रविवार, 14 मार्च 2010

समीक्षा






पुस्तक समीक्षा-
रामभरोसे मिश्र
मुखबिर  चम्बल घाटी का खौफनाक सच

‘चम्बल और डाकू ’ साहित्य के लिए बड़ा पुराना सा सब्जेक्ट है, भले ही उसके आयाम बदल गये हों। चम्बल घाटी के लेखकों की त्रासदी यह है कि इन्हे ंइसी यथार्थ के साथ रहना-जीवन गुजारना है। यूं तो परिवेष व प्रामाणिकता को लेकर हिन्दी कथासाहित्य हमेषा से चर्चा में रहा । अगर लेखक अपने परिवेष की कहानियां नहीं लिखता तो यह माना जाता है कि उसे अपने ही घर के बारे में सहीसही जानकारी नहीं है, और अगर अपने ही अंचल की कथाऐं लिखता रहे तो उसे संकीर्ण सोच का रचनाकार माना जाता है, लेकिन चम्बल के अंचल में रहने वाले लेखकों ने बाकी कभी-कभार अपने इलाके की कथा लिखी तो यथार्थ की इस तरह परत-दर-परत पड़ताल की है कि वह करवट लेे रहे पूरे भारतीय समाज की कथा बन गई है। इस तरह भी कहा जा सकता है कि डकैत समस्या की ठीक-ठीक पहचान कराने में यहां के लेखकों ने चम्बल से बाहर के पाठकों को सहयोग किया है। इस दृश्टि से महेेष कटारे की कहानी ‘पार’ ए0असफल  की ‘ लैफ्ट हैण्डर ’ राजनारायण बोहरे की ‘ मुठभेड़’ प्रमोद भार्गव की ‘मुखबिर’ पुन्नीसिंह की ‘इलाके की सबसे कीमती औरत’ के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं।
कहानी में इतनी फुरसत नहीं होती कि कथाकार अपने सारे मंतव्य और कथ्य के सारे परिप्रेक्ष्य प्रकट कर सके, इस कारण लेखक उपन्यास का फार्म चुनता है। इस संदर्भ में राजनारायण बोहरे के उपन्यास मुखबिर पर चर्चा की जासकती है जिसे हिन्दी के एक ख्यात आलोचक ने चम्बल घाटी का खौफनाक सच कह कर सराहना की है। फ्लैषबैक के षिल्प में लिखी गई यह कहानी गिरराज नाम का पात्र अपनी याद के कैनवास पर उकेरता है जिसमें वह अपने अपहरण से लेकर फिरौती दे छूटने के प्रसंग और पुलिस द्वारा जबरन अपना मुखबिर बना कर उन्ही बीहड़ों में फिर से भटकने की घटनाएं सम्मिलित करता है। सारा उपन्यास दिलचस्प “ौली में लिखा गया है।
मूल कथा गिरराज और लल्ला नामक उन युवकों की है जिन्हे पहले डकैत पकड़ते हैं और बाद मे ंपुलिस। दोनों जगह आम आदमी का कोई सम्मान नहीं, उसकी कोइ्र्र पहचान नहीं, बस जाति ही उसकी पहचान है। गिरराज और लल्ला से जुड़े डाकू सरदार कृपाराम घोसी की कहानी भी कई टुकड़ों में बड़ी नफासत से लेखक ने पाठकों तक पहुंचाई है। एक सवारी बस से छह विषेश वर्ण के अपहृत लोगों के साथ डाकुओं का लोमहर्शक व्यवहार पाठक को भीतर तक हिला जाता है, खास तौर पर केतकी नामक पकड़ में आई उस अबोध युवती के साथ किया गया बागियांे का अष्लील व्यवहार तो पाठक को नये रोश से भर देता है। कथा का क्लाइमैक्स केतकी पर ही जाकर स्थिर होता हैं जिसे न उसके ससुराल वाले वापस लेने आते हैं न मायके वाले। गोपालक बिरादरी से जुड़े कारसदेव की लोककथा भी इस उपन्यास मंे सायास लाई गई दिखती है, क्योंकि इस कथा के बड़े गहरे आषय हैं। यह कथा एक नमूना मात्र है। आज उठ खड़ी हुई हर “ाोशित बिरादरी के अपने नायक खेाज लिए गए हैं, जो देव अवतार हैं जो अपने जीवन में गहरा “ाोशण झेलकर अंत में ताकतवर योद्धा के रूप में उदित होते हैं औेर अपने दुष्मनों को धूल मे ंमिला कर अपना राज कायम करते हैं।
उपन्यास से गुजरने पर कई तथ्य प्रकट होते हैं। .... कुछ बरसों में जिस तरह से हमारे समाज में हासिये के लोग केन्द्र में उभर कर आये हैं ठीक उसी तरह चम्बल घाटी में भी पिछड़ा तबका यकायक हथियार उठाकर सामने आया है। वे लोग जिन्होने सदा से दूसरों के लिए गोली चलाई अब अपने लिए बंदूुक उठा रहे हैं, और यह सिलसिला लगभग उसी समय आरंभ हुआ जब फूलन ने बीहड़ की पगडंडी पकड़ी थी। फूलन का यह प्रस्थान न केवल पिछड़े वर्ग का वरन् स्त्री वर्ग का भी “ाक्ति व सत्ता की ओर प्रस्थान था, जिसके परिणाम राजनीति से लेकर बीहड़ तक दिखे और पिछड़ा व स्त्री वर्ग सत्ता पर काबिज हुआ। फूलन भी तो बाद में सत्ता तक पहुंची। इस वर्ग का उदय चम्बल नदी की करारी धार के आस पास रहने वाले लोगों में बदलाव लाया है, जिसे बड़ी गहराई से मुखबिर उपन्यास पकड़ता है।
उपन्यास में आये पात्र कई जगह यथार्थ जगत के पात्र महसूस होते हैं, और यह गलत भी नहीं क्योंकि लेखक अपनी कथा के चरित्र आसपास के जीते जागते लोगों को देख कर ही खड़ा करता है।
इस उपन्यास के संवाद किताबी डायलॉग नहीं लगते क्योंकि चम्बल क्षेत्र में बोली जाने वाली भदावरी और सिकरवारी बोली में कहे गये ये संवाद जहां पात्र की मनोदषा और उसके संस्कारों को प्रकट करते हैं वहींं कहानी को गति और विस्तार भी देते है। इन संवादों में गालियां भी हैं और धमकियां भी। पुलिसिया रौब भी है और आम जन की पीड़ा भी। भाशा की नजर से सबसे ज्यादा अच्छे लगते है इस उपन्यास में जगह जगह पर आये चम्बल के जनकवि सीताकिषोर खरे के दोहे। ये दोहे इस समाज का पूरा व्याख्याकोष बन कर सामने आते हेंै।
आज के डाकू बीहड़ों मे तरसते हुए जीवन नहीं बिताना चाहते बल्कि अखबारों की सुर्खिया बन कर जीना चाहते हैं, इसका प्रमाण कुछ दिन पहले तक टेलीविजन के पत्रकारों के सामने निर्भय हो कर इंटरव्यू देता वह डाकू है जो बेधड़क हो कर बेहूदे तरीके से अपनी हरकतें और धमकियों को पब्लिक इन्फारमेषन सिस्टम पर प्रसारित करने को आकुल रहता था, बाद में जिसे ए टी एस ने महज दो घंटे के भीतर मार गिराया था। इस उपन्यास के डाकू भी अपना नाम और कारनामे छपाने को उत्सुक रहते हैं फिर निरक्षर होने के बाद भी अपनी पकड़ से वे खबरें पढ़वा कर सुनते हैं।
इस पूरे तंत्र में मुखबिरों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है। मुखबिर यानि गुप्त व प्रमाणिक खबर देने वाला जासूस, भेदिया, गुप्तचर। प्रकट रूप से लड़ते हुए भले ही हमे पुलिस और डाकू दिखें लेकिन इसकी भूमिका लिखते हैं मुखबिर। हां, चम्बल के डाकू तंत्र में मुखबिर की बड़ी भूमिका है जिसे इस उपन्यास में खूबसूरती से उठाया गया है। मन से और बेमन से चम्बल के लोग मुखबिरी करने को मजबूर हैं। मुखबिर के एक ओर कुंआ है दूसरी ओर खाई। कभी कभार उसे धन भी मिलता है। लेखक तो उस हर व्यक्ति को मुखबिर कहता है जो दुष्मन की खबरें लाकर सुनाये या दुष्मन की कमजोरियों को खोजकर बतायें। आज यदि कोई डाकू निडर है तो मुखबिर की बदौलत और यदि कोई्र अफसर एनकांउटंर स्पेषलिस्ट है तो मुखबिर की ही बदौलत।
लम्बे समय तक किए गऐ होमवर्क और खोज यात्राओं के बाद लिखे गये इस उपन्यास के केन्द्र में अपराधी नही अपराध है। राजनारायण बोहरे ने इस कथा में आई घटनाओं को सही व गलत के आसान खानों में न रख कर सीधा और सरल तरीके से अपने कथ्य का हिस्सा बनाया है। जैसा कि इसके ब्लर्ब पर के0बी0एल0पांडेय की टिप्पणी से जाहिर होता है।
संक्षेप में यह उपन्यास चम्बल घाटी में चहलकदमी करते बागियो की ही नहीं यहां के समाज की, बिरादरियांे की, वर्गों की , सरकारी अमले की, यहां के छुटभैये नेताओ की कथा है जिसे चम्बल में दहकते जातिवादी राजनीति और अपराध के आख्यान का आइना कहा जा सकता है।
---------
राधाविहार, निकट स्टेडियम, दतिया म0प्र0
पुस्तक- मुखबिर (उपन्यास)
प्रकाषक-प्रकाषन संस्थान दिल्ली
लेखक-राजनारायण बोहरे

कहानी

क्हानी-
राजनारायण बोहरे डूबते जलयान


चूल्हे में लगी लकडी बहुत धुॅधुआ रही थी । सिलेण्डर कोने में लुडका पडा था शहर में गैस की किल्लत होने से हमेशा पन्द्रह दिन में नम्बर आता है , इसीलिए परेशानी है । तब तक मिट्टी के चूल्हे और लकडी - कण्डा से जूझती रहेगी वह । धुऑ असह्य हो उठा तो उसने अधकटी सब्जी की थाली हाथ में ली और किचन से बाहर चली आई । नौ बजने को हैं, साढ़े नौ पर रश्मि कॉलेज जाऐगी । उसे नाश्ता तैयार चाहिए । चूल्हा जले तो वह जल्दी से पोहा तैयार करे ।
खुल्ल खुल्ल खुल्ल !
बाहर के कमरे से फिर खॅासने की आवाज आई । आज खॅासी बाबूजी को ज्यादा ही परेशान कर रही है । कल मना किया था कि फ्रिज का पानी मत पियो, लेकिन मानते कब हैं किसी की ! अब्बल दर्जे के जिद्दी हैं शुरु से । बीडी पीना भी नहीं छोडेगें , और जब तकलीफ भोगेंगे , तो खुद के अलावा दुसरों को भी कष्ट पहुॅचाएॅगे । अब भला कौन परमहसं बना रह सकता है एसी त्रासद स्थिति में , जब पैसठ साला घर का बुजुर्ग खॅासी के मारे , बेहाल कमजोर शरीर , अशक्त खटिया पर लेटा हुआ पीडा झेल रहा हो । बाबूजी लकवे के शिकार हैं ,इसलिए अपने - भर तो उठकर बैठ भी नहीं सकते । जब खॅासी चलती है तो दिवा केा ही सभॅालना पडता हैैैैैैैैैैेै । वह कन्धेां से पकडकर उठाती है ओैर सीने को सहलाती है तभी थोडी राहत मिलती है ।
बाबूजी के अलावा दिवा को बाजार का काम भी देखना होता हैैे उसकी ननद रश्मि तो दिन रात अपनी एम ़ए ़मनोविज्ञान की किताबों में खोई रहती है । घर की हर छोटी बडी चीज के लिए उसे ही खटना पडता हैे सास आज जिन्दा होती तो कुछ हाथ बॅटाती लेकिन तीन वर्ष पहले वे सुहागिन बनी , सजी -धजी, मॉग भर सिन्दूर , हाथ भर चूडी और पॉवो में तीन तीन बिछिया पहने स्वर्ग सिधारीं हैं । सो घर में दिवा अकेली है । उसका पति बिपिन छŸाीसगढ में डाक्टर हैं । कभी कभार महीने दो महीने में उसे छुट्टी मिलती है तो आ पाता है । यूॅ विपिन के बडे भाई नवीन यहीं हैैैैैैैैैे इसी शहर में नहर विभाग के दफ्तर में यू़ ़डी ़सी ़ है । अच्छी खासी कमाई है । चाहें तो बाबूजी ओर रश्मि को अपने साथ रख सकते हैं , लेकिन उन्हें तो सगों में सडाँध आती है ।वे इन सबसे नाराज हैं । दूर की रिस्ते की एक बूढी विधवा बुआ को साथ रख छोडा है। रश्मि ने बताया था उसे विपिन अपना कोर्स पूरा कर रहा था उन दिनों और एम ़बी ़बी़ एस ़ के तीसरे वर्ष में था । नवीन की पत्नी रूपा के माध्यम से आया रिस्ता, किसी कारणवश बाबूजी ने नहीं स्वीकारा तो नवीन भाई चिडकर अलग हो गये थे , और लोटकर विपिन ने जरा सी बात की हुई खट-पट पर अपना सिर पीट लिया था अभी तो उसे दो साल और पढना था । उसके लाख मनाने पर भी नवीन माने कहाँ थे । खेर किसी तरह एम ़बी ़बी ़एस ़करके विपिन ने इंटर्नसिप शुरू की थी और एक-एक दिन करके समय गुजारा था बाबूजी की पेंसन पर इतना भार डालना उसे मुनासिब नहीं लगता था, लेकिन मजबूरी थी , वह कर भी क्या सकता था । जैसे तैसे करके विपिन ने डिग्री हासिल की फिर उसे घर लोटकर दैनिक चिन्ताओं से उसे दो-चार होना पडा था । शहर के एक प्राइवेट चिकित्सक डॉ ़ शर्मा के यहॉ बडी अनूनय-विनय करने के बाद वह सहायक बन सका था । फिर वहाँ से उसने कई जगह इन्टरव्यू दिये थे । पूरे तीन वर्ष बीते ,पर आशा शेष थी अन्ततः सरकारी नौकरी में चुन लिया गया था वह मेहनत सफल रही उसकी । छŸाीसगढ के धुर जंगली इलाके की पोस्टिंग मिलने पर बाबूजी चिन्तित हुए, मगर दूरगामी परिणाम साचकर नोकरी पर जाना ही श्रेयस्कर समझा था । बीच में एक बार वह नवीन के यहॉ भी गया , और अपनी अनुपस्थिति में घर की फिक्र करने की बात कही , तो नवीन भाई, बाबूजी केेेे प्रति अनाप-शनाप बोलने लगे थे । खिन्न मन से विपिन डयूटी पर चला गया था । एक दिन टेलीग्राम मिलने पर वापस आया , तो पता चला कि बाबूजी पर फालिज गिरा है । बिल्कुल लुंज -पुजं होकर बाबूजी खटिया पर लेटे मिले थे । विपिन तो घबरा ही गया था आनन -फानन में इन्दोर ले जाकर विपिन ने बडे अस्पताल में इलाज आरम्भ किया था । एक महीना बाबूजी वहाँ भरती रहे । इलाज से फर्क पडा । लकवागस्त बायाँ हाथ और पेर सक्र्रिय हुआ । मुँह से अस्फुट से वाक्य निकलने लगे । घर लोटे तो दो महीने तक विपिन ने इन्दोर से दवाऐं लाकर इलाज कराया और जब बाबूजी थोडा चलने -फिरने की स्थिति में हुए तो उसने नोकरी की सुध ली थी जबलपुर वाली दीदी व जीजाजी को जल्द-से -जल्द विपिन की शादी निपटाने की फिक्र लग गई थी और रिश्ता तय करने उनके ताबडतोड दौरेेेेेे शुरू हो गए थे । उन दिनों दिवा ने एम ़ए ़फाइनल दर्शनशास्त्र की परीक्षा दी थी ,और रिजल्ट का इन्तजार कर रही थी ,कि एक दिन विपिन और उसके दीदी- जीजाजीे उसे देखने अचानक आ पहँचे । दिवा का मन उन दिनों विकट अन्तर्द्वन्द में फसा था, इसलिए उसे सब अचानक सा -लगा था । दिवा तब शरीर और मन के तर्क -युद्व के बीच निरुपाय -सी बैठी थी । बिपिन ने उसे एक नजर देखा और तुरन्त ही पसन्द कर लिया । वह थी भी एसी ही । भला कोन न मर मिटता उसके सोन्दर्य पर ! डैडी और मम्मी को विपिन अच्छा लगा था । कुछ देर विपिन की घरेर्लू आिर्थक प्रष्ठभूमि पर उन दोनों के बीच विचार विमर्श हुआ, और अन्ततः डेडी ने रिश्ता स्वीकार होने की घोषणा कर दी थी । दिवा का मैान उसकी सहमति मान ली गई थी ।
कितनी दफा याद आया है दिवा को अपना वह अन्तर्द्वन्द्व और मन की अबूझ गलियों का मकडजाल भी कितना चकित करता रहा है उसे । स्म्रति की जिस गली से होकर विपिन से उसकी शादी की बात याद आती है, उसके ही पास की गली में बैठा कोई और जैसे उस अन्तर्द्वन्द्व को कौंच कौंच कर जगाता है । उसी ने तो पैदा किया था -वह द्वन्द्व, वह भ्रम , वह अस्थिरता औा नैरास्य ! विपिन और उसके जीजाजी शादी की तारीख तय करके ही लोटे थे । रस्म के मुताबिक दिवा को बिपिन की दीदी ने साडी ब्लाउज के साथ सोने की एक चेन और मिठाई भेंट की थी । तब मम्मी ने दीदी के पैैैेर छुआए थे उससे । वह यन्त्रवत सब कुछ करती रही थी शादी में जब लोग इकट्ठे हुए । खानदान के सभी लोग आये, पर नवीन नहीं आया । विपिन ने बताया था कि वह खुद उन सब को लेने गया था, मगर रुपा भाभी के मर्मभेदी व्यगं वाणों से आहत होकर अन्ततः निराश ही लोटा । अपनी बीमारी के कारण बाबूजी तो नहीं जा पाये थे - जबलपूर वाले जीजाजी ने ही पिता की सारी रस्में पूरी की थी दिवा ने अभी तक पिता का लाड देखा था और देखी थी अपने मन के महत्वाकांक्षी परिन्दे की असीम उडान । यूनिवर्सिटी की क्रिकेट टीम में वह विकेट कीपर के रूप में शामिल रहती थी और इसी कारण उसने प्रदेश ही नहीं देश के कई शहर अपनी टीम के साथ घूम लिए थे कॉलेज की क्रीम थी वह । शहर की सर्वाधिक मॉड लडकियॉ उसे कम्पनी देने के लिए तत्पर रहा करतीं । इसीलिए अपने आप पर बडा नाज था उसे । ससुराल पहुँच कर वह एकाएक घबरा ही गई ,क्यों कि हर स्तर पर असमानता दिखी, उसके और विपिन के घर में रहन- सहन से लेकर मकान तक और खान- पान से लेकर संस्कारों तक । एक देहाती घर था वह । लगता था जैसे आसमान की उँचाइयों से पकडकर किसी धवल हसिंनी को गन्दे नाले में पटक दिया हो । अपने डैडी के नौकर -चाकरों से भरे घर में उसे कभी एक गिलास पानी भी अपने हाथ से नहीं पीना पडा था । जबकि यहॉ हर काम उसे खुद करना था, अपना भी और परिजनों का भी । अपनी नियत पर तडप उठी थीं वह और पहली रात देर तक रोती रही थी । बाद में जितने दिन रही , अन्यमनस्क ही बनी रही । शादी के चोथे दिन ही रसोई की राह दिखा दी गई जहॉ प्रविष्ट होते समय वह अपनी मम्मी की बेहताशा याद करती रही थी ,जिन्होंने स्त्रिीयोचित दूरगामी द्रष्टि से दिवा को कच्चा-पक्का खाना बनाना सिखा ही दिया था ।वह किसी तरह रसोईघर के मोर्चे पर भी अपरास्त हो, भिड ही गई थी चूल्हे चक्की से , और विस्म्रत कर दिया था उसने सब को । अर्थात अपनी डिग्री, सक्रिय छात्र जीवन और लोक-व्यवहार का प्रच्छन्न अनुभव, अपने परिजन , मित्र तथा और भी बहुत कुछ ।
लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद -हल्का सा सन्तोष था , कि विपिन का स्वभाव बहुत शानदार था । एकदम उदार और अबोध बच्चे-सा नजर आता विपिन जब उसके पास होता तो वह आश्वस्त हो उसकी गोद में सिर रखकर गहरी नींद में खो जाती थी । उसे वे क्षण अब भी याद हैं , जब झिझकते हुए बिपिन ने पहली बार उसके अगं-प्रत्यगं छुए थे मानव शरीर के राई-रŸाी से परिचित होने के बाबजूद कितनी अनजान और निर्दोष हरकतें करता था - उस रात वह खुद संकोच में थी । उन रातों में उनकी आधी अधूरी बातें होती । क्योंकि बगल के कमरे में मोजूद अन्य लोगों द्वारा सुन लेने का भय उन्हें न सोने देता था, न जगन घर लोटकर वह अपने पूरे प्रयास के बाद भी चुप नहीं रह पाई थी । तडपकर उसने मम्मी से पूछा था क्यों नरक मे झोंक दिया उसे ? जो स्टेण्डर्ड बिपिन के घर का है, ऐसा रहन- सहन तो इस घर के नोकरों तक का नहीे है । मम्मी विचलित हो उठीं थीं और डैडी भी भी उसके असंन्तोष से शान्त न रह सके थे ।
कितने बूद्धिमान थे डैडी ।एक दिन अकेले में उसे अपने पास बैठाकर धीरे-धीरे सब कुछ पूछते रहे थे और वह भी नन्ही -बच्ची बन गई थी । लाड में ठिनकते हुए , ससुराल के हर आदमी के बारे मेेें , हर घटना के बारे में डैडी को बताती चली गई थी । डैडी आहिस्ता से बोले थे -”देखो बेटा, यह सब तो हमको पहले सोच लेना था ! घर कोन देखता है आजकल ? लडका सब देखते हैं । तुम्हीं बताओ, हमने बिपिन के रुप में लडका तो तुम्हारे लायक सही ढूँढा है न और फिर रही बात घर की , तो तुमको कितना रहना है उस घर में ? ज्यादा से ज्यादा एक बार और जाओगी वहॉ , इसके बाद तो नोकरी पर रहना ही है तुम्हें । वहॉ बना लेना अपना स्टेण्डर्ड “ एक पल चुप रह गये डैडी ,तो उसकी प्रश्नाकुल निगाहें उनके चेहरे पर जम गईं थीं ।धीरे- धीरे बोले थे -”और बेटा जो होना था ,वह तो हो लिया । पूराना भूल जाअेा सब ! अब उस घर की लाज , इज्जत मर्यादा सब तुम्हारी । हम तो पराये हो गये तुम्हारे लिए ।“ संजीदा हो गये पिता की गोद में सिर छिपा लिया था दिवा ने । अगली दफा ससुराल पहॅुची , तो बाबूजी का आग्रह मानकर बिपिन असे छŸाीसगढ ले गया था प्रक्रति प्रेमी दिवा केा बडी सुखद अनुभूति हुई थी वहॉ । प्रक्रति के उन्मुक्त स्वरूप और गगन के प्रच्छन्न बितान - तले फैली हरीतिमा ने उसका मन मोह लिया था ।बस अखरी थी तो एक बात । बोलने- बतियान के लिए अच्छी कम्पनी नहीं मिल सकी उसे । गिने-चुने मैदानी परिवार थे उस गॉव में बिल्कुल प्रथक परिवेश में पोषित थे वे सब ।
उस दफा जल्दी लोट आई थी दिवा ।बिपिन फिर डियूटी पर चला गया था । यहॉ सब कुछ ठीक-ठीक चलने लगा था, कभी-कभार मन में आ जाने वाली ऊब और अकुलाहट के अलावा। सामान्यतः दिवा अपने आप को आपको माहोल में खपाने लगी थी कि एक दिन अचानक अम्माजी की तबियत बिगड गई ओैर उन्हें अस्पताल ले जाना पडा था सीने में दर्द की सिकायत उन्हें वर्षों से थी , मगर वह दर्द इस बार ऐसा था कि जान लेबा हो गया था । अस्पताल में ही उसका शरीर छूट गया । तार पाकर तीसरे दिन बिपिन आ पाया था , तो यह जानकर कितना दुख हुआ था उसे कि नवीन भैया ने बडी मान-मनोबल के बाद अन्तिम क्रिया सम्पन्न की थी ,और तुरन्त लोट गये थे । रूपा भाभी तो एसे गमगीन माहोल में झाकने तक न आई थीं इस घर में । शोक और सन्नाटे में डूबे घर में रश्मि और दिवा, अपगं बाबूजी के सहारे उसके इन्तजार की एक-एक सैकण्ड और मिनट गिन रहीं थीं । माताजी की तेरही के बाद जिस दिन विपिन अपनी डियूटी पर लोटने की तैयारी कर रहा था उस दिन बाबूजी को सुबह से कुछ घबराहट होने लगी ।सीने में दर्द और बेइंतहा गर्मी का अनुभव करते बाबूजी का चैक-अप जब खुद बिपिन ने किया तो पाया कि उन्हें हार्ट-अटेक हुआ है ।स्थानीय अस्पताल में भर्ती करते-न- करते बाबूजी पर लकवे का दूसरा हमला हुआ । फिर तो विपिन प्राणपण से उनकी खिदमत में जुट पडा था टैक्सी करके वह फिर इन्दौर भागा था और बाबू जी को भर्ती करा दिया था ।
इस बार सीबियर अटेक था ,इस वजह से डाक्टरों को भी ज्यादा उम्मीद न थी । पन्द्रह दिन बाद चिकित्सकों ने निराश मन से उसे घर लोटा दिया था । बाबूजी के हाथ-पॉव हिलाने के लिए कुछ एक्सर-साइज भर उन्होंने बताई थीं । किकंर्तव्यविमूढ बिपिन ,दिन-रात बाबूजी की परिचर्या में व्यस्त रहने लगा था । तभी शहर में एक प्राकृतिक चिकित्सक का सात दिन का शिविर लगा था, ( मरता क्या न करता की तरह )बिपिन वहाँ जा पहँुचा था । उनके परामर्श से बाबूजी की प्राकृतिक चिकित्सा प्रारम्भ हुई थी । चुम्बक के पानी की मालिश होती , वही पानी उन्हें पिलाया जाता ।
चमत्कार सा हुआ । बाबूजी अच्छे होने लगे । उनके हाथ- पॉव में हरकत शुरु हुई और मुँह से टूटे-फूटे स्वर निकलने लगे । अब जाकर सबने राहत की साँस ली थी । धीरे- धीरे अपनी पुरानी हालत में लौटने लगे थे ।
अचानक एक दिन अपने विभाग से विपिन को तार मिला । उसे तत्काल ज्वाइन करने का आदेश दिया गया था । वह भी जानता ही था कि नई नेाकरी में इतनी छुट्टियॉ भला वहॉ मिलेंगी ? सो दिवा के जुम्मे सब कुछ छोडकर वह अपनी नोकरी पर भाग गया ।
जब भी बिपिन आता वे दोनों अकेले में मिलने को तरस जाते । यदा-कदा ऐसा अवसर आता भी तो चिन्तित और व्यग्र बिपिन उससे उतावली में मिलता और उसी उतावली में पार हो जाता । वह क्षुव्ध हो उठती । हर बार की अतृप्ति अनबुझी प्यास, उसके मन में कुण्ठा बढा जाती । दिवा की कितनी इच्छा होती थी कि वे लोग दुनियॉ जहान की बातें करें । साथ जाकर थियेटर में जाकर फिल्म देखें बाजार घूमें । क्रिकेट मेच की बात करें । नए फैशन के कपडों पर बहस -मुबाहिसा करें । बाजार में नई छपकर आई किताबों और पत्रिकाऔं पर चर्चा करें । लेकिन बिपिन को इन सब फालतू बातों के लिए शुरू से ही कहॉ समय रहा है! पढने लिखने के नाम पर वह सच्चे किस्से और अपराध-कथाऔं तक सीमित था । शायर इसी का असर रश्मि पर रहा है । वह भी इसी टाइप का साहित्य पढती रही है और ज्यादा-से-ज्यादा हुआ तो महिलाओं के लिए छपने वाली कोई (बुनाई विशेषांक या व्यजंन विशेषांक वाली )पत्रिकाएँ पढती रही है । रश्मि की नजर में सारे खेल मर्दों तक सीमित हैं और सारे फेसन (अनाप शनाप कमाने वाले ) लखपतियों के बच्चों के लिये सुरक्षित हैं । कितनी ऊब और अकुलाहट महसूस करती रही थी दिवा उन दिनों ।
”आज नाश्ता नहीं बनाना क्या भाभी ?“रश्मि अपने तीखे प्रश्न के साथ उसके सिर पर मौजूद थी । वह झल्ल उठी । मजाल क्या, रश्मि ने आज तक कभी दो- एक दिन को जरुरत के दिनों में भी किचिन का मुॅह देखा हो। आदेश ऐसे देती है जैसे दिवा जर-खरीद गुलाम हो उसकी ।
दिवा चुपचाप उठी और किचन में घुस गई । लकडी धुधुआकर जलने लगी थी चूल्हे पर कडाही रख दिवा ने गीले रखे पोहे बनाने की तैयारी शुरू कर दी ।
नाश्ता करके रश्मि कॉलेज चली गई तो उसने खना बनाया और बाबूजी को खिलाया , फिर छोटे मोटे कामों में उलझ गई। उसे अभी खाना नहीे खाना , क्योंकि आज गुरूवार का ब्रत हे उसका ।
गुरूवार की याद आते ही उसकी स्मृति का दूसरा धडाक से खुल गया ।अरे बाप रे !आज तो दीपू आयेगा । उसे झटपट तैयार हो जाना चाहिए । नहीं तो उसे बागड बिल्लो बनी देख, जाने क्या-क्या सुनाने लग जाएगा । जहॉ का काम तहॉ छोडकर उसने बाल खोले और कघंी फेरने लगी ।
दीपू! दीपू! दीपू!
वह नाम उसके दिल-दिमाग में ताजगी भर देता है, पिछले कई वर्षौं से क्षण-क्षण । याद है उसे , दीपू से हुई मुलाकात । शादी के पहले की बात थी वह । दिवा को टायफाइड निकला था हाल ही एम ए की परीक्षा से निपटी थी । वह उन दिनों अपने कमरे में एकाकी लेटी घडी की चाल को कोसा करती थी । बढते -घटते बुखार में भयानक नैराश्य और अवसाद की मानसिकता में डूबी, उन दिनों वह , छत की फर्सियों को गिनती , ऊ्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्रँची - नीची सतहें नापती ,दीवारों के पलंस्तर के बीच बने छोटे-छोटे सूराखों को गिनती और पुताई की पर्तों में से उभरते अक्शों के बीच कोई आकृति तलाशते-तलाशते जब बोर हो जाती तो बाहर निकलने को बहुत मन करता था लेकिन डाक्टर की सख्त हिदायत और डैडी का कठोर अनुशासन उसे कमरे में कैद किए रहता था। एसे में वह मन- ही- मन कष्ट और पीडा में तिल-तिल घुलते हुए बडा एकाकी और उपेक्षित महशूस करने लगी थी खुद को । शुरू-शुरू में सब उसके पास बने रहते थे मगर लम्बी खिचती बीमारी के कारण धर के सब लोग अपने-अपने कामों में व्यस्त रहने लगे थे ,हालाँकि सुबह-शाम तो सब लोग उसके इर्द-गिर्द इक्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्रट्ठा होते थे, पर पहाड सा दिन प्रायः उसे अकेले ही गुजारना होता ।
दिवा की बडी दीदी श्ल्पिा उन्हीं दिनों मायके आई थीं । शिल्पा के साथ एक अजनबी अल्हड-सा युवक भी था जो जान पहचान की परवाह किए बगैर हर आदमी से बात-बे-बात मजाक और छेडखानी किया करता । पूछने पर पता चला था कि वह था शिल्पा का देवर -दीपू! बाप रे! बचपन का वह दुबला पतला और शर्मीला दीपू अठारह-उन्नीस पार करते - करते कैसे खुबसूरत और जिन्दादिल युवक निकल आया था । खुद शिल्पा परेशान रहा करती थी उसकी हरकतों से , लेकिन इसी कारण प्यार भी उसे करती थी । बचपन से शिल्पा के ही ज्यादा निकट रहा था दीपू । दिवा का मन बहल गया । घन्टे दो घन्टे में वह समझ गयी , कि दीपू ऊपर से जितना मस्त और लापरवाह है, भीतर से उतना ही भावुक और गम्भीर भी है । कम उम्र म में उसकी दृष्टी इतनी साफ और स्पष्ट थी , कि दिवा जैसी गम्भीर व पढाकू नव युवती उस के सामने नन्हीं बच्ची बनी टुकुर - टुकुर ताकती रहजाती थी ।
दीपू का अड्डा दिवा के कमरे में जमा । उदास व नीरस कमरा गुलजार हो उठा ।हमेशा दिवा को हँसाता - गुदगुदाता वह ढेर सारे चुटकुले छितराता रहता था - कमरे के शुष्क माहैाल में । बुखार बढ़ जाने पर दिवा निढाल हो जाती तो वह एका एक विराट गम्भीरता ओढ़ लेता । बीच - बीच में मौसम्मी - जूस और दूध पिलाना उसने स्वतः अपनी डियूटी में शामिल कर लिया था ।
दीपू के आने की पहली ही रात दिवा , बुखार में तपते हुए बेहोशी में तड़पती रही और अब सुवह आँख खोली, तो रात भर से जागते लाल आँखें लिये दीपू को अपने सिरहाने बैठे पाया था । उसके मन में अपने से पाँच बरस छोटे दीपू के लिये एक मधुर - सी भावना जागी और भावुकता के उन छड़ों में उसने दीपू का माथा अपनी हथेलियों में लेकर एक गहरा चुम्बन ले लिया था ।
सन्नाटे में डूबा दीपू देर तक थर थराहट अनुभव करता रहा और ..... दिवा भी कहाँ शांत रह पायी थी कम्बल के भीतर ।
तीन दिन के भीतर उन दोनों में ऐसा लगाव हो गया कि एक-दूसरे से चुहल किये बिना उनका समय ही न कटता । पहली बार दिवा को अपनी रुचि का कोई मिला था । वर्ल्ड -कप क्रिकेट से लेकर रणजी ट्रॉफी तक के खिलाड़ी और पॉप जॉर्ज संगीत से लेकर बुन्देलखंण्डी लोक - संगीत तक नये से लेकर पुराने फैसन तक कोई भी तो एसा पक्ष न था, जिसको वह बारीकी से न जानता हो । अपने को तीस मारखा समझती दिवा एक ही झटके में धरती पर आ गिरी । बातचीत से इस सेतु से वे एक - दूसरे तक पहुँचने लगे थे । कुछ रोज के बाद जब शिल्पा ससुराल लौटी तो हवा पानी बदलने के लिये दिवा को साथ लेती आयी थी ।
अब दिवा का अड्डा दीपू का कमरा था । वह मात्र सोने के लिये शिल्पा के कमरे में जाती इन कुछ घन्टों को छोड़कर वे दोनों पूरे समय हँसी-ठहाकों में डूबे रहते थे । दापू ने पूरा शहर घुमाया था दिवाको अपने साथ । शाम को उनकी गोष्ठी जमती । बीच-बीच में शिल्पा भी आजाती उनकी चर्चाओं में शम्मिलित होने । और कभी तो दिवा के जीजाजी प्रकाश भी अपनी बकालत के झंझटों से मुक्त होकर उनकी महफिल में शामिल रहा करते थे । दिवा का बुखार जा चुका था और कमजोरी खत्म हो रही थी । वह बहुत खुश थी वहाँ ।
दीपू से दिवा को नयी दृष्टी मिली थी चीजों को देखने और समझने की । वह दीपू के सानिध्य में इसका और अधिक विकास करने का प्रयास कर रही थी उन दिनों ।
फिर वह शायद अनिवार्य हादसा ही था उस रात, कि तब देर रात दिखाई जाने वाली शुक्रवार की फिल्म दूरदर्शन से प्रसारित हो रही थी ।बाहर मौसम बेहद खराब था । आसमान में गड़गड़ाते जलधर और चमकती बिजली वातावरण को अपनी रुपहली चमकसे एक पल के लिये प्रकाशित कर फिर से अंधेरे में डुवा जाती थी । अपने कमरे में निकट बैठे दीपू और दिवा
टटोलने के लिये हाथ बढ़ाये,तो एक-दूसरे के अनियन्त्रित उत्तेजित शरीर उनकी जद में थे ।फिर पता नहीं किसने क्या-क्या किया , वे निकट से निकट तक होते चले गये । जाने कब से घिरते घुमड़ते बादल खूब बरसे उस रात । बाहर भी, भीतर भी ।
शिल्पा की पुकार सुनकर वे चौंके और अस्त-व्यस्त दिवा ने उठकर कपड़े सँम्भालते
हुए शिल्पा के कमरे की ओर दौड़ लगा दी थी । वह पूरी रात दिवा ने आँखों में काटी थी । फिल्म के उत्तेजक द्रश्यों में डूब बार-बार पहलू बदल रहे थे । शिल्पा अपने कमरे में थी कि बिजली चले जाने से अचानक गुप्प-अंधेरा छा गया । भौचक्के से उन दोनों ने आस-पास कुछ
टटोलने को हाथ बढाए ,तो एक दूसरे के अनियन्त्रि उŸोजित शरीर उनकी जद में थे । फिर पता नहीं किसने क्या-क्या किया, वे निकट से निकट तर होते चले गये । जाने कब से घिरते -घुमडते बादल खुब बरसे उस रात । बाहर भी भीतर भी ।
श्ल्पिा की पुकार सुनकर वे चौकें और अस्त -व्यस्त दिवा ने कपडे सभालते हुए शिल्पा के कमरे की ओर दोड लगा दी थी ।वह पूरी रात दिवा ने आँखों में काटी थी ।
सुबह उठी तेा दिवा में संकोच और शर्म में डूबी थी, जब कि दीपू पूर्ववत स्वच्छन्द और

मुखर मुद्रा मौजूद था देर तक दिवा उसके कमरे में आने से कतराती रही, पर जरा सा मौका मिला दीपू को , तो वह खुद दिवा के पास पहँच गया था । दबे स्वरों में दिवा ने रात में सब कुछ गलत हो जाने की बात कही तो वह फट पडा था- ”कैसी गलती?काहे की गलती ?आपने समझा है कभी एसी प्यारी गलतियों के बारे में ? जिसे आप गलती कह रहीे हैं, वह
ी तो इस दुनिया का मूल है सत्य है!“
”पर हमारा समाज और उसके कायदे“
”किस कायदे की बातें कर रही हैं मैडम ?चलिए, आप की ही भाषा में बात करूँ।
आपने तो पुराण साहित्य खूब पढा है कोन देवता ऐसा है जो काम के पाश से बचा रह गया
है?इन्द्र! ब्रम्हा! महेश! है कोई उदाहरण?“
लेकिन कौन मान्यता देगा हमारे तुम्हारे रिश्ते को ?ये प्रतिलोम रिश्ते?
”बकवास !....किसकी मान्यता चाहिए तुम्हें ?...इस समाज की ?... या इस धर्म की या सस्कृति की ? ध्यान रखो कि अनुलोम-प्रतिलोम विवाह, और जायज-नाजायज रिश्तों की बातें नपुंसकों की बकवास है सब“दीपू का स्वर तिक्त हो उठा था और दिवा को चुप रह जाना पडा था । इसके बाद दिवा ने प्रतिरोध नहीं किया था और कई दफा उस अनुभव को जिया था , पूरी प्राणवŸाा और हिस्सेदारी के साथ। दीदी के यहाँ से लोटना बहुत अखरा था उसे लेकिन क्या किया जा सकता था। उम्र में पॉच वर्ष छोटे नाबालिग दीपू के साथ जिन्दगीभर रहने की अनुमति कोन दे सकता था उसे, न घर वाले, न समाज और न कानून । हालाँकि दीदी को जाने कैसे ज्ञात हो गया था- सारा गोरखधंधा ।
घर लौटकर द्वन्द्व में जीने लगी थी वह कभी दीपू के तर्क उसे सही लगते थे तो कभी बचपन से कोमल मन पर पडे नैतिकता सम्बन्धी सस्ंकार उस पर हावी होने लगते थे। तब अपराध्
बोध से घिर जती थी वह। गनीमत थी कि अभी बात उसी तक थी। लेकिन जल्दी ही शिल्पा दीदी का दौरा अपने मायके का हुआ और उन्होंने ऐसा मन्त्र फूँका कि मम्मी और डैडी का व्यवहार ही बदलगया उसके प्रति। उसे याद है, डैडी ने उसके पूर्व उन तीनों भाई बहनों यानी शिल्पा,दिवा और अंिकचन में कभी भी कोई भेदभाव नहीं रखा था। तीनों को एक -सी सुविधा स्वतन्त्रता दी गई थी, पढने और विकास करने की। इसीलिए इस उपेक्षा के बाद वह अपनी ही नजरों में खुद को गिरा हुआ महसूस करने लगी । यदा-कदा टपक बैठने वाला दीपू भी सम्भवतः आने से प्रतिबन्धित कर दिया गया। उसके लिए लडका ढूँढा जाने लगा। बिपिन से रिश्ता हुआ।
उसका विवाह हुआ। वह श्री मती दिवा बनकर इस घर में आ गई थी। अपने आपको नई जिन्दगी के प्रवाह में सम्मिलित करके उसने पिछला सब कुछ भुलाने का प्रयास किया था। बिपिन को तो घर में लगातार आते संकटों के कारण अपनी जिम्मेदारी और बीमार पिता से सरोकार रखने के अलावा इतनी फुरसत नहीं थी कि उससे कोई गहरा मतलब रखता। दिवा ने भी अपने तन -मन की अतृप्ति कभी बिपिन पर जाहिर न होने दी थी , और ज्यों-त्यों दिन गुजर रहे थे। लेकिन कई बातें एसी थीं जिनसे बिपिन के दिल में मोजूद प्यार का बोध उसे हुआ था और मोहित सी हो चली थी वह बिपिन के प्रति। तभी हटात दीपू एक दिन उसकी ससुराल आ धमका था। दोनों मे बहस छिड गई थी पुराने सम्बन्धों को लेकर। दिवा पुरानी गलती न दोहराने की दुहाई दे रही थी, जब कि सूखकर कॉटा हो रही उसकी देह और दिनोंदिन बढते जा रहे चिडचिडेपन को अतृति- चिन्ह बताकर दीपू उसे प्रात्साहित करता रहा थार्। वह कहता था न पहले गल्ती थी , और न अब हैै। पर वह न राजी थी । दीपू उसका मुखर प्रतिरोध देखकर वापस लोट गया था, और कई दिनों तक इस उलझन में उलझी रह गई थी कि किसके प्रति वफादार रहे वह, दीपू के या बिपिन के । मौजूद होने पर बिपिन पर भी तरस आता था उसे , क्याकरे बेचारा? न बाप के प्रति लापरवाह हो सकता है न अपनी नौकरी के प्रति । वैसे उसका तो दीवाना है वह जब तक रहेगा ऐसे ताकता रहेगा, जैसे आँखों के रास्ते पी ही जायेगा उसे । घर और पिता से बचा रह गयाा समय वह दिवा को देता था। थके और श्लथ शरीरों को उस थोडे रात का मूल्य ही क्या था। हाँ बिपिन की गैर मौजूदगी में जरूर उसे गुस्सा आता रहता था।
दीपू के लौट जाने के बाद बडी अन्यमनस्क बनी रही थी उस दिन और चाहती रही थी भीतर-ही -भीतर कि दीपू फिर लैाट आए। लेकिन जिस दिन दीपू आया, खुल कर स्वागत नहीं कर सकी थी उसका किवाड खोलकर देहरी पर ठिठकी रह गई वह । कई क्षण बीत गए थे
”अन्दर आने के लिए नहीं कहोगी ?“
दिवा ने एक भरपूर नजर से उसे देखा था और मुडकर भीतर चली गई थी। दीपू पीछे- चल पडा था।
”आओ भी नहीं कहा“
ेेेेकुछ आगमन ऐसे भी होते हैं जिनकी प्रतीक्षा भी होती है और वे टल जाँए तो निष्कृति का बोध्
भी। शब्दों से स्वीकृति देने की निर्द्वन्द्वता और साहस नहीं है मुझमें दीपू । चाह तो होती है तुम्हारी ,पर जाने कैसे कॉटे बिछे हैं कि दौडकर तुम्हें अपने में समेट लेने की आतुरता ठिठक जाती है । पूछा मत करो तुम ।“
”कैसे हो“
”ऐसे पूछ रही हेा, जैसेपिछले जन्म के बाद मिली हो।“
”तुमसे मिलकर हर बार पुनर्जन्म ही तो होता है मेरा।“
”दर असल , ये दिमागी जडता ही तो तुम्हारी कमजोरी है।“
नहीं दीपू, मैं न लकडी-सी जल पाती हूँ और न आग से अप्रभावित हो रह पाती हूँ। सीलन और ताप के बीच धँुधआते रहना ही शायद मेरी नियति है। तुम समझा करो कुछ।
इससे ज्यादा बात नहीं कर सके थे वे दोनों । रश्मि आ गई थी । फिर वह रात भी बातों -ही -बातों में बीत गई थी ,बिपिन केा भूल कर दीपू में खो गई थी वह । ढेर सी बातें और ढेर से विषय थे उन दिनों के पास, जुबान थकती न मन भरता था। सुबह दीपू लौट गया था।
तब से यही क्रम जारी है। महीना पन्द्रह दिन मे दीपू आता है और कोशिश करता है कि उसकी झिझक टूटे , लेकिन दिवा उवर नहीं पाती है अपने द्वन्द्व से । कई दफा तो लगता है कि दीपू का आना सार्थक हो ही जाएगा, पर बात बस कुछ कदम आगे बढती है और श्लथ होकर गिरी रह जाती है मंजिल के पहले ही
अचानक घंटी बजी तो चिहँक उठी। दरवाजा खोला तो गैस वाला था।”वाह इस बार बडी जल्दी आ गई गैस।“कहते हुए उसने रास्ता दिया और सिलेण्डर बदलवाने लगी।
गैस वाले को गिनकर रुपये दे रही थी कि घण्टी फिर बजी। उसने दरवाजे की ओर झाँका तो तबियत प्रसन्न हो उठी । वहाँ मौजूद लकदक दीपू उसकी अनुमति के इन्तजार में तत्पर खडा था।

मंगलवार, 9 मार्च 2010

kahani adat














आदत
स्टेट हाइवे नं. एक सौ पन्द्रह के किलोमीटर क्रमांक 1 से 30 तक की चकाचक सड़क देखकर नेशनल हाइवे वाले भी लज्जा खाते हैं । यह सड़क मेरे कस्बे को महानगर से जोड़ती हुई आगे निकल जाती है ।
लीला का ढाबा इसी रोड पर छटवें किलोमीटर पर है और वनस्पति घी की फैक्ट्री भी इसी मार्ग में ग्यारहवें किलोमीटर पर बनी है । पुरानी गुफाएँ और पहली शताब्दी में बने प्राचीन जैन मन्दिर भी इसी रोड पर हैं ।
आज मैं बहुत फुर्सत में हूँ , जनाब । चलिये कोई किस्सा हो जाये । लीला के लीला के ढाबे का ठीक रहेगा ...न-न, आज वह नहीं और वनस्पति घी की कहानी भी नहीं । वह फिर किसी दिन सही । जैन मन्दिर से जुड़ी कहानी जरूर सुन सकते हैं । लेकिन मेरी दिली इच्छा है, कि आज इन में से कोई कहानी न सुनें । मैं आप को कुछ और सुनाना चाहता हूँ ।
आज आप को यादव साहब की कहानी सुनाने को जी चाह रहा है । सुनेगंे आप ?शायद यादव सरनेम से आप समझे नहीं हैं, अरे वही मेरे पड़ोसी यादव साहब जिनके दरवाजे पर टाइम कीपर से लेकर असिस्टेण्ट इंजीनियर तक गाड़ी लिये खड़े नजर आते हैं । नाक पर मोटा चश्मा और बदन पर ढीले-ढाले सूट को किसी तरह उलझाए यादव साहब को आप हमेशा ही सर्वेे नक्शा ड्राइंग रूम और इस्टीमेट से उलझे हुए पाएँगे । काम के कीड़ा हैं । चौबीस में अठारह घण्टे तक काम करते हैं । कहने को सब-इंजीनियर हैं मगर अनुभव किसी एक्जीक्यूटिव इंजीनियर से कम नहीं है । अरे भई छब्बीस साल की सर्विस छत्तीसगढ़ में पूरी हुई है । यहाँ तो अभी आए हैं - दो साल पहले ।
छत्तीसगढ़ में हर तरह का काम कराया है, यादव साहब ने । मजाल क्या कि सुपरिटेण्डेण्ट इंजीनियर ने भी उनके काम में नुक्श निकाली हो । एक वर्ष दिल्ली भी रह आए हैं, म.प्र. भवन में इंचार्ज ऑफिसर बनके मगर क्या हिम्मत कि एक पैसे का भी किसी ने कलंक लगाया हो । ठेकेदार तो इनका नाम सुनकर ही घबराते हैं, अरे बाप रे ! यादव साहब से तो राम बचाए । एक-एक इंच का काम देखेंगे, भुगतान तब होने देगें ।
अपने टाइमकीपर और असिस्टेण्ट (सब-ओवरसियर) को ही लगातार फटकारते रहते हैं वे । ये नहीं देखा, वो नहीं देखा । इतना नुकसान हो गया, उतनी बरबादी हो गई । गवर्नमेण्ट का इताना नुकसान कौन भरेगा अब ? तुम्हारी लापरवाही से सब हुआ है, तुम्हारी ही तनख्वाह से काटा जायेगा और हर माह बेचारे टाइमकीपर या असिस्टेण्ट को सौ-पचास रूपये भरने पड़ते हैं । मौका पड़ने पर खुद अपनी तनख्वाह काट लेते हैं, यादव साहब । सभी राम -राम करके दिन निकालते हैं । परमानेण्ट गेंग हो या टेम्परेरी गेंग, यादव साहब खुद सारा काम देखते हैं । लेबर को काम करने का तरीका सिखाते हैं, खुद काम करके । चाहते हैं, गवर्नमेण्ट की आठ घण्टे की ड्यूटी हो सके, तो दस घण्टे काम लिया जाए, काम चोरी न हो पाए । सोते - जागते गवर्नमेण्ट की ही सोचते हैं ।
उनकी बिरादरी के दूसरे सब -इंजीनियर पीठ पीछे हँसी उड़ाते हैं । अटठाइस बरस की नौकरी और घर में अटठाइस हजार का भी सामान नहीं हैं । बच्चे टी. वी. को तरसते हैं, मगर उन्हें टेप या ट्राजिस्टर तक नसीब नहीं होता । बैठक मैं एक सोफा भी नहीं है कि आगत व्यक्ति बैठ जाये । बस लोहे की छड़ी से बनी और बैत की बुनी चार कुर्सी पड़ी हुयीं हैं, उन्हीं पर सब आकर बैठ जाते हैं, बतियाते हैं और चले जाते हैं मगर यादव साहब को किसी की फिक्र नहीं है वे तो अपनी टेविल पर फैले नक्शे में खोये हैं । कभी अर्थ वर्क वाली सड़क तो कभी ऐसफाल्टिंग वाली रोड सामने पसरी है । कभी किसी पुलिया का प्लान सामने फैला है और मुँह में जर्दे की चुटकी दवाये यादव साहब उसमें डूबे हुए हैं । मैंने देर रात को उनकी बैठक की लाइट को सदा जलते ही पाया है । खुद जागते हैं, और बीच -बीच मैं पत्नी को जगाते हैं, चाय के लिए । हर घण्टे पर उन्हें एक कप चाहिए । फिर यादव साहब निश्चिन्त हो जाते है, अगले एक घण्टे तक जागने के लिये ।
अगले दिन मैं उनसे पूछा - ‘‘ यादव साहब, कल देर रात तक जागते रहे , क्या बात है ? कोई विशेष काम आ गया ?’’ बस इतना सुनकर गम्भीर हो जाते और ढेर सारे काम दिखा देते , फिर अपने मात हत लोगों का रोना रोते - ‘‘ क्या बताऊँ शर्माजी, लोग काम ही नहीं करना चाहते । मजदूर चाहता है, मैं सिर्फ दो घण्टे काम करू और बैठकर बीड़ी पीता रहूँ । अरे भाई, फिर काम कौन करेगा ? कैसे चलेंगीं ये सरकारी योजनाएँ ? कैसे होंगे सरकरी काम ? मैं उनकी बात हँसी मैं टाल देता और कहता -‘‘साहब ! आपको क्या ए. जी. ने खास तौर से नियुक्त किया है । कि सरकारी धन की बरबादी रोकते फिरो ! अरे साहब काहे को गरीब लोगों की बददुआ लेते हो । मजे करने दो लोगों को । खाओ और खिलाओ । ऊपर के लोग भी ऐसे हैं ,आप अकेले क्या कर लेगें ?’’
सुनकर वे नाराज हो जाते और कहते - ‘‘ सरकारी ड्यूटी पूरा कराने में काहे की बद्दुआ ? आलसी आदमी को दण्ड देना ही पड़ेगा नहीं तो कैसे चलेगा काम -धाम ?और फिर सरकारी पैसा बीच में खा जाना तो विष्टा खाना है । अरे भाई, मस्टर खोला जाता है, जनता के जरूरी काम के लिए, सुरक्षा के लिये और हम उसे बीच में ही गायब कर दें तो विष्टा खाना नहीं हुआ ? भाई , सरकार हमें तन्ख्वाह देती है, हमारी मालिक है, हमारा परिवार पालती है । हम उससे कैसे गद्दारी करदें । प्राइवेट कम्पनियाँ निचोड़ लेतीं हैं, आदमी को तब छोड़ती हैं । ’’
मैं चुप रह कर सुनता रहता । बस इससे ज्यादा यादव साहब कभी न खुलते थे । एक लोह कवच उनके इर्द-गिर्द व्याप्त था ।
एसे यादव साहब पर उस नये इंजीनियर ने आरोप लगा दिया कि वे सरकारी धन का गवन कर गये हैं और उसकी कीमत वर्मन साहब की तनख्वाह से काटी जायेगी । यादव साहब खूब तमतमाये और चिल्लाये । वह उनकी सही बात काहे को सुनेगा । उसने बसूली के आदेश दे दिये । सेा आज कल यादव साहब की तनख्वाह से आधी रकम कट जाती है । गरीबी में गीला आटा हो रहा है, खर्च चलना मुश्किल है परन्तु यादव साहब के उत्साह में कोई फर्क नहीं है । वे उसी उत्साह से अपने काम में लगे हैं । कभी किसी ऐस्टीमेट में उलझे दिखते हैं तो कभी ब्लूप्रिंट में । माथे पर जरा भी शिकन नहीं है । धन्य हैं, यादव साहब ।
मैंने सारा माजरा पूछा भी तो मुस्करा कर चुप रह गये । बताया कुछ नहीं । उनकी इसी हँसी के पीछे कितना दर्द छुपा हैं , यह आँखों से नहीं दिखता बल्कि अनुभव किया जा सकता है । मैंने अनुभव किया है कि उनकी पत्नी अब रोज सब्जी नहीं खरीदतीं हैं । उनके घर रोज अखवार भी नहीं आ रहा है । शयद दूध भी बन्द कर दिया गया हैं । लेकिन पड़ोसी होने के बाद भी प्रगट में मुझे कुछ पता नहीं है । वो तो मैने उस दिन उनके टाइम कीपर को बाहर खड़े देखा, तो यादव साहब के घर पर मौजूद न होने का अन्दाज लगा । टाइमकीपर को अपने घर बैठा लिया था । तब उसने डरते-डरते मुझे गवन वाला किस्सा सुनाया है ।
दरअसल सारा झमेला शुरू हुआ था नये एक्जीक्यूटिव इंजीनियर के आगमन के साथ । नया आदमी होने से न तो ई. ई. जैन को ये पता था कि यादव साहब का स्वभाव क्या है, प्रकृति क्या है, और विचार क्या है ? और न ही वह इस बात के लिए तैयार था, कि किसी भी प्रकार का बिल बिना लिए-दिए पास किया जाए । अपने दूर के रिश्तेदार को उसने ठेकेदार के रूप में रजिस्टर्ड करा दिया था और एन-केन प्रकारेण उसे कोई ठेका उसे दिला ही देता था । सब कुछ सामान्य गति से चल रहा था ।
अचानक जिले में लोक निर्माण मंत्री का दौरा घोसित हो गया और जब दौर का प्रोग्राम आया तेा पी.डब्लू.डी.वाले सब लोग परेशान हो उठे थे । मंन्त्री जी की कार को उस रास्ते से होकर निकलना था, जो यादव साहब के चार्ज में था। कहने को वह रोड स्ैटट हाई वे थी । वही रोड वनस्पति घी की फेक्ट्री तथा पुरातन गुफाएँ और मन्दिर को जोडती थी लेकिन यादव साहब के कई प्र्रस्तावों के बाद भी वषों से उस रोड पर मरम्मत - कार्य नहीं हो पाया था इस कारण उसकी हालत किसी एप्रोच रोड जैसी हो गई थी । जगह-जगह हो गये गड्डे और कदम-कदम पर उखडे डामर ने हालत ये कर दी थी कि तीस किलोमीटर का यह टुकडा पार करते-करते दो घण्टे खर्च हो जाते थे।
आनन-फानन में बैठक बुलाई गई और जिले का सारा पैसा बटोरकर उसी टुकडे पर झोंकने का निर्णय लिया गया। पूरे मनोयोग से यादव साहब ने रोड के गड्डे भरने का पेंचवर्क कराना शुरू किया ही था ,कि तैयारी देखने आए विधायक ने रोड की दुर्दशा देखकर बुलन्दी से घोषणा कर दी कि पन्द्रह दिन के भीतर जैसे भी होगा इस रोड पर नया कारपेट बिछना शुरू हो जाएगा । विधायक की बात में दम था । जिसे एस. ई. ने भी स्वीकार किया और यादव साहब से अच्छा काम कराने के लिए विशेष आग्रह किया गया था। तमाम जगह मस्टर बन्द होने के बाद भी इस रोड पर मस्टर वर्क स्वीकृत किए गए और सर्कल आफिस का स्टोर यहाँ के लिए उदारतापूर्वक खोल दिया गया।
यह काम कराते वक्त भी यादव साहब के मस्तिष्क से शाषकीय धन की चिन्ता नहीं छूटी । उन्होंने जब इस रोड पर कारपेट बिछाना ही ही है और उसमें ठेकेदार का निजी सामान खर्च होना है तो विभागीय सामान की अधिक बरबादी क्यों की जाय। फिलहाल काम चलाने लायक लीपा- पोती कर ली जाए और बाद में ठेकेदार के सामान से जी खोलकर काम कराया जाए।
मस्टर वर्क में यादव साहब ने इसी कारण सडक के किनारे जोडने का एजिगं वर्क भी नहीं कराया।
अन्ततःमन्त्री का वह दौरा ठीक-ठाक निबट गया था। समय से मस्टर रोल का भी पेमेण्ट हो गया और कई दिन निकलने के बाद भी ई. ई. तक उसका हिस्सा नहीं पहँचा तो धैर्य खोकर उसने अपने प्रिय बाबू सिघंई को यादव साहब तक पहँचाया था हिस्सा पहंँचाने का आदेश देकर और यादव साहब ने खिन्न स्वर में जबाब दे दिया था कि मस्टर रोल में से पैसा खाना और खिलाना उसके सिद्धान्त के खिलाफ है ।आइन्दा ई.ई.साहब मुझे कोई ऐसा काम प्रदान न करें ।ेे
ई.ई.को अखर गई थी और वह मौके का इन्तजार करने लगा था।
विधायक की मेहनत रंग लाई और इस रोड के लिए रिन्यूअल स्वीकृत हो गया। टेण्डर निकाले गये । मिल-जुल कर र्ई.इ्र. ने अपने र्र्रिस्तेदार वंसल का टेण्डर पास करा दिया और वर्क आडर जारी कर दिया काम शुरू हुआ। तीन इंच की पर्त बिछाने का ठेका है, यह सोचकर ठेका लेने वाले बंसल ठेकेदार को यादव साहब के चक्कर में फँसकर चार इंच की लेयर डालनी पड रही थी । क्यों कि पुराने गड्डे अभी पूरे नहीं भरे थे , जब कि वह दो इंच की लेयर डालने के चक्कर में था। एक किलोमीटर बीतते-न-बीतते बंसल बोखला उठा। उसने साफ घोषणा कर दी कि वह भुगतान का न 3 प्रतिशत एस.डी. ओ. को देगा और न 10 प्रतिशत दफ्तर के लोंगो को देगा ।ई. ई. को और सब इंजीनियर को तो देने का सवाल ही नहीं है ।
ठेका पूरे ढाई करोड का था। सारे जिल में हंगामा था इस काम का लेकिन यहाँ तो मामला ठन-ठन गोपाल होने जा रहा था और वह भी इस हरिश्चन्द्र की औलाद यादव की बजह से । फिर क्या था। दुन्दभी बजने लगी । वीर सजने लगे । गोला-बारूद इकट्ठा होने लगा । बाकायदा बंसल से शपथ पत्र पर शिकायत लिखाई गई । गुणवŸाा नियन्त्रण-कक्ष सक्रिय हुआ। ई.ई ने एक आयोग जारी कर दिया सारे गडबड की जाँच के लिए। जगह-जगह रोड खोदी गई । पर्त की मोटाई नापी गई और कमीशन ने अपना प्रतिवेदन बंसल के पक्ष में दिया। सारा मामला अपनी टिप्पणी के साथ एस.ई को भेज दिेया ।
उधर यादव साहब पर इन बातेां का कोई असर न था। ठेके में कहीं भी पर्त की मोटाई का जिक्र न था और उन्होंने ठेकेदार से ज्यादा काम करा भी लिया तेा क्या हुआ?काम सरकारी हित में कराया गया है। किसी के आँगन में नहीं हुआ यह काम । वे तेज गति से काम कराते रहे । काम अच्छे-से-अच्छा हो रहा था और एक-एक इंच की पैमाइस चल रही थी । अपनी एम.बी. यानि मेजरमेण्ट बुक(माप पुस्तिका )में यादव साहब ने कुछ नहीं छिपाया था उनकी नियत में कोई खोट नहीं थी फिर काहे के लिए वे कुछ छिपाते!े
एस.ई.के यहाँ से फाइल लौटने में एक महीने की देर हुई तो र्ई.इ्र. जैन खुद मिलने जा पहँचा वहाँ और अपने मन मुताबिक आदेश करा लाया। तब तक पी.डब्ल्यू. डी के आठों रोलर और ठेकेदार की मजदूरों की मदद से यादव साहब पूरी रोड का काम निपटा चुके थे ।रोड लकदक थी,एकदम टनाटन ।ठेकेदार की मजबुरी थी कि काम समय सीमा में पूरा करना था और फिर ई.ई. का आश्वासन भी था कि उसके एक-एक पैसे का भुगतान करा लेंगे हम लोग। वह तेा निस्संकोच काम किए जाए ।
फिर यादव साहब से एक दिन र्ई.इ्र.ने सारी मेजरमेंण्ट बुक्स अपने दफ्तर में मँगवाई और जब्त कर लीं । कीचड में फिके पत्थर के कुछ छींटे तो उनके दामन तक आएँगे,ऐसी आसकंा यादव साहब को भी थी । इसलिए वे शान्त मन से रिकार्ड जब्त कराके अपने घर लौट आए।
दस दिन बाद यादव साहब को एक इŸिाला मिली थी ,जिसमें उनके पुरानी मस्टर रोल के झूठे होने की आंसका व्यक्त कर उन पर गबन का आरोप लगाया गया था। ठेकेदार द्वारा कराए गए काम की एम.बी.को आधार बनाकर ई.ई.ने उन्हें लिखा था कि जब चार इंच के गड्डे भरने का पूरा काम ठेकेदार ने ही किया तो उन्होंने पेच वर्क किन गड्डों का करा डाला ?अगर वे दोनों गड्डे एक ही रोड पर थे तो कितने गहरे थे ,कि उनको दो-दो बार भरने का काम कराना पडा। आरोप-पत्र का जबाब दस दिन में देना था और पत्र जारी होने के दसवें दिन दिन यादव साहब के पास पहँचा था वह पत्र।
वे उस पर विचार करते कि अगले दिन एक निर्णय पत्र उन्हें थमा दिया गया था। पुराने मस्टर रोल के पूरे खर्च छŸाीस हजार तीन सेा पिचहŸार की राशि उनके वेतन से काटी जाएगी। पत्र पाकर यादव नाराज हुए। अपना पक्ष रखा । न्याय के सिद्धान्त बताऐ । शासन के आदेश सुनाए। लेकिन कौन सुनता?ई.ई. की डोर से जुडा एस.ई.काहे को एक अदने से सब-इंजीनियर पर विश्वास करेगा ।
किसी तरह यूनियन को मामले की हवा लगी तो इंजीनियर नेता सक्रिय हुए। बात उछाली गई । यादव साहब की ईमानदारी का हवाला दिया गया । मगर मसल वही हुई कि धनी ढीले,दलाल चुस्त । खुद यादव साहब विभाग से नहीं उलझना चाहते थे। सो बात ठन्डी हो गई।
ई.ई. को अपने मन की करने की छूट मिल गई । फिर उसकी शह पर यादव साहब के उत्पीडन का दौर शूरू हुआ। उनके हर बिल में आबजेक्सन आते । हर माह उनकी तनख्वाह अटकती । हर निर्माण -कार्य में गुण्वŸाा की कमी निकलती और उन्हें बेतरह डाँटा जाता। उन दिनों वे बहुत तनाव में थे ।
प्रायःसाँझ के समय उनका लौटना उसी वक्त होता जब मैं बाहर लोन में बैठकर हवाखोरी कर रहा होता। नमस्कार करके मैं उन्हें चाय पीने का आमन्त्रण देता, प्रायःजिसे थकेेेे और श्लथ यादव साहब विनम्रता पूर्वक ठुकरा देते थे ।यदा-कदा यह कहते हुए वे चाय पी लेते जैसे सम्पन्न लोगों के यहाँ की अच्छी गाडी चाय पीकर हमारी तो जीभ ही चटोरी हो जाएगी । आपका क्या,सरकारी नौकर तो है नहीं कि बध्ंाी -बधाई तनख्वाह में गुजर करनी है।
इस तरह मेरा उनसे संवाद होने लगा था। इर्द-गिर्द की लोह-दीवार दरकने लगी थी । वे कुछ खुलने लगे थे ।
में प्रायः पुछ लेता -‘‘यादव साहब,आज के जमाने में एसी सिद्धान्तवादिता आपने क्यों ओढ ली ?कैसे चला पाँएगे आप?’’
‘‘चल जाएगी शर्माजी, जैसे अब तक चलती रही । छब्बीस साल की नौकरी हो गई है मेरी । बस कुछ वर्षों बाद ही प्रमोशन होना है। ख्ंिाच जाएगी जिन्दगी ।’’
एक दिन मैने ज्यादा गहराई से पुछा तो उन्होंने अपने बचपन का संघर्स सुनाया था ैपिता का परिचय दिया था और उनका इतिवृŸा मेरे सामने खुलता चला गया था।
अपने मजदूर पिता की आर्थिक सीमाओं के बाद भी उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा गणित विषय लेकर पास कर ली थी। ग्यारहवीं में प्रवेश लिया तो पिता ने आगे पढाने से मना कर दिया था। भाग-दोड करके उन्होंने चार-पाँच टयूशनों की जुगाड कर ली थी और अपना पढाई खर्च निकालने लगे थे। जैसे -तैसे इण्टर किया था और वह भी अच्छे नम्बरों के साथ। अंकसूची के जगमगाते प्राप्ताकों के सहारे उन्होंने पोलीटेकनिक में प्रवेश के लिए आवेदन किया। पहली ही सूची में उनका नाम आ गया था। पिता को मनाने का सिलसिला एक बार फिर शुरू हुआ लेकिन अपनी बैलगाडी के सहारे दिनभर अनाज ढोने वाले उनके पिता की आमदनी में पोलीटेकनिक का खर्च निकलना बडा मुश्किल था, सो वे हाँ नहीं कर पाए ।
यादव साहब को शुरू से ही अच्छे अक्षर लिखने का सोख था। मस्तिष्क में विचार आया तो एक दिन रंग और ब्रुश खरीद डाले । फिर शोकिया ढंग से यहाँ-वहाँ कुछ लिखना शुरू कर दिया। पहले वाटर कलर से और बाद में आयल पेन्ट से वे बैनर और बोर्ड लिखने लगे । धीमे-धीमे एक पेन्टर के रूप में उन्हें कस्बे में जाना जाने लगा। फिर काम मिलने लगा और वे अपनी पढाई पूरी करने में जुट गये थे। रात में पेंण्टिग करते , दिन में पढने जाते ।
रात-दिन के परिश्रम से आँखों में कमजोरी आ गई और चश्मा लग गया। प्रायः बीमार रहने लगे । कभी-कभार पिता उनके पास आते और स्नेह भरा हाथ सिर पर रख कर तबियत के बारे में पूछते । अपनी आर्थिक सीमाएँ बताते, बहन और छोटै भाई के खर्चों का विवरण सुनाते तो वे चुप लगा जाते । पिता की बातों से लगता था,कि वे भी कोर्स परा होने की प्रतीक्षा में हैं,जानते है वे भी , कि ओवरसियर की ऊपर की आमदनी कितनी है। उनकी इच्छा थी ,कि जल्दी ही यह कोर्स पूरा हो जिससे जन्म-जिन्दगी का दारिद्रय दूर हेा जाए।
अन्ततः कोर्स पूरा हुआ और महीना बीतते-न-बीतते उनकी नौकरी लग गई । पहले- पहलेजो आदेश आया वह पी.डब्ल्यू.डी. का था। बिना सोचे -विचारे यादव साहब ज्वाइन करने चले आये थे । उन्हीं दिनों हुआ था ,वह हादसा, जिसमें कुल चालीस बच्चे मारे गये थे। नए बने स्कूल की पूरी छत भरभराकर गिरी थी और हँसते-खेलते अबोध जीवन उसके नीचे दब गये थे ।
बिल्डिंग के ठेकेदार और सब इंजीनियर को गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमा शुरू कर दिया था।ेनोजवान यादव का छात्र जीवन से पतला सुनहरा सपना जीवन की कठोर सच्चाईयों से रूवरू हो रहा था। पिता की हसरतें पूर होने जा रहीं थी कि उन्होंने एक कठोर निर्णय कर डाला था । वे कभी भी रिश्वत नहीं लेगंे हर बार के होने वाले भुगतान के पहले उनके मन में द्वन्द्व शुरू हो जाता । वे रिश्वत लेने के मुद्दे पर अपने आप से भिडते रात-भर सोचते । बहन के बारे में सोचते । भाई की इच्छाओं के विषय में विचार करते। लेकिन यह न स्वीकार कर पाते कि वे लोंगो के जीवन से खिलवाड करना शुरू कर दें । धीरे-धीरे एक दृढ और ईमानदार व्यक्ति जन्म ले रहा था उनके भीतर । े
उन्हें कभी तेा अकल आएगी यह इन्तजार करते-करते पिता चल बसे । माँ भी गई ।पत्नी आई और थोडे में गुजारा करने के काम में अपने आप को प्रशिक्षित करने लगी। जैसे -तैसे करके बहिन का विवाह किया और भाई को धन्धे से लगाकर उसका भी विवाह कर दिया । पर उन्होंने रिश्वत लेना शुरू नहीं किया तो नहीं ही किया ।
उनका मन छŸाीसगढ में लग गया था। वहाँ न ज्यादा षडयन्त्र थे, न टुच्ची राजनीति। न घटिया काम करने वाले ठेकेदार थे और न ओछे पत्रकार। वे उधर ही अपनी नौकरीी पूरी करने के चक्कर में थे । एक लडकी और एक लडका के साथ छोटा- सा परिवार था जिसकी गुजर-बसर हो रही थी । पत्नी सुहागिन ने जिद की और छोटे भाई ने भाग-दौड करके अन्ततः उनका तबादला वहाँ से इधर करा लिया था। पर वे इधर आ कर संतुष्ट न थे।
यादव साहब अपने साथ घटी तमाम घटनाऐं सुनाया करते थे। कभी किसी की नाराजगी की तो कभी किसी की उदारता की ।
उनकी पत्नी और बच्चों से भी मेरा परिवार खुलने लगा था कभी मेरी पत्नी वहाँ चली जाती तो कभी वह हमारे यहाँ आ जाती । एक दिन मेरी पत्नी ने पूछा था सुहासिनी से-‘‘आपके असंतुष्टि नहीं होती कभी ? आसपास के दुसरे सब इंजीनियरों के ठाट-बाट और शन -शोकत देखकर कभी तो कोफ्त होती होगी!’’
शुरू में टालती रही थी फिर एक दिन फट पडी थी -‘‘क्या बताएँ दीदी ,बहुत परेशानी उठाई है, इनके साथ हमने । न ढंग से पहन पाए हैं , और न ढंग से रह सके हैं अब भला थोडी सी तनख्वाह से गुजारा कहाँ होता है आजकल ?इस पर इनकी बहन की शादी और भाई को इलेक्ट्रिक की दुकान डालने में एक लाख खर्च हो गया है ।वो तेा मेरा मायका समृद्ध है जो मौका- बे-मौका मदद आती रहती है वहाँ से , नहीं तो राम ही जाने क्या होता? बच्चे टी. वी. देखने को तरसते हैं, और इनसे कहो तो डाटते हैं ,कि दुनियाँ के सभी बच्चे टी. बी. नहीं देखते हैं पढाई करो । नन्हें बच्चों के लिए मुझको सुननी पडती है। न खुद पहनते हैं । और न हमें पहना पाते हैं ,ढंग के कपडे । बच्चे तो कई बार स्कूल जाने को कतराते हैं कि उन्हें सभी चिडाते हैं वहाँ सस्ते से कपडे और हल्के जूता-चप्पल पहना कर रखते हैं हम उन्हें और उस पर भी समय की मार देखो कि इन दिनों आधी तनख्वाह कट रही है ।इनसे कहा कि कोर्ट में जाओ,अदालत में दावा करो , मगर सुनते ही नहीं । कहेंगे, पकी-पकाई नौकरी है। विभाग से दश्मनी मोल नहीं लेंगे हम कहेगे कि बहुत कर ली सरकार की बफादारी अब छोडो ये सब न लो रिश्वत लेकिन टाइम से काम तो करो । सरकार के चौबीस घण्टे के गुलाम तो नहीं हैं हम कि रात हो या सुबह ,काम ही खोले बैठै रहें तो मानते नहीं हैं अब भला बिना जाँच और ईमानदारी के सरकारी काम का पैसा कटना अन्याय नहीं तो क्या है?लेकिन इन्होंने तो ऐसी चुप्पी साध ली है कि बस ’’े
उन्हीं दिनों मायूस से यादव से मुलाकात हुई तो वे अपनी पीडा छिपा नहीं पाए थे।
तब मुझे जानकारी मिली थी कि वे अब निराश होने लगे हैं ईमानदारी और कर्मनिष्ठता से नहीं बल्कि इस मैदानी क्षेत्र से । वे पुनःवनवासी अंचल में लौट जाना चाहते थे । और इसके लिए ट्रान्सफर की दरख्वास्त भी दे दी थी ै उन्होंनंे वे बेकरारी से स्थानांन्तरण पत्र का इन्तजार कर रहे थे लेकिन काम में तत्परता उन दिनों भी उनसे नहीं गई थी । वे भोपाल जा कर अपना टाªसंफर करवाने के लिए ई. एन.सी.से मिलने वाले थे।जिस दिन उनका जाना मुकर्रर था उसके एक दिन पहले मैनें बात चलाई थी --‘‘यादव साहब ,उधर छŸाीसगढ के जिस गाँव में आप टाªसंफर चाहते हैं वहाँ बच्चों की पढाई के लिए उपयुक्त स्कूल तो होगा नहीं ।’’ेेेे
यादव साहब चुप रह गऐ थे । उनकी ठन्डी आँखों में छिपी सचाई मुझे आज भी याद है जो शब्द तो न पा सकी थी ,पर बात पूरी कह गई थी , कि बच्चों का स्कूल देखें या खुद का मानसिक संतुलन।
लेकिन इस वर्ष यादव साहब का टाªंसफर हो नहीं पाया और वे फिर काम में जुट गये हैं ,जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। उनके दरवाजे पर फिर से मातहतों और अफसरों की भीड जुटने लगी है और उनका रतजगा फिर शुरू हो गया है।
यह उनकी निष्ठा है ,या मजबुरी,वे ही जाने लेकिन बŸाीस दाँतों में रहती इस बेचारी जीभ की कुशलता को लेकर चिंतित हॅं ।

kahani adat 1





आदत
स्टेट हाइवे नं. एक सौ पन्द्रह के किलोमीटर क्रमांक 1 से 30 तक की चकाचक सड़क देखकर नेशनल हाइवे वाले भी लज्जा खाते हैं । यह सड़क मेरे कस्बे को महानगर से जोड़ती हुई आगे निकल जाती है ।
लीला का ढाबा इसी रोड पर छटवें किलोमीटर पर है और वनस्पति घी की फैक्ट्री भी इसी मार्ग में ग्यारहवें किलोमीटर पर बनी है । पुरानी गुफाएँ और पहली शताब्दी में बने प्राचीन जैन मन्दिर भी इसी रोड पर हैं ।
आज मैं बहुत फुर्सत में हूँ , जनाब । चलिये कोई किस्सा हो जाये । लीला के लीला के ढाबे का ठीक रहेगा ...न-न, आज वह नहीं और वनस्पति घी की कहानी भी नहीं । वह फिर किसी दिन सही । जैन मन्दिर से जुड़ी कहानी जरूर सुन सकते हैं । लेकिन मेरी दिली इच्छा है, कि आज इन में से कोई कहानी न सुनें । मैं आप को कुछ और सुनाना चाहता हूँ ।
आज आप को यादव साहब की कहानी सुनाने को जी चाह रहा है । सुनेगं आप ?शायद यादव सरनेम से आप समझे नहीं हैं, अरे वही मेरे पड़ोसी यादव साहब जिनके दरवाजे पर टाइम कीपर से लेकर असिस्टेण्ट इंजीनियर तक गाड़ी लिये खड़े नजर आते हैं । नाक पर मोटा चश्मा और बदन पर ढीले-ढाले सूट को किसी तरह उलझाए यादव साहब को आप हमेशा ही सर्वेे नक्शा ड्राइंग रूम और इस्टीमेट से उलझे हुए पाएँगे । काम के कीड़ा हैं । चौबीस में अठारह घण्टे तक काम करते हैं । कहने को सब-इंजीनियर हैं मगर अनुभव किसी एक्जीक्यूटिव इंजीनियर से कम नहीं है । अरे भई छब्बीस साल की सर्विस छत्तीसगढ़ में पूरी हुई है । यहाँ तो अभी आए हैं - दो साल पहले ।
छत्तीसगढ़ में हर तरह का काम कराया है, यादव साहब ने । मजाल क्या कि सुपरिटेण्डेण्ट इंजीनियर ने भी उनके काम में नुक्श निकाली हो । एक वर्ष दिल्ली भी रह आए हैं, म.प्र. भवन में इंचार्ज ऑफिसर बनके मगर क्या हिम्मत कि एक पैसे का भी किसी ने कलंक लगाया हो । ठेकेदार तो इनका नाम सुनकर ही घबराते हैं, अरे बाप रे ! यादव साहब से तो राम बचाए । एक-एक इंच का काम देखेंगे, भुगतान तब होने देगें ।
अपने टाइमकीपर और असिस्टेण्ट (सब-ओवरसियर) को ही लगातार फटकारते रहते हैं वे । ये नहीं देखा, वो नहीं देखा । इतना नुकसान हो गया, उतनी बरबादी हो गई । गवर्नमेण्ट का इताना नुकसान कौन भरेगा अब ? तुम्हारी लापरवाही से सब हुआ है, तुम्हारी ही तनख्वाह से काटा जायेगा और हर माह बेचारे टाइमकीपर या असिस्टेण्ट को सौ-पचास रूपये भरने पड़ते हैं । मौका पड़ने पर खुद अपनी तनख्वाह काट लेते हैं, यादव साहब । सभी राम -राम करके दिन निकालते हैं । परमानेण्ट गेंग हो या टेम्परेरी गेंग, यादव साहब खुद सारा काम देखते हैं । लेबर को काम करने का तरीका सिखाते हैं, खुद काम करके । चाहते हैं, गवर्नमेण्ट की आठ घण्टे की ड्यूटी हो सके, तो दस घण्टे काम लिया जाए, काम चोरी न हो पाए । सोते - जागते गवर्नमेण्ट की ही सोचते हैं ।
उनकी बिरादरी के दूसरे सब -इंजीनियर पीठ पीछे हँसी उड़ाते हैं । अटठाइस बरस की नौकरी और घर में अटठाइस हजार का भी सामान नहीं हैं । बच्चे टी. वी. को तरसते हैं, मगर उन्हें टेप या ट्राजिस्टर तक नसीब नहीं होता । बैठक मैं एक सोफा भी नहीं है कि आगत व्यक्ति बैठ जाये । बस लोहे की छड़ी से बनी और बैत की बुनी चार कुर्सी पड़ी हुयीं हैं, उन्हीं पर सब आकर बैठ जाते हैं, बतियाते हैं और चले जाते हैं मगर यादव साहब को किसी की फिक्र नहीं है वे तो अपनी टेविल पर फैले नक्शे में खोये हैं । कभी अर्थ वर्क वाली सड़क तो कभी ऐसफाल्टिंग वाली रोड सामने पसरी है । कभी किसी पुलिया का प्लान सामने फैला है और मुँह में जर्दे की चुटकी दवाये यादव साहब उसमें डूबे हुए हैं । मैंने देर रात को उनकी बैठक की लाइट को सदा जलते ही पाया है । खुद जागते हैं, और बीच -बीच मैं पत्नी को जगाते हैं, चाय के लिए । हर घण्टे पर उन्हें एक कप चाहिए । फिर यादव साहब निश्चिन्त हो जाते है, अगले एक घण्टे तक जागने के लिये ।
अगले दिन मैं उनसे पूछा - ‘‘ यादव साहब, कल देर रात तक जागते रहे , क्या बात है ? कोई विशेष काम आ गया ?’’ बस इतना सुनकर गम्भीर हो जाते और ढेर सारे काम दिखा देते , फिर अपने मात हत लोगों का रोना रोते - ‘‘ क्या बताऊँ शर्माजी, लोग काम ही नहीं करना चाहते । मजदूर चाहता है, मैं सिर्फ दो घण्टे काम करू और बैठकर बीड़ी पीता रहूँ । अरे भाई, फिर काम कौन करेगा ? कैसे चलेंगीं ये सरकारी योजनाएँ ? कैसे होंगे सरकरी काम ? मैं उनकी बात हँसी मैं टाल देता और कहता -‘‘साहब ! आपको क्या ए. जी. ने खास तौर से नियुक्त किया है । कि सरकारी धन की बरबादी रोकते फिरो ! अरे साहब काहे को गरीब लोगों की बददुआ लेते हो । मजे करने दो लोगों को । खाओ और खिलाओ । ऊपर के लोग भी ऐसे हैं ,आप अकेले क्या कर लेगें ?’’
सुनकर वे नाराज हो जाते और कहते - ‘‘ सरकारी ड्यूटी पूरा कराने में काहे की बद्दुआ ? आलसी आदमी को दण्ड देना ही पड़ेगा नहीं तो कैसे चलेगा काम -धाम ?और फिर सरकारी पैसा बीच में खा जाना तो विष्टा खाना है । अरे भाई, मस्टर खोला जाता है, जनता के जरूरी काम के लिए, सुरक्षा के लिये और हम उसे बीच में ही गायब कर दें तो विष्टा खाना नहीं हुआ ? भाई , सरकार हमें तन्ख्वाह देती है, हमारी मालिक है, हमारा परिवार पालती है । हम उससे कैसे गद्दारी करदें । प्राइवेट कम्पनियाँ निचोड़ लेतीं हैं, आदमी को तब छोड़ती हैं । ’’
मैं चुप रह कर सुनता रहता । बस इससे ज्यादा यादव साहब कभी न खुलते थे । एक लोह कवच उनके इर्द-गिर्द व्याप्त था ।
एसे यादव साहब पर उस नये इंजीनियर ने आरोप लगा दिया कि वे सरकारी धन का गवन कर गये हैं और उसकी कीमत वर्मन साहब की तनख्वाह से काटी जायेगी । यादव साहब खूब तमतमाये और चिल्लाये । वह उनकी सही बात काहे को सुनेगा । उसने बसूली के आदेश दे दिये । सेा आज कल यादव साहब की तनख्वाह से आधी रकम कट जाती है । गरीबी में गीला आटा हो रहा है, खर्च चलना मुश्किल है परन्तु यादव साहब के उत्साह में कोई फर्क नहीं है । वे उसी उत्साह से अपने काम में लगे हैं । कभी किसी ऐस्टीमेट में उलझे दिखते हैं तो कभी ब्लूप्रिंट में । माथे पर जरा भी शिकन नहीं है । धन्य हैं, यादव साहब ।
मैंने सारा माजरा पूछा भी तो मुस्करा कर चुप रह गये । बताया कुछ नहीं । उनकी इसी हँसी के पीछे कितना दर्द छुपा हैं , यह आँखों से नहीं दिखता बल्कि अनुभव किया जा सकता है । मैंने अनुभव किया है कि उनकी पत्नी अब रोज सब्जी नहीं खरीदतीं हैं । उनके घर रोज अखवार भी नहीं आ रहा है । शयद दूध भी बन्द कर दिया गया हैं । लेकिन पड़ोसी होने के बाद भी प्रगट में मुझे कुछ पता नहीं है । वो तो मैने उस दिन उनके टाइम कीपर को बाहर खड़े देखा, तो यादव साहब के घर पर मौजूद न होने का अन्दाज लगा । टाइमकीपर को अपने घर बैठा लिया था । तब उसने डरते-डरते मुझे गवन वाला किस्सा सुनाया है ।
दरअसल सारा झमेला शुरू हुआ था नये एक्जीक्यूटिव इंजीनियर के आगमन के साथ । नया आदमी होने से न तो ई. ई. जैन को ये पता था कि यादव साहब का स्वभाव क्या है, प्रकृति क्या है, और विचार क्या है ? और न ही वह इस बात के लिए तैयार था, कि किसी भी प्रकार का बिल बिना लिए-दिए पास किया जाए । अपने दूर के रिश्तेदार को उसने ठेकेदार के रूप में रजिस्टर्ड करा दिया था और एन-केन प्रकारेण उसे कोई ठेका उसे दिला ही देता था । सब कुछ सामान्य गति से चल रहा था ।
अचानक जिले में लोक निर्माण मंत्री का दौरा घोसित हो गया और जब दौर का प्रोग्राम आया तेा पी.डब्लू.डी.वाले सब लोग परेशान हो उठे थे । मंन्त्री जी की कार को उस रास्ते से होकर निकलना था, जो यादव साहब के चार्ज में था। कहने को वह रोड स्ैटट हाई वे थी । वही रोड वनस्पति घी की फेक्ट्री तथा पुरातन गुफाएँ और मन्दिर को जोडती थी लेकिन यादव साहब के कई प्र्रस्तावों के बाद भी वषों से उस रोड पर मरम्मत - कार्य नहीं हो पाया था इस कारण उसकी हालत किसी एप्रोच रोड जैसी हो गई थी । जगह-जगह हो गये गड्डे और कदम-कदम पर उखडे डामर ने हालत ये कर दी थी कि तीस किलोमीटर का यह टुकडा पार करते-करते दो घण्टे खर्च हो जाते थे।
आनन-फानन में बैठक बुलाई गई और जिले का सारा पैसा बटोरकर उसी टुकडे पर झोंकने का निर्णय लिया गया। पूरे मनोयोग से यादव साहब ने रोड के गड्डे भरने का पेंचवर्क कराना शुरू किया ही था ,कि तैयारी देखने आए विधायक ने रोड की दुर्दशा देखकर बुलन्दी से घोषणा कर दी कि पन्द्रह दिन के भीतर जैसे भी होगा इस रोड पर नया कारपेट बिछना शुरू हो जाएगा । विधायक की बात में दम था । जिसे एस. ई. ने भी स्वीकार किया और यादव साहब से अच्छा काम कराने के लिए विशेष आग्रह किया गया था। तमाम जगह मस्टर बन्द होने के बाद भी इस रोड पर मस्टर वर्क स्वीकृत किए गए और सर्कल आफिस का स्टोर यहाँ के लिए उदारतापूर्वक खोल दिया गया।
यह काम कराते वक्त भी यादव साहब के मस्तिष्क से शाषकीय धन की चिन्ता नहीं छूटी । उन्होंने जब इस रोड पर कारपेट बिछाना ही ही है और उसमें ठेकेदार का निजी सामान खर्च होना है तो विभागीय सामान की अधिक बरबादी क्यों की जाय। फिलहाल काम चलाने लायक लीपा- पोती कर ली जाए और बाद में ठेकेदार के सामान से जी खोलकर काम कराया जाए।
मस्टर वर्क में यादव साहब ने इसी कारण सडक के किनारे जोडने का एजिगं वर्क भी नहीं कराया।
अन्ततःमन्त्री का वह दौरा ठीक-ठाक निबट गया था। समय से मस्टर रोल का भी पेमेण्ट हो गया और कई दिन निकलने के बाद भी ई. ई. तक उसका हिस्सा नहीं पहँचा तो धैर्य खोकर उसने अपने प्रिय बाबू सिघंई को यादव साहब तक पहँचाया था हिस्सा पहंँचाने का आदेश देकर और यादव साहब ने खिन्न स्वर में जबाब दे दिया था कि मस्टर रोल में से पैसा खाना और खिलाना उसके सिद्धान्त के खिलाफ है ।आइन्दा ई.ई.साहब मुझे कोई ऐसा काम प्रदान न करें ।ेे
ई.ई.को अखर गई थी और वह मौके का इन्तजार करने लगा था।
विधायक की मेहनत रंग लाई और इस रोड के लिए रिन्यूअल स्वीकृत हो गया। टेण्डर निकाले गये । मिल-जुल कर र्ई.इ्र. ने अपने र्र्रिस्तेदार वंसल का टेण्डर पास करा दिया और वर्क आडर जारी कर दिया काम शुरू हुआ। तीन इंच की पर्त बिछाने का ठेका है, यह सोचकर ठेका लेने वाले बंसल ठेकेदार को यादव साहब के चक्कर में फँसकर चार इंच की लेयर डालनी पड रही थी । क्यों कि पुराने गड्डे अभी पूरे नहीं भरे थे , जब कि वह दो इंच की लेयर डालने के चक्कर में था। एक किलोमीटर बीतते-न-बीतते बंसल बोखला उठा। उसने साफ घोषणा कर दी कि वह भुगतान का न 3 प्रतिशत एस.डी. ओ. को देगा और न 10 प्रतिशत दफ्तर के लोंगो को देगा ।ई. ई. को और सब इंजीनियर को तो देने का सवाल ही नहीं है ।
ठेका पूरे ढाई करोड का था। सारे जिल में हंगामा था इस काम का लेकिन यहाँ तो मामला ठन-ठन गोपाल होने जा रहा था और वह भी इस हरिश्चन्द्र की औलाद यादव की बजह से । फिर क्या था। दुन्दभी बजने लगी । वीर सजने लगे । गोला-बारूद इकट्ठा होने लगा । बाकायदा बंसल से शपथ पत्र पर शिकायत लिखाई गई । गुणवŸाा नियन्त्रण-कक्ष सक्रिय हुआ। ई.ई ने एक आयोग जारी कर दिया सारे गडबड की जाँच के लिए। जगह-जगह रोड खोदी गई । पर्त की मोटाई नापी गई और कमीशन ने अपना प्रतिवेदन बंसल के पक्ष में दिया। सारा मामला अपनी टिप्पणी के साथ एस.ई को भेज दिेया ।
उधर यादव साहब पर इन बातेां का कोई असर न था। ठेके में कहीं भी पर्त की मोटाई का जिक्र न था और उन्होंने ठेकेदार से ज्यादा काम करा भी लिया तेा क्या हुआ?काम सरकारी हित में कराया गया है। किसी के आँगन में नहीं हुआ यह काम । वे तेज गति से काम कराते रहे । काम अच्छे-से-अच्छा हो रहा था और एक-एक इंच की पैमाइस चल रही थी । अपनी एम.बी. यानि मेजरमेण्ट बुक(माप पुस्तिका )में यादव साहब ने कुछ नहीं छिपाया था उनकी नियत में कोई खोट नहीं थी फिर काहे के लिए वे कुछ छिपाते!े
एस.ई.के यहाँ से फाइल लौटने में एक महीने की देर हुई तो र्ई.इ्र. जैन खुद मिलने जा पहँचा वहाँ और अपने मन मुताबिक आदेश करा लाया। तब तक पी.डब्ल्यू. डी के आठों रोलर और ठेकेदार की मजदूरों की मदद से यादव साहब पूरी रोड का काम निपटा चुके थे ।रोड लकदक थी,एकदम टनाटन ।ठेकेदार की मजबुरी थी कि काम समय सीमा में पूरा करना था और फिर ई.ई. का आश्वासन भी था कि उसके एक-एक पैसे का भुगतान करा लेंगे हम लोग। वह तेा निस्संकोच काम किए जाए ।
फिर यादव साहब से एक दिन र्ई.इ्र.ने सारी मेजरमेंण्ट बुक्स अपने दफ्तर में मँगवाई और जब्त कर लीं । कीचड में फिके पत्थर के कुछ छींटे तो उनके दामन तक आएँगे,ऐसी आसकंा यादव साहब को भी थी । इसलिए वे शान्त मन से रिकार्ड जब्त कराके अपने घर लौट आए।
दस दिन बाद यादव साहब को एक इŸिाला मिली थी ,जिसमें उनके पुरानी मस्टर रोल के झूठे होने की आंसका व्यक्त कर उन पर गबन का आरोप लगाया गया था। ठेकेदार द्वारा कराए गए काम की एम.बी.को आधार बनाकर ई.ई.ने उन्हें लिखा था कि जब चार इंच के गड्डे भरने का पूरा काम ठेकेदार ने ही किया तो उन्होंने पेच वर्क किन गड्डों का करा डाला ?अगर वे दोनों गड्डे एक ही रोड पर थे तो कितने गहरे थे ,कि उनको दो-दो बार भरने का काम कराना पडा। आरोप-पत्र का जबाब दस दिन में देना था और पत्र जारी होने के दसवें दिन दिन यादव साहब के पास पहँचा था वह पत्र।
वे उस पर विचार करते कि अगले दिन एक निर्णय पत्र उन्हें थमा दिया गया था। पुराने मस्टर रोल के पूरे खर्च छŸाीस हजार तीन सेा पिचहŸार की राशि उनके वेतन से काटी जाएगी। पत्र पाकर यादव नाराज हुए। अपना पक्ष रखा । न्याय के सिद्धान्त बताऐ । शासन के आदेश सुनाए। लेकिन कौन सुनता?ई.ई. की डोर से जुडा एस.ई.काहे को एक अदने से सब-इंजीनियर पर विश्वास करेगा ।
किसी तरह यूनियन को मामले की हवा लगी तो इंजीनियर नेता सक्रिय हुए। बात उछाली गई । यादव साहब की ईमानदारी का हवाला दिया गया । मगर मसल वही हुई कि धनी ढीले,दलाल चुस्त । खुद यादव साहब विभाग से नहीं उलझना चाहते थे। सो बात ठन्डी हो गई।
ई.ई. को अपने मन की करने की छूट मिल गई । फिर उसकी शह पर यादव साहब के उत्पीडन का दौर शूरू हुआ। उनके हर बिल में आबजेक्सन आते । हर माह उनकी तनख्वाह अटकती । हर निर्माण -कार्य में गुण्वŸाा की कमी निकलती और उन्हें बेतरह डाँटा जाता। उन दिनों वे बहुत तनाव में थे ।
प्रायःसाँझ के समय उनका लौटना उसी वक्त होता जब मैं बाहर लोन में बैठकर हवाखोरी कर रहा होता। नमस्कार करके मैं उन्हें चाय पीने का आमन्त्रण देता, प्रायःजिसे थकेेेे और श्लथ यादव साहब विनम्रता पूर्वक ठुकरा देते थे ।यदा-कदा यह कहते हुए वे चाय पी लेते जैसे सम्पन्न लोगों के यहाँ की अच्छी गाडी चाय पीकर हमारी तो जीभ ही चटोरी हो जाएगी । आपका क्या,सरकारी नौकर तो है नहीं कि बध्ंाी -बधाई तनख्वाह में गुजर करनी है।
इस तरह मेरा उनसे संवाद होने लगा था। इर्द-गिर्द की लोह-दीवार दरकने लगी थी । वे कुछ खुलने लगे थे ।
में प्रायः पुछ लेता -‘‘यादव साहब,आज के जमाने में एसी सिद्धान्तवादिता आपने क्यों ओढ ली ?कैसे चला पाँएगे आप?’’
‘‘चल जाएगी शर्माजी, जैसे अब तक चलती रही । छब्बीस साल की नौकरी हो गई है मेरी । बस कुछ वर्षों बाद ही प्रमोशन होना है। ख्ंिाच जाएगी जिन्दगी ।’’
एक दिन मैने ज्यादा गहराई से पुछा तो उन्होंने अपने बचपन का संघर्स सुनाया था ैपिता का परिचय दिया था और उनका इतिवृŸा मेरे सामने खुलता चला गया था।
अपने मजदूर पिता की आर्थिक सीमाओं के बाद भी उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा गणित विषय लेकर पास कर ली थी। ग्यारहवीं में प्रवेश लिया तो पिता ने आगे पढाने से मना कर दिया था। भाग-दोड करके उन्होंने चार-पाँच टयूशनों की जुगाड कर ली थी और अपना पढाई खर्च निकालने लगे थे। जैसे -तैसे इण्टर किया था और वह भी अच्छे नम्बरों के साथ। अंकसूची के जगमगाते प्राप्ताकों के सहारे उन्होंने पोलीटेकनिक में प्रवेश के लिए आवेदन किया। पहली ही सूची में उनका नाम आ गया था। पिता को मनाने का सिलसिला एक बार फिर शुरू हुआ लेकिन अपनी बैलगाडी के सहारे दिनभर अनाज ढोने वाले उनके पिता की आमदनी में पोलीटेकनिक का खर्च निकलना बडा मुश्किल था, सो वे हाँ नहीं कर पाए ।
यादव साहब को शुरू से ही अच्छे अक्षर लिखने का सोख था। मस्तिष्क में विचार आया तो एक दिन रंग और ब्रुश खरीद डाले । फिर शोकिया ढंग से यहाँ-वहाँ कुछ लिखना शुरू कर दिया। पहले वाटर कलर से और बाद में आयल पेन्ट से वे बैनर और बोर्ड लिखने लगे । धीमे-धीमे एक पेन्टर के रूप में उन्हें कस्बे में जाना जाने लगा। फिर काम मिलने लगा और वे अपनी पढाई पूरी करने में जुट गये थे। रात में पेंण्टिग करते , दिन में पढने जाते ।
रात-दिन के परिश्रम से आँखों में कमजोरी आ गई और चश्मा लग गया। प्रायः बीमार रहने लगे । कभी-कभार पिता उनके पास आते और स्नेह भरा हाथ सिर पर रख कर तबियत के बारे में पूछते । अपनी आर्थिक सीमाएँ बताते, बहन और छोटै भाई के खर्चों का विवरण सुनाते तो वे चुप लगा जाते । पिता की बातों से लगता था,कि वे भी कोर्स परा होने की प्रतीक्षा में हैं,जानते है वे भी , कि ओवरसियर की ऊपर की आमदनी कितनी है। उनकी इच्छा थी ,कि जल्दी ही यह कोर्स पूरा हो जिससे जन्म-जिन्दगी का दारिद्रय दूर हेा जाए।
अन्ततः कोर्स पूरा हुआ और महीना बीतते-न-बीतते उनकी नौकरी लग गई । पहले- पहलेजो आदेश आया वह पी.डब्ल्यू.डी. का था। बिना सोचे -विचारे यादव साहब ज्वाइन करने चले आये थे । उन्हीं दिनों हुआ था ,वह हादसा, जिसमें कुल चालीस बच्चे मारे गये थे। नए बने स्कूल की पूरी छत भरभराकर गिरी थी और हँसते-खेलते अबोध जीवन उसके नीचे दब गये थे ।
बिल्डिंग के ठेकेदार और सब इंजीनियर को गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमा शुरू कर दिया था।ेनोजवान यादव का छात्र जीवन से पतला सुनहरा सपना जीवन की कठोर सच्चाईयों से रूवरू हो रहा था। पिता की हसरतें पूर होने जा रहीं थी कि उन्होंने एक कठोर निर्णय कर डाला था । वे कभी भी रिश्वत नहीं लेगंे हर बार के होने वाले भुगतान के पहले उनके मन में द्वन्द्व शुरू हो जाता । वे रिश्वत लेने के मुद्दे पर अपने आप से भिडते रात-भर सोचते । बहन के बारे में सोचते । भाई की इच्छाओं के विषय में विचार करते। लेकिन यह न स्वीकार कर पाते कि वे लोंगो के जीवन से खिलवाड करना शुरू कर दें । धीरे-धीरे एक दृढ और ईमानदार व्यक्ति जन्म ले रहा था उनके भीतर । े
उन्हें कभी तेा अकल आएगी यह इन्तजार करते-करते पिता चल बसे । माँ भी गई ।पत्नी आई और थोडे में गुजारा करने के काम में अपने आप को प्रशिक्षित करने लगी। जैसे -तैसे करके बहिन का विवाह किया और भाई को धन्धे से लगाकर उसका भी विवाह कर दिया । पर उन्होंने रिश्वत लेना शुरू नहीं किया तो नहीं ही किया ।
उनका मन छŸाीसगढ में लग गया था। वहाँ न ज्यादा षडयन्त्र थे, न टुच्ची राजनीति। न घटिया काम करने वाले ठेकेदार थे और न ओछे पत्रकार। वे उधर ही अपनी नौकरीी पूरी करने के चक्कर में थे । एक लडकी और एक लडका के साथ छोटा- सा परिवार था जिसकी गुजर-बसर हो रही थी । पत्नी सुहागिन ने जिद की और छोटे भाई ने भाग-दौड करके अन्ततः उनका तबादला वहाँ से इधर करा लिया था। पर वे इधर आ कर संतुष्ट न थे।
यादव साहब अपने साथ घटी तमाम घटनाऐं सुनाया करते थे। कभी किसी की नाराजगी की तो कभी किसी की उदारता की ।
उनकी पत्नी और बच्चों से भी मेरा परिवार खुलने लगा था कभी मेरी पत्नी वहाँ चली जाती तो कभी वह हमारे यहाँ आ जाती । एक दिन मेरी पत्नी ने पूछा था सुहासिनी से-‘‘आपके असंतुष्टि नहीं होती कभी ? आसपास के दुसरे सब इंजीनियरों के ठाट-बाट और शन -शोकत देखकर कभी तो कोफ्त होती होगी!’’
शुरू में टालती रही थी फिर एक दिन फट पडी थी -‘‘क्या बताएँ दीदी ,बहुत परेशानी उठाई है, इनके साथ हमने । न ढंग से पहन पाए हैं , और न ढंग से रह सके हैं अब भला थोडी सी तनख्वाह से गुजारा कहाँ होता है आजकल ?इस पर इनकी बहन की शादी और भाई को इलेक्ट्रिक की दुकान डालने में एक लाख खर्च हो गया है ।वो तेा मेरा मायका समृद्ध है जो मौका- बे-मौका मदद आती रहती है वहाँ से , नहीं तो राम ही जाने क्या होता? बच्चे टी. वी. देखने को तरसते हैं, और इनसे कहो तो डाटते हैं ,कि दुनियाँ के सभी बच्चे टी. बी. नहीं देखते हैं पढाई करो । नन्हें बच्चों के लिए मुझको सुननी पडती है। न खुद पहनते हैं । और न हमें पहना पाते हैं ,ढंग के कपडे । बच्चे तो कई बार स्कूल जाने को कतराते हैं कि उन्हें सभी चिडाते हैं वहाँ सस्ते से कपडे और हल्के जूता-चप्पल पहना कर रखते हैं हम उन्हें और उस पर भी समय की मार देखो कि इन दिनों आधी तनख्वाह कट रही है ।इनसे कहा कि कोर्ट में जाओ,अदालत में दावा करो , मगर सुनते ही नहीं । कहेंगे, पकी-पकाई नौकरी है। विभाग से दश्मनी मोल नहीं लेंगे हम कहेगे कि बहुत कर ली सरकार की बफादारी अब छोडो ये सब न लो रिश्वत लेकिन टाइम से काम तो करो । सरकार के चौबीस घण्टे के गुलाम तो नहीं हैं हम कि रात हो या सुबह ,काम ही खोले बैठै रहें तो मानते नहीं हैं अब भला बिना जाँच और ईमानदारी के सरकारी काम का पैसा कटना अन्याय नहीं तो क्या है?लेकिन इन्होंने तो ऐसी चुप्पी साध ली है कि बस ’’े
उन्हीं दिनों मायूस से यादव से मुलाकात हुई तो वे अपनी पीडा छिपा नहीं पाए थे।
तब मुझे जानकारी मिली थी कि वे अब निराश होने लगे हैं ईमानदारी और कर्मनिष्ठता से नहीं बल्कि इस मैदानी क्षेत्र से । वे पुनःवनवासी अंचल में लौट जाना चाहते थे । और इसके लिए ट्रान्सफर की दरख्वास्त भी दे दी थी ै उन्होंनंे वे बेकरारी से स्थानांन्तरण पत्र का इन्तजार कर रहे थे लेकिन काम में तत्परता उन दिनों भी उनसे नहीं गई थी । वे भोपाल जा कर अपना टाªसंफर करवाने के लिए ई. एन.सी.से मिलने वाले थे।जिस दिन उनका जाना मुकर्रर था उसके एक दिन पहले मैनें बात चलाई थी --‘‘यादव साहब ,उधर छŸाीसगढ के जिस गाँव में आप टाªसंफर चाहते हैं वहाँ बच्चों की पढाई के लिए उपयुक्त स्कूल तो होगा नहीं ।’’ेेेे
यादव साहब चुप रह गऐ थे । उनकी ठन्डी आँखों में छिपी सचाई मुझे आज भी याद है जो शब्द तो न पा सकी थी ,पर बात पूरी कह गई थी , कि बच्चों का स्कूल देखें या खुद का मानसिक संतुलन।
लेकिन इस वर्ष यादव साहब का टाªंसफर हो नहीं पाया और वे फिर काम में जुट गये हैं ,जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। उनके दरवाजे पर फिर से मातहतों और अफसरों की भीड जुटने लगी है और उनका रतजगा फिर शुरू हो गया है।
यह उनकी निष्ठा है ,या मजबुरी,वे ही जाने लेकिन बŸाीस दाँतों में रहती इस बेचारी जीभ की कुशलता को लेकर चिंतित हॅं ।

सोमवार, 8 मार्च 2010

गुरुवार, 4 मार्च 2010

story from a asfal- sulakshanaa

सुलक्षणा
असफल

                वे कई दिनों से नहीं मिली थीं।
मन ही मन पुकार रहा था, शायद! शाम ढलने के बाद जब मैस के लिए निकल रहा थाअचानक हंसती-मुस्कराती सामने खड़ी हुईं।... दिल उन्हें पाते ही जोर-जोर से उछलने लगा।
                ‘कहां जा रहे हो, जितेन!’ उन्होंने मीठे स्वर में पूछा!
                ‘खाने के लिए....’ मैं मुस्कराया।
                ‘चलो, आज कहीं बाहर चलते हैं, वहीं खा-पी लेंगे।उन्होंने अधिकारपूर्वक कहा।
दिल की धक्धक् और तेज हो गई। सौभाग्य ओरछोर बरस रहा था। मदहोश-सा मैं उनके क़दम से क़दम मिला कर चल पड़ा... फिर कब हमने ऑटो लिया और कबफेमिली हट्जपहुंच गए, जैसे- पता नहीं चला।    
                अपने शहर से बी.एस-सी. करके यहां साइकोलॉजी में एम.. करने आया था। वे यदाकदा मैट्रो में मिल जाती थीं। जाने क्या जादू था उस चितवन में कि मैं दो-तीन दिन तक भुला नहीं पाता। पर पूछ भी नहीं पाता कि आप आगे कहां तक जाती हैं, कहां काम करती हैं- मिस?
                दिल हरदम एक मिठास से भरा रहता। वे अतिशय प्रिय लगतीं। सम्माननीय और संभ्रांत भी। उनके बगल में बैठने की हिम्मत पड़ती, बात करने की। वहां वे अक्सर अपना बैग, छतरी या कोई पुस्तक रख लेती थीं।
                पर एक दिन मुझे उनके सामने ही गैलरी में खड़ा होना पड़ा तो उन्होंने अपने चेहरे से लट हटा कर सीट से बैग उठाते हुए धीरे से कहा, ‘बैठ जाइये... खाली है।
                शायद, वह शुरूआत थी। देर तक उनकी मीठी आवाज और किंचित किंतु मोहक मुस्कान मेरी चेतना पर छाई रही। मुझे अपने स्टेशन का ख्याल ही नहीं रहा। वे जब उतरने लगीं तब चौंका। पर कम से कम यह जान गया कि वे यहां तक आती हैं!
हमेशा बौद्धिक बातें करतीं। बात करते-करते एक दिन उन्होंने कहा, ‘मैं तुम्हें तुम्हारे इस पारंपरिक नाम के वजाय सिर्फ जितेन कहं- तो बुरा तो नहीं मानोगे।
                कुछ दिनों बाद शहर में फिल्म महोत्सव चल रहा था। एक दिन अचानक मेरी नज़र पड़ी- वे एक तगड़े-से आदमी के साथ मेरे पीछे वाली लाइन में बैठी थीं! फिर मुझे पता नहीं चला कि हॉल में कौन-सी फिल्म चली और उसकी कहानी क्या थी?
मैं साइकोलॉजी में एम.. कर रहा था... मुझे अपनी बुद्धि पर तरस रहा था।  
                तब वह बरस ऐसे ही चुपचाप बीत गया। दिल की चोट भुला कर मैंने पढ़ाई में चित्त दे लिया। मैंने अपना रिजल्ट बिगड़ने से बचा लिया।
                पर अगले सत्र की शुरूआत में एक शाम वे दोनों फिर एक थियेटर में मिल गए मुझे! उनकी मांग में सिंदूर की हल्की टिपकी और भंवो के बीच लाल बिंदी देख कर मैं इतना आहत हुआ कि नाटक बीच में छोड़ कर चल दिया। वे पीछा करती हुई गैलरी तक र्गइं। और बेहाल-सी पुकारने लगीं-
                ‘जितेन... जितेन... सुनो-तो, इतने दिनों से कहां थे तुम...’
                मैंने पलट कर देखा- उनके चेहरे पर चमक पर आंखों और आवाज में बला की घबराहट थी। जैसे, वे सिर्फ मुझी को चाहती हों! मुझे ही ढूंढ़ रही हों... और अब बिछुड़ जाने की आशंका से व्याकुल हिरणी की भांति छटपटा रही हों!
                मेरे मुंह से कोई बोल नहीं फूटा। आंखों में आंसू उमड़ आए थे। तब वे पहली बार मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर बोलीं, ‘अच्छा-ठीक है, तुम्हारा मन खराब है... चले जाओ अभी, लेकिन कल मैं तुमसे मिलना चाहूंगी।
                और उनकी ओर देखे बगैर पॉकेट से अपना एड्रेस कार्ड निकाल कर उनके हाथ पर रख कर मैं भागता-सा चला आया। अगले दिन जानबूझ कर दिन भर अपने कमरे पर नहीं रहा। जू में भटका और जानवरों में उन्हें तलाश करता फिरा। घड़ियाल के आंसुओं की तुलना में मुझे उनके आंसू मिले... तेंदुओं के धब्बे चीतों और बाघों तक आते-आते धारियों में बदल गए थेे, पर उनके बीज बिल्लियों में मौजूद हैं... यह मैं जान गया था। शाम को जैसे ही गेट खोला नज़र देहरी से चिपक कर रह गई। वहां एक फोल्ड किया हुआ कागज पड़ा था, जिस पर लिखा था- ‘तुम्हारी, सु
                दिल सहसा ही धड़कने लगा।
             सुबह देर से हुई। और तब एक व्यथित हृदय मुझे फिर उनके पास ले जा पहुंचा।
                उन्हें जैसे, खबर थी, मैं पहुंचूंगा! वे पहले ही आधे दिन की छुट्टी की अरजी दे चुकी    थीं। मुझे एक गिलास पानी पिला कर बोलीं, ‘कॉफी पिओगे?’
                ‘इन दिनों में तो मुझे कोक पसंद है।मैंने भी अपनी ओर से सहजता का परिचय दिया। वे मुस्करा कर अपना बैग कंधे पर डाल कर क़दम से क़दम मिला उठीं।
                मैंने कनखियों से देखा- मांग में सिंदूर की टिपकी, माथे पर बिंदी। क्रीम कलर के सलवार सूट और उससे मैच करती जूतियों में वे फिर एवरग्रीन नज़र रही थीं। कुछेक मिनट बाद हम अशोक वृक्षों से भरे बगीचे में पहुंच गए। एक साफसुथरी बैंच की ओर उन्होंने इशारा किया और हम एक साथ बढ़ कर उसी पर बैठ गए।
और मैं अभी भी इधर-उधर देखने का यत्न कर रहा था, जबकि वे खासतौर से मुझी से नज़रें मिलाना चाहती थीं! आखिरकार मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे से बोलीं, ‘देखो- बसंत गया!’
                तब चिहुंक कर मैंने धीरे से अपना हाथ छुडा लिया।
                ‘वे मेरे पति हैं, जितेन!’ उन्होंने समझाने की कोशिश की।
                ‘जानता हूं!’ मैंने खीजे हुए स्वर में कहा। जैसे पहले से भरा बैठा था।
                सहसा वे नर्वस हो र्गइंं। बेचारगी के साथ बोलीं, ‘इसका मतलब यह कि अब मेरे लिए सारे रास्ते बंद हो गए...!’
मैं बोला नहीं।  हमलोग चुपचाप उठ गए। मैंने कोक मांगा उन्होंने कॉफी पिलाई।
और मैं जानता था कि इस साल मुझे 60 परसेंट तक गाड़ी खींचनी थी। आउट ऑफ 55 परसेंट नहीं बनी तो पी.एच-डी. धरी रह जाएगी। ...लेकिन मेरा मन उन्होंने चुरा लिया था।
हार कर मैं फिर से मैट्रो रूट से अपने कॉलेज जाने लगा। और वे कई दिन तक नहीं मिलीं तो एक दिन धड़कते दिल से उनके दफ्तर भी पहुंच गया।
पता चला वे रिजाइन कर गई हैं!
अब उनका चेहरा मेरे इर्द-गिर्द घूम रहा था। वे तो जैसे इस महानगरीय जनसमुद्र में बंूद की तरह विलीन हो गई थीं।
मैं बार-बार पछताता मैंने ख्वामख्वाह वियोग का वरण कर अपना जीवन नर्क बना लिया। कैरियर गड्ढे में धकेल दिया। आज मैं समझ सकता हूं कि किसी के साथ विवाह हो जाने से आत्मा रहन नहीं हो जाती। मन को कोई बांध नहीं सकता... हम कितने मूर्ख हैं! जीवन अस्थाई है और फेरे डाल कर स्वामित्व का भरम पालते हैं। एक गतिशील देह को अपने अधिकार में लेकर जड़ कर देना चाहते हैं। जैसे- यह भी कोई नदी हो!
सहसा एक दिन रेडियो एफ.एम. पर मुझे उनका मोहक स्वर फिर सुनाई पड़ा! डूबते दिल को जैसे सहारा मिल गया।... अगले दिन मैं सीधा रेडियो स्टेशन पहुंच गया। पता चला, वे कैजुअल आर्टिस्ट हैं। स्टूडियो से निकलने में उन्हें एक घंटे की देर थी।
अभी मैं पारदर्शी वेटिंगरूम में बैठा ही था कि वे सहसा स्टूडियो का गेट खोल कर चौड़ी गैलरी में गईं! उन्हें अरसे बाद इतने करीब देख कर मेरा दिल हलक में आने लगा। सोफे से उठ कर मैंने शीशे का दरवाजा खोला और गैलरी में उनके पीछे-पीछे चलने लगा। जैसे- कोई दूध पीता शिशु अपनी मां के! एकदम बेहाल और पनीली आंखें लिए।... मगर वे घूम कर प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव्ह के कमरे में घुस गईं। मैं दरवान की तरह बाहर खड़ा रह गया।
भीतर ही भीतर रोने लगा। कि- अब मैं कभी उनसे मिल नहीं सकूंगा। मैंने उन्हें हमेशा के लिए खो दिया है।...
तभी अचानक चमत्कार की भांति उनकी मीठी आवाज ने एक बार फिर चौंका दिया मुझे, ‘जितेन-तुम!’
मेरे मुंह से केवल हवा निकल कर रह गई।
तुम यहां!’ खुशी उनकी आंखों में सिमट आई थी।
मैं आपकी प्रतीक्षा...’ आगे शब्द नहीं जुड़े, मैंने भर्राए कण्ठ से कहा।
ओह- जितेन...’ उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया और हम एक ऑटो मैं बैठ गए।
रास्ते भर मैं सिर्फ रोता रहा और वे मेरे सुन्न पड़ गए हाथों को अपनी गर्म हथेलियों से सहलाती रहीं। उन्हें मेरा पता कंठस्थ था। वे ऑटो वहीं ले आईं। किराया भी उन्होंने ही चुकाया। मैंने उतर कर सिर्फ अपना रूम खोला। मैं अभी सहज नहीं था। मुझे यकीन नहीं रहा था कि वे मिल गई हैं।... लेकिन इस तरह दूर-दूर और बतियाए बगैर भी हम उस कमरे में ज्यादा देर नहीं बैठ सकते थे। इस बात का ख्याल मुझे भी था और उन्हें भी। जल्द ही हम फिर से ताला लगा कर बाहर गए। बिछुड़ना अब पहले से अधिक दुश्कर लग रहा था। जब में उन्हें ऑटो में बिठा रहा था तब उन्होंने लगभग पुकार कर कहा था, ‘जितेन... अब हम कब मिलेंगे!’
मुझसे बोला नहीं गया। उनकी आंखों की तड़प मेरे हृदय में उतर आई थी। मैंने इतना असहाय खुद को कभी नहीं पाया। ...मगर इसके बावजूद उस शाम मेरा दिल इतने गहरे आत्म विश्वास से भर गया कि मैं एक उम्दा गीत गुनगुनाता हुआ अपने कमरे पर लौटा। मेरा हृदय सचमुच एक सच्ची प्रसन्नता और प्रफुल्लता से भर गया था
दोनों वक्त मैस जाने लगा। स्वास्थ्य पहले की तरह हरा-भरा हो गया। परीक्षा के लिए मैंने फिर कमर कस ली... मुझे लगने लगा कि सबकुछ पढ़ा हुआ है- डिवीजन आसानी से बन जाएगी। तैयारी के कारण अब मैं कमरे से प्रायः कम निकलता था। जिन दिनों दुपहर में ड्यूटी होती, वे रेडियो से लौट कर मेरे कमरे पर होती हुई अपने घर जातीं। एक प्लेटोनिक ऊर्जा सदैव आसपास मंडराती रहती जिसकी रौशनी में मेरी पढ़ाई परवान चढ़ रही थी।
पर उस दिन अचानक वे रात दस बजे के बाद रेडियो से लौटीं, कहने लगीं, ‘मुझे बहुत तेज भूख लग रही है-जितेन! सिलेण्डर आज नाश्ते में ही बोल गया था। तुम चल कर स्टोव में चार पंप कर दो तो खाना बनालूं!’
आपके घर!’ मैं उत्साह में मुस्कराया।
हां!’ उन्होंने पलकें झपकाईं, पुतलियां चमक रही थीं।
मैं फटाफट तैयार हो गया। ऑटो उन्होंने छोड़ा नहीं था, हम उसी में बैठ कर आगे बढ़ गए। ...रास्ते भर में उनके घर के नक्शे में उलझा रहा।
                मगर हकीकत में हम एक बार फिर फेमिली हट्ज के लॉन में खड़े थे! एक गहर्रे िडप्रेशन से उबर कर सामान्यतः मैं मुस्कराने लगा। इस क्षण किसी भी कोण से विवाहित नहीं लग रही थीं वे। फूल-सी हल्की, सुंदर और वैसी ही सुवासित। मेरा हृदय, शायद उनके हृदय से मिलने के लिए एक बार फिर मचलने लगा था।...
और तब जिस नशे के आलम में मैंने उनकी आंखों में आंखें डाल कर सिर्फ उन्हीं को याद करते हुए चुपचाप खाना खाया, उसी की डोर पकड़ कर वे मेरे दिल में उतर्र आइं। खाने के बाद मैंने घड़ी देखी और उदास हो गया-
                ‘एक बजने को है, तुम्हारे हस्बेंड चिंता करते होंगे-सु!’
                वे मुझे गौर से देख रही थीं, मंद-मंद मुस्काने लगीं। फिर आंखों में एक अजीब-सी कशिश लिए बोलीं, ‘मुझे लग रहा था- आज तुम जाने नहीं दोगे!’
                ओह! मैं यकायक झनझना गया। और मैंने कुछ कहना चाहा, पर मेरा गला फंसने लगा। उन्हें रोक पाना इस जिंदगी में संभव नहीं था।...
                ‘तुमने बहुत जल्दी करली, सु!’ मैंने रुंधे गले से कहा।
                वे चकरा गईं। फिर अर्थ समझ कर उनकी आंखों के किनारे भीग गए। और दो क्षण बाद फंसी-फंसी-सी आवाज में बोलीं, ‘उन्होंने मुझे अब तक पाया कहां-जितेन! वे टूर के बहाने हफ्ते-दो हफ्ते में हमेशा भाग खड़े होते हैं...’
                मैं यकायक चेहरा ताकने लगा। पर वे आगे नहीं बोलीं, एक निश्वास छोड़ कर रह र्गइं।

                ...अब मैं उनके खालीपन को, डिप्रेशन को और कुंठा को समझ सकता था।... धीरे-धीरे नर्वस होने लगा। यह जानते हुए भी कि- उनकी आंखें में अब एक जंगी तूफान मचल उठा है।

000