट हमारे यहां रख जाइये ।'' शुभा बिना हिचक बोली तो मै चौंक गया । उसका इतनी जल्दी इस योजना से सहमत होना मुझे बिस्मित कर रहा था।
'' देखिये ,पहले मैं आपको गाइड-लाइन समझा रहा हू/ ! आपको सबसे पहले घर मेंं बैठ कर एक सूची बना लेना हैे, जिसमें आप उन लोगों के नाम लिखेंगे जिनसे आपका धंधा हो सकता है । इस सूची में आप फै्रेण्ड के नाम लिखेंगे ।''
'' फ्रैण्ड यानि की दोस्त लोग ! ''
मनीराम मुस्कराया -'' फ्रैण्ड मायने दोस्त भी, पर हमारे इस फ्रैण्ड में अंग्रेजी के फै्रेण्ड की स्पिलिंग का हर हिज्जा होता हैे । फै्रण्ड के पूरे हिज्जे हैं -
ित प म द क इसके हर हिज्जे से आपके इर्द गिर्द का हर वो आदमी आ जाता है, जो किसी न किसी कारण से आपसे जुड़ा हुआ है । एफ मायने फै्रेण्ड एंड फेमिली -दोस्त और परिवार के लोग । आर का अर्थ है रिलेटिव्स मायने रिश्तेदार । आय मायने इनर परसन , आपके वे परिचित जो आपके अति निकट है । इ मायने इंपलायी यानी कि दूसरे विभाग के कर्मचारी गण । एन मायने नेवर यानी आपके पड़ौसी , और डी याने कि आपके डिपार्टमेंटल कुलीग्स । इस तरह आप यदि आपने आसपास के सब लोगों की सूची बना लेंगे, तो आपके हाथ में उन संभावित लोगाें के नाम होंगे, जो कि आपके काम में मददगार हो सकते हैं । इसमें सें तमाम लोग ऐसे होंगे जो वितरक बन सकते हैं , और तमाम लोग ऐसे हो सकते हैे , जो सिर्फ आपसे सामान लेकर यूज करेंगे।''

''जाओ शुभा , चाय ले आओ , आगे की चर्चा हम चाय के बाद करेंगे । मनीराम जी ने हमको मंत्र पढ़ कर मोहित सा कर दिया है , शायद चाय उस जादू को तोड़ेगी ।'' मेैने शुभा से चिरौरी की , तो वह प्रसन्न मनसे उठी और भीतर चली गयी । अन्नपूर्णा भाभी भी झट से उठीं औेर वे भी उसके पीछे-पीछे भीतर जा पहुंची ।
मनीराम ने बेैग में से निकाल कर एक कैसेट निकाली और कहा
-'' इसे सुनकर आपको ग्राहक की डील करने की टेकनिक ही नहीं ,इस तरह का काम करनेवाले उन तमाम लोगों के विचार सुनने को मिलेंगे , पहले जिनमें से हर कोई या तो छोटा-मोटा दुकानदार था ,या फिर छोटी मोटी नौकरी करके अपना गुजारा किया करता था ,औेर वे सब इस कंपनी को ज्वाइन करने के बाद आज हर महीने लाखों में खेल रहे हैं ।''
फिर उसने वह सिस्टम समझाया जिसे अपना के हम भी लाखों में खेल सकते थे । उसने बताया कि हमको पहले ऐसे आठ लोगों को टारगेट बना के काम शुरू करना है ,जो एक्टिव हों ओैर उनमें से हरेक आठ-आठ वितरक बना सके ।
मनीराम की बातें बड़ी आकर्षक थीं , उनमें मोहक तथ्य थे , ओैर प्रामाणिक आंकड़े भी , पर वह ऐसा प्लान था जिसे हजारों-लाखों में शायद कोई एक चल पाता होगा ।
उस दिन हम लोगों ने विचार करने का समय मांगा और किसी तरह उन दोनों से मुक्ति पायी ।
आठ दिन बात वर्मा भाभी एकाएक मेरे ऑफिस में आ धमकी । मैं उस दिन अपने डेवलपमेंट ऑफीसर के पास बैठा था ।
उन्हे बैठा कर मेैंने मुस्कराते हुये उनसे पूछा-''कहिये भाभी जी, क्या हुकुम है ?''
'' अपन लोग बाहर चल कर चाय पियें तो कैसा रहे !''
मैं तपाक से तेैयार हो गया । गाड़ी स्टार्ट हुयी तो अन्नपूर्णा भाभी फुर्ती से लपकीं और एक अभ्यस्त की तरह इत्मीनान से मेरे पीछे बैठ गयी । अब उनका चेहरा मेरे कान के पास था , इतने पास , कि मुझे उनके बालो में लगे सुगंधित तेल औेर चेहरे पर लगायी गयी क्रीम की खुशबू मेरे नासा पुूटों में प्रवेश कर रही थी । उनके दांये हाथ ने मेरी कमर के गिर्द घेरा कसा तो मुझे लगा कि मेरीे वाइक जमीन पर नहीं चल रही , आहिस्ता से जमीन से ऊपर उठी हेै औेर हम आसमान में कुंलांचे भरने लगे हैं ।
हर्बल चाय पीते हुए भाभी ने बताया कि दिल्ली में जम्बो कंपनी की एक दिवसीय सेमिनार हैे ,इसमें जिस वितरक को जाना हो वो सोलह सौ रूपये का टिकट लेकर शामिल हो सकता है । पता लगा कि वे खुद के साथ मेरा भी टिकट ले आयी हेै । मै ना नुकर करने वाला था कि वे बोलीं -'' दरअसल मनीराम जी के घर में गमी हो गयी हैे ,सो वे नहीे जा पा रहे, इस कारण आप से इसरार करने आयी हूं कि आप मेरे साथ चलें ।''
अब भला मैं मना भी कैसे कर सकता था !
उन्हे विदा कर मैं कार्यालय में लौटा ,तो मेरे मस्तिष्क में पुराना मुहावरा गूंज रहा था-अंधे के हाथ बटेर ।
मैंने अपनी जिन्दगी में अब तक बटेर नहीं देखी थी, आंख मूंद के मैं बटेर की कल्पना करने लगा। जब भी मैं अपने स्मृति-फलक पर बटेर की छबि सृजित करने की कोशिश करता, मुझे हर बार वर्मा भाभी की सूरत याद आती तो मैं अनाम और मीठी सी अनुभूतियों से भर उठता ।
घर पहुंचा , तो शुभा चाय पकड़ाते हुये बड़े प्रसन्न मन से सुना रही थी-'' पता हेै , आज अपनी चिंकी की टीचर कुलकर्णी मैडम आयी थीं । पैरेन्ट-टीचर मीटिंग में तो वे प्राय: मिलती रहती हेैं ? पर इस बात उनके आने की वजह वहीं जम्बो कंपनी थी ।''
'' जम्बो कंपनी ?'' अब चौंकने की बारी मेरी थी ।
'' हां !'' मन्द-मन्द मुस्काती शुभा रहस्य खोलने के अन्दाज में बोली-'' आजकल वे भी जम्बो कम्पनी का काम कर रही हैं । बोल रहीं थीं , कि इस काम से उन्हे हर महीने पांच हजार से ज्यादा अर्निंग हो जाती है ।''
''हूं ! !'' एक गंभीर हुंकारा छोड़ कर मैंने उसे प्रोत्साहित किया ।
''सुनो ! ! अपन लोग इस काम को काहे को लटका रहे हैं ? चलो अपन भी ये काम शुरू कर दें ।'' उसके स्वर में बड़ा आत्मीय आग्रह झांक रहा था ।
मैंने जम्बो कंपनी के काम से ही वर्मा भाभी के साथ दिल्ली जाने की सूचना दी तो यकायक शुभा जिद करने लगी , कि वह भी दिल्ली जाना चाहती हेै । मेरी सारी उमंग समाप्त हो गयी । लेकिन दिल्ली तो जाना ही पड़ा ।
अलबत्ता, दिल्ली यात्रा में मुझे वो आनंद नहीं आया ,जेैसी कि मैं कल्पना कर रहा था । हां ,ग्राहक को डील करने की कला, नये प्रॉडक्टस का परिचय औेर नयी स्कीमों के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिला । कुछ बातें तो ऐसी भी सीखने को मिली जो बीमा एंजेंट होने के नाते मेरे जॉब के लिये लाभ दायक हो सकती थी ।
एक दिन रात आठ बजे मेैं अपने एक पॉलिसी होल्डर से प्रीमियम लेने वर्माजी के मोहल्ले की तरफ जा निकला था ,और वहां से लौट ही रहा था कि अन्नपूर्णा भाभी से मिलने का मन हो आया । वर्माजी दरवाजे खोल कर बैठे थे और मेरी गाड़ी को उनने मनीराम की गाड़ी समझा ।
पहले तो मायूस हुये फिर मुझे देख कर वे मुस्कराये । मेैने भाभी के बारे में पूछा तो उनने बताया कि वे सुबह से ही मनीराम के साथ गयी हैे ,और अब तक लौटी नहीं हैे ।
मैने दुखी से स्वर में उनसे कहा -'' इस तरह बिजनेस के लिए भाभी के प्राय: घर से बाहर रहने पर आपको दिक्कत तो होती होगी । ''
''अब भई तरक्की करना है, तो हमको कुछ न कुछ तो त्याग करना ही पडेगा न !''
''फिर भी घर के काम ?''
''घर के काम तो कैसे ही हो जाते हैें अमर भैया ! इत्ती सी बात के लिए उन्हे घर में बन्द रखना उचित नहीं । मैं बेसिकली महिलाओ की स्वतंत्रता का समर्थक हूं । मेरे मतानुसार औेरतों को रसोईघर से बाहर निकल कर काम धाम सीखना चाहिये। इससे उनका इंडीजुअल डेवलपमैंट होता हेै, अभिव्यक्ति का मौका मिलता है ,और घर के साथ साथ स्वयं वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाती हैं ।''
मन ही मन मैंने कहा -' पिछले साल , जब भाभी को बीमा-ऐजेंट बनाने का प्रस्ताव रखा था तो आप कहते थे कि औरतों की सही जगह घर में है, उन्हे घर में ही रहना चाहिये ! और अगर जॉब भी करना है तो किसी कॉन्वेंट में टीचरशिप वगैरह मिल जाये तो वह कर लेंना ठीक रहता है ।'
पर प्रत्यक्षत: मैं यही बोला-'' हां , अभिव्यक्ति का मौका और आर्थिक स्वतंत्रता तो मिलती है !''
'' कहिये आप कैसे पधारे !'' वर्माजी ने सहसा मुझे सकते की स्थिति में डाल दिया था ।
''मैं दरअसल , '' क़हते हुये कुछ अटकने लगा तो यकायक याद आया और मैंने बेधड़क उनसे कह डाला -'' उस दिन भाभी ने कहा था कि जम्बो कंपनी का रीजनल-स्टोर आपके घर में हैं ,सो मैं टुथ-पेस्ट और नाईटक्रीम लेने आया था !''
मेरा इतना कहना था कि अब तक उदास और अलसाये से बैठे वर्माजी में यकायक फुर्ती आ गयी , वे उठे ओेैर बैठक में अस्त-व्यस्त रखे कार्टूनों में मेरी मांगी गयी चीजें तलाश करने लगे ।
मैंने उड़ती नजर से देखा कि वर्माजी के घर में बैठक ही नही, स्टोर, किचेन और यहां तक कि बेडरूम में भी यानी कि हर जगह, अन्नपूर्णा भाभी की कंपनी की चीजेें बिखरी पड़ी थीं । लग रहा था कि इस नयी तरक्की यानी भूमण्डलीकरण के इस नये दोर में बहुत कुछ बदला है । ज़िस चीज के लिए जो जगह निश्चित की गयी हैे , अब वो केवल वहीं नही मिलती , सब जगह मिल जाती है ! चीजें तेजी से अपनी जगह बदल रही हैं ! बाजार केवल बाजार तक सीमित नहीें रह गया ! अब वर्माजी जैेसे कई घरों में बाजार स्वयं घुस आया हेै-अपने पूरे संस्कार, आचरण , आदतों और बुराइयोेंं के साथ !
घर लौटते वक्त मैं मन ही मन तरक्की के लाभ- हानि का बही खाता तैयार कर रहा था, जिसमें मेंै और मेरी पत्नी शुभा भी शायद अपनी प्रविष्टि कराने को आतुर थे ।

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राजनारायण बोहरे
एल आय जी - 19,हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी
दतिया ( मध्यप्रदेश) 475661