बुधवार, 11 नवंबर 2009

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चम्पामहाराज, चेलम्मा और प्रेम कथा

चम्पा महाराज की नजरों में लूले कक्का पहले से ही महाऐबी हैं । हरदम गुनताड़ा लगाते रहेंगे कि कौन से कैसी विषैली बात कह देवें , जिससे सुनने वाला तिलमिला जाये । एब करने का मौका तलाषते रहते हैं । उन्हें देख के पंडित चंपाप्रसाद को कौआ नहीं गिध्द याद आता है। गिध्द से जुड़ी रामायण की एक अर्धाली वे गुनगुना उठते है - ''गीध अधम खल आमिष भोगी''
लूले कक्का ने देखा कि दालान में चंपाप्रसाद के तीनों पार्षद मौजूद हैं- परमा खवास, खेता भोई और रतना परजापत। यानी कि चंपाप्रसाद की पूरी परिषद बैठी है। उनके हाेंठ फड़क उठे - यह परिषद ही तो गांव में फसाद की जड़ है । यही परिषद् चम्पाप्रसाद को बलशाली बनाती है । गांव के छोटे वर्ग के लोगों को परेशान करने की साजिश की सूत्रधार यही परिषद तो है । लूले कक्का गांव के निरक्षर मजदूरों के हितू माने जाते हैं । वे चम्पाप्रसाद जैसे लोगों के खिलाफ ही चर्चा और माहौल तैयार करने का आंदोलन चलाते रहते हैं । ऐसे नवधनाढय लोग और ठकुरास के लोग भले ही उन्हें लाख बुरा कहें, पर वे उनकी बातों पर कान नहीं देते । शोषितों, दलितों और स्त्रियों के हित की बात करना उन्हें ईमान और सत्य की चर्चा करना लगता है ।
महुआखेड़ी के पुजारी वाला प्रसंग चल रहा था। चंपाप्रसाद जोर जोर से बोलते हुए देवचन्द को गरिया रहे थे। वे इस तरह उत्तेजित थे, मानो पुजारी देवचन्द परिषद के इजलास में मुजरिम बने खुद मौजूद हों और अदालत की लांछना सुन रहे हों। सब जानते हैं कि पिछले दिनों देवचन्द अपने गांव की एक औरत को लेकर कहीं भाग गये, आसपास के तमाम गांव वालों के पास ले देकर इन दिनों यही रोमांचक प्रसंग तो ताल ठोकता रहता है ।
लूले कक्का ने पंडित जी से जुहार की, और तख्त के बगल में बिछे डोरिया पर अपनी वैशाखी रखके बैठ गये। पुजारी देवचन्द के बहाने रामायण में बताये गयें कर्मकाण्डी ब्राह्यणों के आचरण और नियम बखानते चंपाप्रसाद उन्हें देखकर एक पल को रुके फिर आगे शुरु हो गये '' तो मैं कह रहा था कि - सोचिय बिप्र जो वेद बिहीना.... यानी कि वह ब्राह्यण सोचने योग्य है जोकि वेद के रास्ते पर नहीं चलता। अब वेद के बताये रास्ते तो थोड़े से ही है भैया, कि मारग चलते छुआ-छूत का ध्यान धरो, खान-पान में शुध्दता का ख्याल रखो। हो सके तो पात्रा-कुपात्रा से बातचीत का भी विचार रहे। जित्ती बार घर से बाहर निकलो हर बार घर लौट के स्नान करो ।
चम्पाप्रदसाद के दिखावटी प्रवचन सुनकर मन ही मन लूले कक्का बोले कि तुम तो सहस मुख हो अभी हाल यदि हरिजनों के उध्दार की कोई ऐसी बात होगी जिसमें तुम्हें लाभ पहुंचता हो तो तुम तुरंत ही रामायण में से शबरी और निषाद का उदाहरण देकर तुलसीदास और रामचन्द्र को हरिजनोध्दारक बता दोगे । तुम्हारे तो सैकड़ों मुंह हैं जिनसे अपने मतलब की हजारों बातें निकलती हैं ।
उधर चम्पाप्रसाद कह रहे थे - ''हर ब्राम्हण को रसोई-घर में जाने वाली हर चीज अमनिया कर लेना चाहिये, माने जल से पवित्रा कर लो । रोटी का आटा घर की चक्की का पिसा हुआ होना चाहिए । पीने का पानी घर के कुंआ या पाताली नल से लेने का विधान है।''
''आपके यहां तभी तो चूल्हे की लकड़ी भी धो के जलाई जाती है न महाराज'' परमा खवास अपनी जानकारी प्रकट करता हुआ पुलकित था।
चंपाप्रसाद को यह सुनकर बहुत अच्छा लगा। पर लूले कक्का सदा की तरह बीच में ताल ठोकने लगे - ''आजकल तो हरेक के रसोईघर में गैस के चूल्हे चल पड़े है न महाराज, उनमें गैस की टंकी जुड़ी रहती है। अब गैस की शुध्दि अशुध्दि को कौन जांच सकता है !''
खेता भोई को लूले कक्का की बात में दरार निकालने का उम्दा मौका हाथ लगा । वह तो उन पर चढ़ ही बैठा - ''वाह रे लूले कक्का, वैसे तो दुनिया भर की जानकारी अपने खीसा में डार के घूमते फिरते हो, और तुम्हें इतनी सी पता नहीं है कि गैस की टंकी में पेट्रोल से बनी गैस रहती है और सब जानते हैं कि पेट्रोल तो धरतीमैया की कोख से पैदा होने वाली कुदरती चीज है, दुनिया में इससे ज्यादा शुध्द चीज और क्या होगी ? इसमें शुध्दि अशुध्दि क्या देखना।''
लूले कक्का ने पैंतरा बदला ''खेता भैया, तुम्हें शायद पता नही है कि गोबर से भी गैस बनती है, और दारी इस जीभ को आग लगे भैया कि ये बात भी सोलहा आना सच्ची है कि अब तो आदमी के गू से भी गैस बनने लगी हैं।''
''कक्का तुम भी....'' रतना ने घिनाते हुये मुंह बनाया।
''सच्ची कह रहे, हमने तो अपनी ऑंखन से देखा कि अगल-बगल के कित्तेई गाँवन में बड़े-बड़े धर्मात्मा और कर्मकाण्डी लोगों के घर में वायो-गैस की मशीन लग गई है। हां ये बात अलग है कि आपत्ति काल में पढ़े लिखे विध्दानों को ऐसी बातों की चिन्ता करने की फुरसत कहाँ धरी है। धर्म पर जैसा आपत्तिकाल इन दिनों है, सृष्टि के निर्माण से अब तक कभी नहीं रहा। विश्वास न हो तो चंपा महाराज से पूछ लो। शास्त्राो में लिखा है आपात काले मर्यादा नास्ती। माने आपत्ति के दिन में मर्यादा की चिन्ता मती करो।''
वे एक पल को रुके चिर गहरी नजरों से चंपाप्रसाद को भीतर तक बेधते हुए बोले-''आज भिनुसारे जब हम टहलने निकले तो तुम्हारे बड़े भैया कालकाप्रसाद अस्पताल के पास वाली सड़क पर चेलम्मा नर्स की गलबहियां डाले टहलते मिले थे । हमे लगता है कि कालका भैया पिछली रात वहीं सोये थे। बल्कि.....अब आज की क्या कहें, हमने खुद देखा है कि वे रोज वहीं रुकते हैं। चंपा भैया एक दिना जाके देख तो लो कि वा आग लगी नर्स कौन विरादरी की है। कल को कहीं ऐसा न हो कि कालकाप्रसाद के संग-संग पूरे गांव की नाक काट ले जाये।''
चंपाप्रसाद ऐसे समय बड़ी पशोपेश में पड़ जाते है, जब वे किसी जिजमान के यहाँ कथा भागवत बांचते-बांचते पवित्रता, वैदिक आचरण और हिन्दू समाज की वर्ण परम्परा की तारीफ कर रहे हों और अचानक कोई जिजमान उनके भैया कालकाप्रसाद के आचरण के बारे में कुछ पूछने लगे। यही इस समय हुआ। लूले कक्का ने रंग में भंग कर दिया। चंपाप्रसाद भीतर ही भीतर तिलमिला उठे, पर प्रकट में चुप रहे। लूले कक्का जैसे खोजी आदमी को सिरजाना ठीक नहीं है। दुष्टों को दूर से ही नमस्कार कर लो शास्त्रा भी ऐसा ही कहते हैं- दुर्जन दूरत: परिहरेत।
लूले कक्का ने देखा कि महफिल फीकी हो चली है । वे यही चाहते थे कि अपने मिथ्या अहंकार, पाखण्ड और बौध्दिक साम्राज्य में आकण्ठ डूबे खाये-अघाये इन लोगों में कुछ बेचैनी पैदा हा,े वह हो चली थी, सो उनने अपनी वैशाखी सम्भाली और उठ के सब पंचों से ''जय राम जी की'' कहते हुए मूंछों ही मूंछों में मुस्कराते वहां से चल पड़े। उनका उद्देश्य हल हो गया था । वे शुरू से इस सिध्दांत के रहे कि खुद मस्त बने रहो पर इन शोषकों को चिन्ता और बेचैनी में डाले रहो । वह बेचैनी पैदा हो गई थी सो अब उनका काम भी क्या बचा था ।
लूले कक्का की ठक-ठक अब अपने प्रिय क्षेत्रा हरिजन टोले की ओर बढ़ने लगी थी जहां बैठे दर्जनों लोग उनका इंतजार कर रहे होंगे ।
इधर बड़ी देर तक उनकी वैशाखी की ठक-ठक दालान के शान्त हो गये वातावरण में गूंजती रही। फिर परिषद के लोग एक-एक करके वहां से खिसकने लगे।
संवदिया की भूमिका निभा के लूले कक्का चले गये थे, पर चंपाप्रसाद तो जैसे अपने तख्त पर कीलित से होकर रह गये थे।
अब कालका भैया से खुली बात करना बहुत जरुरी है कि दादा ये रंग-ढ़ंग छोड़ो, घर की बदनामी हो रही है। पचास साल की वानप्रस्थी उमर में भी तुम्हें ऐसे ऐल-फैल अच्छे लग रहे है। समाज में पचास दिक्कतें आने वाली हैं, मेरी बच्ची सयानी हो रही है, कल उसकी सगाई करने जायेंगे तो लड़के वाले यही उलाहना ठोक देंगे कि, लड़की के ताऊ तो ऐसा-वैसा करते फिरते हैं। शादी-ब्याह की चर्चा करते वक्त ब्राह्मणों में वैसे ही सात पीड़ी तक की खोज खबर ली जाती है। वरणशंकर और दशा ब्राह्मणों को तो देहरी से टिटकार के भगा दिया जाता है। यह सोचते-सोचते चंपाप्रसाद को अपना माथा भारी सा होता महसूस हुआ। वे तख्त पर पांव पसार कर पूरी तरह लेट गये।
जाने कब बिटिया उन्हें अकेला बैठा देख गयी थी सो चाय बना लाई। पीतल के गिलास को कटोरी से ढक के वह तख्त के पायताने रख गई थी। गुमसुम चंपाप्रसाद ने बैठ गये और चाय का गिलास उठाया फिर फूंक-फूंककर जोर-जोर से सरुटा भरने लगे।
बड़े भैया की खबरें सुन-सुन के कान पक गये हैं। अब पानी सिर के ऊपर निकलने ही वाला है। जल्दी ही कुछ करना पड़ेगा। लेकिन वे ''कुछ'' क्या करेगे.....? यही तय नहीं कर पा रहे है वे। कदाचित, आज अम्मा जीवित होती, तो उनसे परामर्श करते। कालका भैया को डांट दिलवा देते। इस गॉव में और पुरा पड़ौस में भी कोई ऐसा बुजर्ग नहीं बचा है जिससे सलाह लें। जिससे कहेगे, वही जुवान पकड़ लेगा। घर-घर जाके कह देगा कि दुबे महाराज के यहाँ फूटन पड़ गई है बात बात में छुआ-छूत और जाति-पांति की दुहाई देने वाले चंपाप्रसाद के निज बड़े भाई को किसी तरह की अपवित्राता का लिहाज नहीं है। हंस जैसे बेदाग कुल खानदान का सयाना पक्षी, गंदी तलैया में किलोल कर रहा है।
वैसे यह भी सच हैं कि आज अम्मां भी जिन्दा होती तो कुछ न कर पाती। आज जो स्थिति आई है उसके लिये पूरी तरह से अम्मां ही दोषी है।
पन्द्रह साल के ही हो पाये थे कालका भैया, कि सगाई के लाने आमखेड़े के ज्वालाप्रसाद सगया बनके आ गये थे। इर्द गिर्द के गॉवों में ज्वालाप्रसाद का चौधरी खानदान खूब बजीता खानदान था। सात पीढ़ी से उनके कुल में न कोई ऐब था, न किसी तरह का दाग। सो अम्मां भैरा के गिर पड़ी। न किसी जान पहचान वाले से कुछ पूछा, न आमखेड़े वाले रिश्तेदारों से सलाह ली। यहां तक कि पिताजी के पास बैठकर दो पल की चर्चा तक न की और खुद मुख्तार होके रिश्ता तय कर दिया।
ज्वालाप्रसाद उसी दिन नारियल-रुपया देकर चले गये तो अम्मां ने दूसरे दिन ही नाई के हाथ शगुन की धोती और पोलका (साड़ी-ब्लाउस) भेज दिये थे। सम्बन्ध पक्का हो गया। अम्मां बहुत खुश थीं।
आठवीं पास करते-करते कालका भैया की शादी हो गई। बहू उमर में छोटी थी, सो उन दिनों के रिवाज के मुताविक बहू की विदा नही हुई। तब दसवां पास किया था कालका प्रसाद ने, जब कि उनका गौना हुआ। अबकी बार बहू साथ मं आई थी। चमकीली चुनरी ओढ़े, लाल-सिन्दूरी साड़ी में लिपटी गोरी-भूरी बहू के मेंहदी रचे हाथ-पांव देख देख कर दूसरे किशोर रोमांचित हो रहे थे, कालकाप्रसाद का तो बड़ा हाल खराब था ! वे अपनी दुल्हन को देखने, उससे बतियाने, उससे मिलने को बड़े उतावले थे।
आमखेड़ा से सुबह छिरिया-बेरा विदा कराके वे लोग चले थे और दोपहर होते-होते अपने घर आ गये थे। मर्द लोग दालान में बैठ के सुस्ता रहे थे और अम्मां मेहमानों की पहुनई के किस्से सुन रहीं थी, कि मुन्नी जिज्जी ने उबलते दूध के उफान में ठण्डे पानी की कटोरी उड़ेल दी। वे कह रहीं थी - भौजी तो निराट पागल है।
यह सुनकर स्तब्ध हो गये थे सबके सब। अम्मां उठीं और लपकती हुई भीतर गर्इं। दो-पल बहू से बातचीत करी फिर माथा ठोकती बाहर निकलीं थीं- नासपीटे ज्वालाप्रसाद ने धोखा दे दिया। मीठी-मीठी बातें करके सिर्रन मोड़ी ब्याह दी धुंआ लगे ने। हर बाप को अपनी लड़की के अनुरुप वर देखना चाहिए, लेकिन इस काले मन वाले ने अपनी लड़की के लच्छन नहीं देखे। मेरे हीरा से लड़के को ठग लिया कपटी ने।
अम्मां लगातार बड़बड़ा रहीं थीं - देखा होगा कि घर में साठ बीघा की जोत है, विरासत में गांव के डाकघर का काम हैं। हजारों में एक दिखे ऐसा लम्बा लछारा लड़का हैं। सो राख भये ज्वाला की नीयत डोल गई और मेरे घर को बर्बाद कर डाला। नाश मिट जायेगा ठठरी बंधे का।
मुन्नी जिज्जी ने समझाया अम्मां तनिक धीरे बोलो। बात घर में दबी रहे, चिल्लाओगी तो बाहर के लोग सुनेंगे। और बाहर के लोगों का क्या है, सब हंसने के मीत है
अम्मां चुप रह गईं थीं।
गप्पो खवासन बड़ी सयानी औरत थी। अम्मां ने चुपचाप उसे बुलवाया। घर की बात घर में रखने के लिये आस-औलाद की सौगंध देकर उसे बहू के पास भेजा। तीन चार दिन तक दुल्हन से बातें करती गप्पो उसकी मालिश करने के बहाने पूरे शरीर पर हाथ फेर आई थी। उसने अम्मां को बताया कि बहू की देह में लुगाइयों जैसा कुछ नहीं है। उसकी तो सूखे मैदान सी मर्दो जैसी छाती है। सख्त हाथ-पांव में बड़े-बड़े रोम और कड़क-चामड़े की जांघ वाली ये दुल्हन आदमी-बइयर के आपसी संबंधो के बारे में कुछ भी नही जानती। गप्पो तो चली गई पर अम्मां का जियरा सुलग उठा था।
उनने फिर भी हिम्मत नही हारी थी।
एक दिन पड़ौस में गारी के बुलौआ का बहाना कर वे मुन्नी और चंपा को साथ ले गई थी, ताकि घर पर अकेले बचे कालका और बहू की आपस में कोई बातचीत शुरु हो सके।
दस मिनिट बाद ही बाखर में से बहू के रोने चीखने की आवाजें आने लगी तो किसी ने जाकर अम्मां को खबर की थी। अम्मां मन ही मन अनुमान लगाती लौट आई थीं कि घर में क्या हुआ होगा।
घर आके बहू को पुचकार के उनने चुप कराया और झेंपते खड़े कालका को बाहर जाने का इशारा किया था।
अम्मां ने बहू को सुदमती करने के लिए गांव भर के गौड़-घटोइया, देई-देवता मनाने शुरु कर दिये थे। एक सयाने को बुला के झाड़ा भी दिलाया था। पर सब बेकार रहा। चंपा को याद है कि पहले की तरह भौजी बावरी सी बनी सिर खोले, पल्लू लटकाये कभी भी अपने कमरे से बाहर चली आतीं। वे कभी आंगन की मोरी पर बिना लिहाज धोती उठाकें पेशाब को बैठ जातीं। कभी घर भर में समय-बेसमय झाड़ू लगाने लगतीं, तो कभी धुले-अनधुले कपड़े उठाके पानी में भिगो देती और कुटनी से कूट कूट कर उनका मलीदा बना देतीं।
वे दिन बड़ी मुश्किल के दिन थे।
भौजी की बात गांव में फैलने लगी थी। अम्मां शर्म संकोच में डूबी हूई घर में बंद रहने लगी थीं। गांव में कुछ औरतों का कुटनी का ही जन्म होता है न, सो उनमें से कोई किसी न किसी बहाने घर में चली आतीं और सुर्र-फूं निकालने का यत्न करतीं। अम्मां कुछ न कहतीं। भौजी की बात यूं ही टाल जातीं। पर ऐसी बातें छिपाये नहीं छिपतीं, सो एक मुंह से दूसरे, फिर तीसरे होती हुई कालका की बहू के पागलपन की बातें घर-घर में पहुंच गयीं थीं।
घर के दूसरे सदस्य भी परेशान थे। मुन्नी जिज्जी आपसी चर्चा में भौजी की बात उठने के डर से अपनी सहेलियों के पास जाने का साहस नहीं कर पातीं थीं और चंपाप्रसाद पढ़ाई के बहाने गांव में नही लौटते थे, कस्बे में ही बने रहते थे। पिताजी तो सदा से इकल मिजाजी रहे, न ऊधो का लेना न माधो का देना। सो उन्हें कोई दिक्कत न थी। वे अपने डाकघर के काम में लगातार व्यस्त रहते। कालका भैया तो सबसे ज्यादा दुखी व परेशान थे।
सावन का महीना आया। आमखेड़ा से कालका भैया के साले अपनी बहन को लिवाने आये तो अम्मां ने उनकी खूब आव-भगत की और भौजी को बिदा करके हमेशा के लिये अपने हाथ झटकार लिए।
महीनों बीते। आमखेड़ा से एक दो कहनातें आयीं। तीसरी बार ज्वालाप्रसाद खुद आये। पर अम्मां नहीं मानी। वे सिर्रन बहू को अपने घर में रखने को तैयार नहीं हुई। भौजी मायके में ही जिन्दगी बिताने लगी।
चाय का खाली गिलास उठाने पंडिताइन खुद आई थी। पति को टोकना चाह रहीं थीं पर पंडित जी को गंभीर बना देखके कुछ बोलने का साहस नही हुआ। सो चुपचाप लौट गई। इस वक्त चंपाप्रसाद भी चाह रहे थे कि रोक के कमला (पत्नी) से कुछ मशाविरा करें। लेकिन वे पुरानी यादों में डूब उतरा रहे थे, सो मन नहीं हुआ कि अतीत के गुनगने जल मे से ऊपर उछरें और वर्तमान की कड़क धूप में अपनी देह तपायें। आदमी का अतीत कैसा भी क्यों न हो वह सदैव ही अच्छा और स्मरणीय लगता है उसे। वर्तमान में रहके विकल्प चुनने के खतरे ही खतरे है, लेकिन अतीत में कोई विकल्प नहीं होता।
दसवीं पास करते करते चंपाप्रसाद की भी शादी कर दी थी अम्मां ने। इसके पहले उन्होने मुन्नी जिज्जी को भी शादी करके ससुराल विदा कर दिया था।
चंपाप्रसाद की बहू घर में आई, तो कालका भैया का आंगन में प्रवेश निषेध हो गया। वे दालान या पौर में ही बैठे रहते या फिर पिताजी के साथ डाकघर का काम निपटाते रहते। चंपाप्रसाद जब भी पत्नी के साथ होते एक अजीब सा अपराध बोध उन्हें घेर लेता। वे भारी संकोच में रहते। घर में बिना घरवाली वाला ब्याहा थ्याहा बड़ा भाई बैठा था और छोटा जवानी का सुख भोग रहा था। कालका भैया का ध्यान खेती में लगने लगा था और वे भुरहरा-बेला खेत-टगर में निकल जाते फिर रात गये तक ही उधर ही रहते।
ऐसे में ही एक दिन अचानक पिताजी सोते के सोते रह गये। घर पर आफत टूट पड़ी थी। अम्मां का धीरज एक बार फिर काम आया। उनने तेरही होने के पहले ही कालका प्रसाद को डाकघर का काम संभलवा दिया। डाकखाने के बड़े अफसरों को दरख्वास्त भेजी गयी कि पिता की जगह पुत्रा को डाकघर का काम दे दिया जाये। बाद में कालकाप्रसाद के नाम का रुक्का भी आ गया था, तो अम्मां ने चैन की सांस ली थी। चंपाप्रसाद की पढ़ाई छुड़ा के वापस बुलाया और अम्मां ने उन्हें घर द्वार संभालने की जिम्मेदारी सौप दी थी। सब कुछ ठीकठाक चलने लगा था। गांव के एक मात्रा पूजा स्थल राम जानकी मन्दिर की सेवा पूजा भी पंचों ने कालकाप्रसाद को सौंप दी, तो उनकी दिनचर्या सुबह से शाम तक एकदम तंग और कसी-कसी सी हो गई थी।
कार्तिक का महीना आया तो गांव भर की औरते ''कतक्यारी'' बन गईं और कार्तिक नहान का व्रत ले बैठीं। हर दिन सुबह पांच बजे औरतों के ठट्ठ के ठट्ठ कुऑं-तालाब की तरफ चल पड़ते। नहाने के बाद भीगे कपड़ों में ही स्त्रियां मूर्ति के आसपास गोल बनाके बैठ जाती फिर देर तक भगवान को पूजती रहतीं। वे आपस में खूब चुहल बाजियाँ भी करतीं। इतनी स्त्रियों की सुरक्षा के लिए एकाध मर्द बहुत जरुरी था, सो सब महिलाओं ने परस्पर घोका-विचारी करके पुजारी कालकाप्रसाद से थराई-विनती करी और उन्हें नहाने के बखत साथ चलने को राजी कर लिया।
चंपाप्रसाद अनुमान लगा सकते हैं कि बाहर से वैराग्य का प्रदर्शन करते कालका भैया का मन भीतर से तब भी अनुरागी रहा होगा। उन क्षणों में उनका मन कैसे स्थिर रह पाता होगा, जब एक वस्त्र बदन पर लपेटे, अगल-बगल से अपने गुदाज-ठोस स्तनों की झलग दिखाती,कनखियों से कालका की नजरों को पढ़कर आंखें में सुखानुभूति भरे अर्धनग्न महिलायें पूजा का बहाना करती हुई गीले कपड़ो में देर तक उनके सामने चुहल करती होंगीं, या जब कोई कतक्यारी अपनी सखी के कान में फुसफुसाती होगी कि 'रात को कुत्ता छू गया सो मेरा तो धरम भिरस्ट हो गया मै पूजा कैसे करूं गुइयां' या 'कल मेरे ऊपर कल छिपकली गिर पड़ी जो हर बार चौथ-पांचे को गिरती थी, सो आज मैं पूजा नहीं कर पाऊंगी।' साधारण बात है कि ''कुत्ताा'' और ''छिपकली'' के प्रतीकार्थ कालका भैया खूब समझते होंगे।
सुबह के स्नान में कतक्यारियों के सखा बने कालका भैया दोपहर के दूसरे स्नान के बाद लौटती उन्हीं सखियों का रास्ता छेड़ लेते -
प्यारी यहां दधिदान लगे, मम घाट यहां तुम जानत नाहीं।
दै दधिदान खौं जाव घरै, बस और यहाँ कछु लागत नाहीं॥
सखियां कहती-
इकली छेड़ी वन मैं आय श्याम तूने कैसी ठानी रे......।
कंस राजा ते करुं पुकार, मुसक बंधवाय दिवाऊं मार,
तेरी ठकुराई देय निकार,
जुलम करे नहीं डरे हरे तू नारि विरानी रे....। इकली छेड़ी ....
कालका भैया झूम कर गाते-
कंस का खसम लगे तेरो, वो तनहा कहा मेरो,
काउ दिन मार करु ढेरो,
करुं कंस निरवंश मिटा दऊं नाम निसानी रे.....।
कालका भैया को सैकड़ो कवित्त, सवैया, लावनी और दोहे मुखाग्र याद थे, जबकि सखियां अपने हाथ में किताबें लेकर मुकाबला करतीं। पर अन्त में कालका भैया की ही जीत होती और सखियों को प्रचलित रिवाज के मुताबिक उन्हें थोड़ा थोड़ा दान और माखन मिश्री देना पड़ता।
तीसरे पहर उजले सफेद धोती कुत्तर्ाा में सजे-धजे, इत्र से महकते कालका भैया मन्दिर में बैठ के प्रेमसागर की कथा कहते।
कृष्ण चरित्र की गाथायें सुनाते-सुनाते कालका भैया कथारस में गहरे डूब जाते और कथा में चल रहे हर प्रसंग, हर दृश्य और हर भाव का बारीक-बारीक वर्णन करते। उन्हें सारी बृज लीलायें अपने समक्ष साकार होती दिखतीं। गांव वृन्दावन लगने लगता और सारी स्त्रियां गोपी। कालका भैया को भ्रम होता कि वे कान्हा बन गये हैं, और वे कुछ ऐसी-वैसी हरकत कर डालते।
शुरु शुरु में मजाक मान के किसी ने कुछ न कहा पर रोज-रोज वही हरकत देख एक महिला ने घर जाके शिकायत कर दी, तो उस दिन लखन नौगरैया उलाहना लेकर अम्मां के पास आ गये थे।
अम्मां ने उन्हे समझा-बुझा के वापस भेजा, तो अगले दिन पंचमसिंह दाऊ आ धमके थे। अब कर्री बीध गई थी, पटक्का होना था। अम्मां ने उनसे थराई विनती कर क्षमा मांगी और कालकाप्रसाद को तत्काल ही कथा-भागवत के कार्य से बेदखल कर चंपाप्रसाद को उनका चार्ज दिला दिया था। चंपाप्रसाद ने निर्पेक्षभाव से कथा सुनाानी शुरू कर दी थी। कुछ ही दिनों में उन्हे अनुभव होने लगा कि सखियों को इस रूखी-सूखी कथा में मजा नहीं आ रहा है। वे कथा में दो अर्थ वाले संवाद नहीं जोड़ते थे, न रासलीला प्रसंग को लम्बा खींचते थे। दरअसल उनके घर में नवयौवना,सुंदर,सुघड़ दुलहन थी, सो उन्हे फुरसत ही नहीं थी कि गांव की किसी भौजी को नजर भर के देखें।
साठ बीघा खेतों की भरपूर फसल, कालका भैया की डाकघर की तनख्वाह और पुरोहिताई-चढ़ौत्राी से इतनी आमदनी हो जाती कि अल्लै-पल्लै पैसा बरसता। उनके घर के लोग कभी भी ज्यादा खर्चीले नहीं रहे। सब मोटा खाते-मोटा पहनते। सो टाईम-बेटाईम घर में पैसा बना रहता। अड़ौस-पडौस में जिसे जरूरत होती, अपना काम चलाने को रूपया मांग ले जाता। बाद में चंपाप्रसाद ने बाकायदा ब्याज पर रूपया उधार देना शुरू कर दिया। इससे उनका मान-सम्मान और ज्यादा बढ़ गया। अब वे कंगला ब्राह्यण न थे, बल्कि गांव के इज्जतदार बौहरे हो गये थे।
धन और प्रतिष्ठा बढ़ी, तो ब्राह्यण समाज की बिरादरी-पंचायतों में वे पंच बनाये जाने लगे। गांव की ग्रामीण पंचायतों में भी वे सर्वमान्य पंच बन गये। ज्यों-ज्यों इज्जत मिली, त्यों-त्यों वे छुआछूत और ब्राह्यण्ाी संस्कारों के प्रति ज्यादा कठोर होते चले गये। इस प्रतिष्ठा और मान-सम्मान ने उनके मन पर ऐसा असर छोड़ा कि वे कालका भैया के दूसरे ब्याह की बात तक नहीं सोच पाये। दरअसल कालका भैया को अब इस उमर में कोई कुंवारी लड़की तो देता नहीं, हां कोई विधवा या परित्यक्ता ब्राह्यणी मिल पाती। ऐसी औरत ले आने से चंपाप्रसाद की सारी इज्जत धूल में मिल जाती।
शुरूआत में तो अम्मां के पास जब-तब कालका भैया की बदचलनी की शिकायतें आतीं तो अम्मां उन्हैं खूब डांटतीं और वे चुप बने सुनते रहते। पर बाद में वे बेशर्म और उग्र होने लगे। एक बार खेती के मईदार (हलवाहे) नत्था की परित्यक्ता बहन झुमकी से संबंध बने और अम्मां ने उनको रोका तो उनने अम्मां को खूब खरी-खोटी सुनाई थीं। उनका तर्क था कि अम्मां सिर्फ चंपाप्रसाद और उसके बच्चों की फिकर करती हैं, कालकाप्रसाद की उन्हें कोई चिन्ता नहीं है। इसी तरह जब एक बाल विधवा गांव के स्कूल में मास्टरनी बनकर आयी और कालका भैया का उससे परिचय बढ़ गया तो उनका स्कूल में ज्यादा आना-जाना होने लगा, तब अम्मां ने उन्हें टोका तो कालका भैया ऐसे ही बिफर पड़े थे। दरअसल खेती पाती संभालने का हुनर तो घर में सिर्फ उन्हीं के पास था। चंपाप्रसाद तो ऊपरी उठा-धराई करते थे। इसलिए सब लोग कालका प्रसाद से दबते भी थे।
अभी साल भर पहले की बात है। उस रात अम्मां को अचानक हैजा हुआ, तो उन्हें तुरन्त ही मोटर सायकिल पर बिठा के कस्बे तक भागे गये। सारा घर परेशान हो उठा। इन्जेक्शन लगे। बोतलें चढीं। पर अम्मां बच नहीं पाईं। घर पर अचानक गाज सी गिर गई। सब लोग बुरी तरह टूट गये।
सबसे ज्यादा सदमा कालका भैया को लगा। उन पर ऐसा असर हुआ कि वे काम-वासना से एक बार फिर वैरागी से हो गये। उनका ध्यान पूरी तरह से खेती में लगने लगा। एक-एक करके चार कुंये खुदवाये और पूरी जमीन पटवारी की ही में सिंचित रकवा के रूप में दर्ज हो गई। बैल की तरह वे खेत टगर में घूमते रहते और फसल के सीजन में धन-धान्य से घर भर देते। हां ठसके से रहने का नया शौक चर्राया था उन्हेें। सफेद उजले कमीज-पजामा पहनकर पावों में वे चमड़े के पंप-शू पहन लेते। सिर में महकौआ तेल चुपड़ कर प्राय: गांव के बस स्टैण्ड पर सुबह ही जा बैठते, फिर सांझ ढले वहां से लौटते।
एक बार फिर सब कुछ ठीक हो गया था।
छह महीना पहले गांव में नया सरकारी अस्पताल खुला और दक्षिण भारत की एक नर्स उसमें स्थायी रूप से नियुक्त होकर रहने के लिए आ गई थी।
पता लगा कि यह नर्स केरल की रहने वाली है और इसका नाम चेलम्मा है। गाँव की औरतें कई दिनों तक चटखारे लेकर नर्स के नाम का उच्चारण करने की कोशिश करती रहीं थीं।
चम्पा प्रसाद ने चेलम्मा की सराहना सुनी थी कि इतने दूर से अकेली चली आई चेलम्मा सचमुच बड़ी निडर और समझदार औरत है। उसकी तत्परता का ये हाल था कि गाँव में से रात बिरात जब भी बुलौआ पहुँचता वह तुरंत ही अपने कंधे पर सरकारी बेग लादकर हाथ में टॉर्च ले तेज कदम रखती फटाक से गाँव में आ धमकती। गाँव में किसी की जचगी होती या किसी दुल्हन के पहली बार पांव भारी होने की खबर फैलती चेलम्मा सदा ही वहाँ मौजूद मिलती। धीरे-धीरे गाँव भर में वह इतनी लोकप्रिय हो गई कि लोग उसे घर का सदस्य मानने लगे।
चर्चा सुनी तो एकदिन चम्पा प्रसाद भी टहलते हुये भी अस्पताल जा पहुँचे थे। अस्पताल के चौकीदार ने नर्स को उनका परिचय दिया तो चेलम्मा ने उनके प्रति खूब आदर प्रकट किया और सिर पर पल्लू लेकर बैठ गई। उन्हें सुखद विस्मय था कि देश के किसी भी कोने की महिला क्यों न हो सब एकसी होती हैं- वही शालीनता, वही लज्जा और वही सौहाद्रता। देखने में सांवली और सूखे से चेहरे की चेलम्मा की उम्र मुश्किल से तीस वर्ष दिखती थी। रहन-सहन में वह बड़ी साफ और गरिमामय महिला दिखती थी। उसका हिन्दी बोलना अच्छा लगता था। वह खूब पढ़ी-लिखी थी और दुनियादारी की बातें अच्छे से समझती थी। उस दिन मन ही मन चेलम्मा की तारीफ करते वे वहां से लौटे थे।
उन्हीं दिनों की बात है। अचानक कालका भैया को पूरे बदन में खुजली का रोग फूट निकला। ऐसा भयानक कि वे बेहाल हो उठे। हाथ की उंगलियों के जोड़ से शुरु हुर्इं छोटी-छोटी पीली फुंसियां जांघों-रानों और जहां जगह मिली, बढ़ती चली गईं। खुजली टांगों में फैली तो चलना मुश्किल हो गया, लुंगी बांधे वे टांगें चौड़ी करके चलते थे तो बड़ी तकलीफ होती थी। कांयफर को तेल में मिलाके उनने कई दिन खाया और लगाया, चिरौंजी और मिश्री कई दिनों तक भसकी पर ठीक न हुये। पहले तो हिचकते रहे, फिर एक दिन अस्पताल जाकर कालका भैया ने खुजली की दवा मांगी, तो नर्स चेलम्मा ने बिना किसी लिहाज के अपने हाथों कालका भैया के शरीर पर नीली सी दवा पोत दी थी। उसके दवंग और वेलिहाज आचरण तथा समर्पित सेवाभाव और खुलेपन पर कालका भैया भावाविभूत हो उठे थे।
चंपाप्रसाद को ठीक से याद है कि कालका भैया तब से रोज ही अस्पताल पहुंचने लगे हैं। शरीर की बीमारी तो कब की ठीक हो चुकी थी, पर शायद दिल की बीमारी लग गई थी कालका भैया को। फिर तो घर से प्राय: दालें-दफारें, गेंहूं-चना यानी कि फसल पर जो भी चीज पैदा हो झोलों में भर-भर के चेलम्मा के पास पहुंचने लगी हैं। चंपाप्रसाद यह सब देखके जान बूझकर चुप रहते हैं।
चेलम्मा पढ़ी-लिखी खुद-मुख्तार औरत है। उसने जो भी किया होगा अच्छी तरह से सोच समझ के किया होगा। फिर दूर देश की इस अकेली औरत के वास्ते लड़ने-तकरार करने को कोई नहीं आने वाला है। यह सब उनने खूब सोचा है। चलो अच्छा है, इस बहाने बड़े भैया का कुछ दिन मन बहलता रहे। क्या हर्ज है? कई रातों से बड़े भैया के घर न लौटने पर इसी लिये उनने कुछ नहीं कहा है। पर आज जिस तरह से लूले कक्का ने उन्हें उलाहना दिया, उससे लगता है कि अब गांव वालों के पेट में दर्द हो उठा है।
बेटी की आवाज से वे चौंके। वह याद दिला रही थी कि दोपहर के दो बज गये हैं और उनने अभी तक न नहाया-धोया न पूजा करी।
उदास से वे उठे और अपनी धोती-बनियान लेकर बाखर के पिछवाड़े वाले हैण्डपम्प पर जा पहुंचे।
सिर पर ठण्डा पानी गिरा तो सारे बदन में एक फुरहरी सी आ गई। अभ्यस्त भाव से उनने हनुमान चालीसा बोलना शुरु कर दिया -जय हनुमान ज्ञान गुण सागर.........
पाठ पूरा होते ही उनने धुले कपड़े पहन लिये थे और पीतल का लोटा मांज के शुध्द पानी से भर लिया था। बाखर में रखी अज्ञात देवताओं की अस्पष्ट सी प्रतिमाओं पर जल ढार के उनने सूरज भगवान की ओर मुंह उठाया और लोटे को थोड़ा ऊँचा उठाके तुलसाने में जल धार गिराना शुरु कर दी- ऊँ तापत्राय हरं दिव्यं परमानंद लक्षणम्। तापत्राय विमोक्षायतवार्ध्य कल्पयाभ्यहम्।
अटारी के नीचे वाले मढ़ा में बने पूजा के स्थान पर अगरबत्ताी जलाके वे पूजा करने बैठे तो लाख जतन करने से भी ध्यान में मन न लगा। न वे जप कर सके, न गोपाल सहस्त्रानाम का पाठ। संध्यावंदन तो वैसे भी संभव न था। वे आंख मूंद के वहीं बैठे रहे।
बूढ़े पुराने सच कह गये हैं कि किसी के बारे में कुछ कहने से पहले दस बार सोचना चाहिये। लूले कक्का ब्राम्हण हैं और उन के मामले में उनसे यही गलती हो गई कक्का का छोटा बेटा प्रकाश पैंतीस साल का होकर अनब्याहा बैठा था । कारण था सिर्फ इतना कि लूले कक्का शुरू से हरिजनों के हितचिंतक रहे और वहीं उठते बैठते रहे । सो कौन ब्याह करता ? प्रकाश ने एक बाल विधवा हरिजन लड़की से संबंध जोड़े तो पंचायत बैठी थी । तब पंच की हैसियत से चंपाप्रसाद ने प्रकाश के खिलाफ फैसला दिया था और तब से लूले कक्का का गांव भर में हुक्का पानी बंद है । वे तो मन मार के कहीं भी चले जाते हैं पर कोई भी उन्हें दिल से आदर नहीं देता ।
आज लूले कक्का पूरे गांव में चर्चा फैला देंगे कि कालका दुबे ने अस्पताल की मद्रासी केरली नर्स को रखैल बना लिया है, और पखवारे भर से उसी के क्वार्टर में रात रुकते हैं। कल यही बात बाम्हन विरादरी में जायेगी तो मुंह दिखाने काविल नहीं बचेंगे वे। उनने जिन आरोपियों का फैसला किया है, वे अब आकर मुंह पर उलाहना ठोकेंगे। बरतन के मुंह पर तो ढक्कन हो सकता है, पर आदमी के मुंह पर कोई ढकना नहीं होता। कौन-कौन का मुंह रोकते फिरेंगे वे !
मुन्नी जिज्जी की ससुराल तक भी बदनामी पहुंचेगी तो बहनोई और उनके पिता की कहलान आ जायेगी। चंपाप्रसाद की खुद की ससुराल में यह प्रसंग नमक-मिर्च लगाके पहुंचेगा तो कितनी शर्मिन्दगी उठाना पड़ेगी। घर में जवान होती लड़की है। लड़की की पीठ का लड़का भी सयाना है। वे दोनों सुनेंगे तो गांव में लोगों से कैसे आंख मिला पायेंगे। अपने बाप से भी कैसे नजर मिला सकेंगे।
तो? तो क्या समाधान है इस समस्या का?
समाधान कहो, रास्ता कहो अब हल तो एक ही है कि कालका भैया को खुली साफ जुबान से समझा दिया जाये कि - तुरंत बंद करो अब अपने ये एैल-फैल। तिलांजलि दो अपने कुकर्मों को। तुम्हारे कुकर्मों की वजह से आज पूरे खानदान की नाक कट रही है। जिस जात कुजात से रिश्ता बनाके बैठ गये हो, छोड़ो उसे !
कालका भैया यदि चंपाप्रसाद की बात न समझें तो उन पर रिश्तेदारों का दबाब बनायेंगे। मुन्नी जिज्जी के ससुर को बुला लेंगे, उनसे कहलायेंगे।
न होगा तो मामा को बुला लेंगे। उनका कहना तो मानेंगे कालका प्रसाद। जिसका भी कहा मानें, उसी से कहलायेंगे। किसी भी तरह अब ये संबंध खत्म करवाना है उन्हें।
चंपाप्रसाद ने अनेक धर्मग्रंथ पढ़ रखे हैं। उनने अध्ययन किया है कि जब किसी व्यक्ति पर वासना का भूत चढ़ता है, तो वो किसी की नहीं मानता। बुढ़ापे में उठी वासना की आग तो वैसे भी ज्यादा भड़कती है, इसके कितने ही उदाहरण हैं ग्रंथों में। भीष्म के पिता शांतनु इसी उम्र में मछुआरे की लड़की पर मोहित हुये थे, और इसी अवस्था में पहुंचकर राजा ययाति भी देवलोक की अप्सरा के वशीभूत हो गये थे। वे तो इस कदर दीवाने हुये कि अपने बेटे की जवानी तक उधार ले ली थी उनने।
सहसा उनके विचारों के अश्व रुके........ कहीं कालका भैया इस बात पर अड़ गये और चेलम्मा से संबंध नहीं तोड़े, तो?
तो.........? तो.........? तो.........?
इस एक अक्षर के प्रश्न की अभेद्य दीवार को भेदने के लिये दो-तीन रास्ते सूझते हैं उन्हें।
एक तो यही कि बदचलनी के अपराध में ब्राह्मणों की बिरादरी से बहिष्कृत करवा सकते हैं वे कालका प्रसाद को। ताकि भूत-प्रेत की तरह ता उम्र अकेले जियें। रखें रहे और निहारते रहें उस काली-कलूटी बदजात औरत को।
दूसरा यह भी कि पूरे गांव के लोगों को भड़का कर थू-थू भी करा सकते हैं वे अपने बड़े भैया की। गली-गली में लोगों के उलाहने सुनेंगे, तो सारी अकल ठिकाने आ जायेगी।
एक रास्ता यह भी है कि अस्पताल और डाकघर के बड़े अफसरों के पास जाकर चंपाप्रसाद खुद शिकायत कर सकते हैं। नौकरी ही खतरे में होगी तो दोनों की मस्ती क्षण भर में काफूर हो जायेगी।
नर्स को यहां से दूर कहीं तबादले पर भी फिकवा सकते हैं वे थोड़े प्रयत्न से, ......... और तबादला न हो पाये तो उसके हाथ-पांव भी तुड़वाये जा सकते हैं। उनके ये इगड़े-बिगड़े चेले कब काम आयेंगे भला ! ज्यादा तीन-पांच करेंगे तो कालका भैया को भी सबक सिखाया जा सकता है। जमीन जायदाद के लाने तो महाभारत जैसे युध्द हो गये हैं भाई-भाई के बीच। शास्त्रा कहते हैं कि ऐसे युध्द धर्मयुध्द होते हैं।
नये-नये उपाय तलाशती उनकी बुध्दि के सामने फिर एक प्रश्न चिन्ह उठा कालका भैया आखिर उनके बड़े भाई हैं, हर रास्ते की काट सोच लेंगे। उन पर विरादरी और गांव के प्रतिबंधों का भला क्या असर होगा? वैसे भी सुबह पांच बजे से रात दस बजे तक खेत-टगर में समय काटने वाले कालका भैया को इन गांव वालों, जाति वालों और सरकारी अफसरों का भला क्या डर? उन्हें क्या मूसर बदलना है किसी से ! किसी से अपनी संतान थोड़े ब्याहने जाना है। नि:संतान रण्ड-सण्ड आदमी। आज मरे कल तीसरा। डरता-हिचकता वो हैं जिसके पास गंवाने के लिए, खोने के लिये कुछ हो। इनके पास कुछ है ही नहीं, तो खोंयेगे क्या? क्या बिगड़ेगा उनका?
हां, सचमुच कालका भैया का कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, यह सोचकर चंपाप्रसाद बैचेन हो उठे।
कालका भैया कल को ये भी कह सकते हैं कि चलो मैं छोड़ देता हूँ तुम्हारा घर! मेरा हिस्सा-पटा कर दो इसी वक्त !
हिस्सा-पटा !
हाँ सचमुच वे अपना हिस्सा तो मांग ही सकते हैं। हिस्सा माने आधी जायदाद, माने कुल जायदाद में से तीस बीघा जमीन, दो कुँआ, दो भैंसे, तीन बैल और आधी बाखर। अर्थात घर का सब कुछ आधा-आधा। यदि आधा धन चला गया तो क्या बचना है ! बहुत कमजोर होके रह जायेंगे चंपाप्रसाद। कुछ भी तो शेष नहीं रहेगा।
जिस जमीन जायदाद के जोर पर उछल रहे हैं वहीं न बची तो क्या इज्जत रह जायेगी? कानी-बूची जायदाद क्या माथे से ठोकेंगे वे !
कहाँ तो इस बरस नया ट्रेक्टर उठाने का मीजान लगा रहे थे और कहां अब मौजूदा चीजें बचाने के लाले पड़ गये हैं। तीस बीधा जमीन में तो कोई भी बैंक वाला ट्रेक्टर का कर्जा नहीं देगा। सारे अरमान अधूरे रह जायेंगे।
घर से ऊँचा-पूरा भाई चला गया तो हिम्मत ही टूट जायेगी उनकी। फिर कैसे संभालेंगे वे अपनी कच्ची ग्रहस्थी? गांव के लोग तो वैसे ही दुश्मन हैं। वे सब ऐसे ही मौके की तलाश में रहते हैं। अकेला देख के चढ़ ही बैठेंगे चंपाप्रसाद पर।
..... और अगर अपने हिस्से की खेती संभालने की जिम्मेदारी चंपाप्रसाद पर आन पड़ी तो कैसे संभालेंगे वे अपनी खेती? उनने अपनी जिन्दगी में खेती करी ही नहीं है कभी। खेती तो बिगड़ ही जायेगी अनाड़ी हाथों में पड़ के। खेती बिगड़ी तो सब कुछ बिगड़ा। फिर भरी-पूरी गृहस्थी का साथ है, आधी-अधूरी फसल में क्या नहायेंगे, क्या निचोड़ेंगे ! उधर कालका भैया और उस कल्लो चेलम्मा के मजे ही मजे होंगे। तीस बीघा खेत में दक्ष-सुघड़ हांथों से पैदा की गई अल्लै-पल्लै फसल, दो-दो तनख्वाहें और खर्च के नाम पर सुखे-पुछे दो जने। रईसी ठाठ होंगे उनके तो।
चंपाप्रसाद को कालका भैया का जीवन बड़ा सुखी दिखा। उनने मन ही मन अपनी जीवन शैली से कालका भैया की शैली की तुलना की वो एकर् ईष्या सी हो आई उन्हें। बस एक पत्नी की ही तो कसर रही जिन्दगी में, इस कमी की क्षतिपूर्ति दर्जनों जगह से करते रहे हैं। घाट-घाट का पानी पिया है कालका भैया ने, हर बिरादरी, हर नस्ल और हर उम्र की बछिया पर हाथ फेरा है। चंपाप्रसाद हैं कि अपनी पत्नी के खूंटे से बंधे बैठे रहे शुरु से। पंडिताईन की मौटी थुल-थुल देह पहली थी। और वही शायद आखरी रहेगी। उन्हें जजमान प्रोहिताई में ऐसी-ऐसी औरतें देखने को मिली हैं कि उनके आगे इन्द्र के दरबार की अपसरा भी फीकी लगें। संगमरमर सी तराशी नाक-नक्श वाली युवतियाँ जिन्हें देखकर ही अच्छे-अच्छों का मन विचलित हो जाये। पर वे कभी विचलित नहीं होंगे। या यों कहो कि उनके भाग्य में पर नारी को भोगना लिखा ही न था। सो वे लंगोट के पक्के बने रहे।
चंपाप्रसाद को लगा कि मन कुछ बैठ सा रहा है।
उन्हें अपने भाई पर एक बार फिर झुंझलाहट हो आई - ये कालका भैया भी खूब हैं ! अरे दिल भी लगाना था तो किसी ब्राह्मणी से लगाते। आज इतनी बात बढ़ गई थी तो मन मार के उस औरत को घर में ले आते। देखो तो, इस बदसूरत जात-कुजात अंजान मजहब की, कहां की औरत से नेह लगाया है, कालका भैया ने।
उनने गहरी सांस खींचते हुये सोचा- कदाचित यही औरत उत्तारी न सही दक्षिण भारतीय ब्राह्मण होती। तो भी वे कुछ सोचते। सोचते क्या, खुशी-खुशी तैयार हो जाते। इधर घर की जायदाद बची रहती, उधर नर्स की तनख्वाह के नये करारे पांच हजार रुपये के नोटों की गड्डी हर माह घर में आने लगती।
उनकी आंखों के आगे पांच हजार रुपये की गड्डी तैरने लगी।
उन्हें लगा कि उनके मन में इतनी देर से उठ रहा बवंडर कुछ ज्यादा ही तेज हो चला है।
प्रतिकूल और आपदाग्रस्त स्थितियों में सदा से चम्पाप्रसाद का मस्तिष्क कुछ तेज ही चलता रहा है। वे अपनी बिरादरी में चतुर दिमाग के माने जाते हैं। खुद की विलक्षण और शरारती क्षमताओं पर उन्हें भी खूब गर्व है। गहरी नींद में भी उन्हें अहसास रहता है कि वे समाज की सर्वोच्च बिरादरी में हैं। लोगों को सही गलत बतलाना उनका खानदादी अधिकार है, जो हर ब्राम्हण बच्चे को स्वत: ही जन्म जात मिलता है। बड़ी जाति वालों की मजबूरियों और तकलीफों के शुभचिंतक हैं वे। छोटी जाति वाले तो पशु योनि में रहे हैं। भला इनसे क्या सहानुभूति रखना। यह उन्हें बचपन से ही बताया गया है। अब ब्राम्हण तो ब्रम्हा का मुख हैं- ब्राम्हणो मुख मासीत्। सारे ब्राम्हण एक ही तो हैं चाहे उत्तारी हो चाहे दक्षिणी। यह तो भौगोलिक भेद हैं। सब ब्राम्हणों के गोत्रा, पटा, आसपद, वेद और बैक (आंकना) एक है। सब के ग्रन्थ एक, संस्कार एक और धार्मिक प्रतीक भी एक से होते हैं। खाल के रंग और भाषा, पहनावा तो ऊपरी भेद हैं। इन्हें छोड़दे तो सब गड्डम-गड्ड हो सकते हैं। मनुष्य-मनुष्य वैसे भी एक से होते हैं। वही हाथ-पांव, वही खून-मांस, काहे का फर्क और काहे का भेदभाव?
वे अनायास चेते। मन के किसी कोने से एक स्वर उभरा- यह क्या क्षेत्रावाद और जातिवाद का सबसे बड़ा समर्थक रहा उन जैसा व्यक्ति ऐसा उदार कैसे हो सकता है। उन जैसा कर्मकाण्डी-वेदपाठी व्यक्ति ऐसा सोचने लगेगा तो समाज के दूसरे लोगों का क्या होगा? यह तो पाप हैं, घोर पाप। ऐसा सोचने का दण्ड मिलेगा उन्हें।
एक पल मस्तिष्क शून्य रहा फिर मन ने तर्क गढ़ा - कलियुग में सोचने मात्रा से कभी पाप नहीं लगता, पुन्य जरुर लगता है। तुलसी बाबा कह गये हैं- कलिकर एक पुनीत प्रतापा, मनसा पुन्य होइ नहीं पापा। समाज के दूसरे लोगों की चिन्ता करने से भला उनका कैसे काम चलेगा! ये भौतिक जमाना है। रुपया पैसा ही सबकुछ है इस युग में। सम्पत्ति बचा लेना सबसे बड़ी सफलता होगी इस जमाने में। वैसे भी छोटी जाति की लड़की लेना तो सदा से अधिकार रहा है बड़ी जाति वालों का। कृष्ण द्वैपायन व्यास की प्रिया भला कोई उच्च वर्ण से थी क्या? मनु स्मृति में कहा गया है कि स्त्राी की कोई जाति नहीं होती। जिस बिरादरी का व्यक्ति कन्यादान करे, लड़की का गोत्रा वही होता है। जिस खानदान में ब्याही जाये उसी जाति की कुलवधू कहलाती है। चम्पा प्रसाद को याद आया कि समाज में हजारों साल पुरानी कहावत है -राजा घर आई रानी कहलायी, पंडित घर आई पंडिताईन कहायी। स्त्राी तो समाज की गूंगी गाय है। न उसकी अनुमति लेना न जाति पूछना, यह पुरातन रीति है इस देश की।
पूजा पर बैठे-बैठे ही चम्पा प्रसाद ने अनुभव किया कि उनने आज क्या-क्या नहीं सोच लिया। कभी-कभार आत्म निरीक्षण करने पर वे अपने आप को बड़ा सीधा, सौम्य और नीतिवान पाते हैं। लेकिन आज उन्हें स्वयं पर विस्मय था कि आदमी को खुद पता नहीं होता कि उसके अवचेतन मन में परिवार, समाज और विरादरी से क्या-क्या अवधारणा जम जाती हैं। गाँव में लूले कक्का और उनके सहयोगी लोग अब तक जो धूर्त, चालाक और गुरु घंटाल की उपाधियाँ देती रहे वे शायद सच्ची थीं। उन्हें ताज्जुव था कि इन उपाधियों को याद करके उन्हें जरा भी लज्जा और हीन भावना अनुभव नहीं हो रही है- बल्कि गर्व सा लग रहा है।
वे चैतन्य हो गये। मन ही मन उन्होंने एक निर्णय लिया कि उनने जो सोचा है ''कदाचित यही औरत उत्तारी न सही दक्षिणी भारती ब्राम्हण होती तो वे कुछ सोचते'' वह कल्पना हवाई नहीं है। उसे सच भी किया जा सकता है।
हो सकता है चेलम्मा सचमुच दक्षिण भारतीय ब्राम्हण बिरादरी यानि नम्बूदरी या आयंगर ब्राम्हण हो................। अब तक उससे जाति पूछी ही किसने है? चम्पा प्रसाद मन ही मन एकाएक उन्होंने बड़ा भीष्म निर्णय लिया जो न उनके पहले किसी ने लिया था न उनके खानदान में शायद कोई ले पाये। चेलम्मा अब इस घर में जरुर आयेगी। वह अगर ब्राम्हण जाति की ना भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। वैसे भी भविष्य में उसकी असली जाति का पता किसे लगना है। अभी उसी से कहला देंगे की वह केरल के नम्बूदरी ब्राम्हण खानदान की कन्या है। फिर क्या है, गांव में मंदिर में जाकर विधि विधान से कालका भैया की सप्तपदी करा देंगे, गांव वालों को खीर-पूरी के साथ पचबन्नी मिठाई की पंगत जिमा देंगे सो वे भी चुप। ब्राम्हण समाज के अध्यक्ष को बुलाकर कहेंगे- पंडित जी आप जो कान्य-कुब्ज, जिझौतिया, सनाडय और भार्गव जैसे उपभेद समाप्त करने की बात करते हैं ह उससे सहमत हैं और अपने घर में ही यह दिखाने को तैयार हैं। हम तो दो करम आगे जाकर दक्षिण भारतीय ब्राम्हण की लड़की घर में ला रहे हैं। चलो कन्यादान आप ही कर दो।
चेलम्मा से कहके केरल के रहने वालों में से इधर आसपास कहीं कोई परिवार होंगे तो उन्हें न्यौता भेज देंगे। विवाह संस्कार को ''दक्षिणी विवाह पध्दति'' से सम्पन्न करा देंगे। मलयाली स्त्रिायाँ इस अवसर पर कितनी भलीं लगेंगी जब वे एक स्वर होके गायेंगी-
विवाह करने के निर्णय के साथ ही उनके मन का सारा द्वंद्व धूल के अंधर की तरह एकाएक मंदा पड़ता हुआ शांत हो गया - चलो जायदाद बची रह गई तो जाति और समाज भी सम्मान देगा।
अपने इष्ट देव के सामने उन्होंने सिर झुकाकर प्रणाम किया। उठे और उतावली में आंगन में चले आये।
दिन ढल रहा था पर उन्हें न भूख थी न प्यास। कुछ देर बाद ही वे
धुले-चमकदार धोती-कुर्ता पहन कर नये पम्पशू पांव में उलझाये घर से बाहर निकल पड़े थे।
बाहर दरवाजे के आगे नौहरे में भैंसे और गायें बंधी थीं। उन्हें देखकर चम्पा प्रसाद को एकाएक लाड़ सा उमड़ आया। वे उनके पास गये और पुचकारने लगे। उनने सींग की जड़, कान और गर्दन को खुजलाया फिर ढोर के गले में नीचे लटकी नर्म खाल की झालर सहलाते हुये उनका मन मोह में डूबने उतराने लगा।
कुछ देर बाद ही वे अपने खेतों के बीच से गुजर रहे थे। यहाँ से वहाँ तक भरपूर जवानी से लदी गेंहूँ की सुनहरी फसल खड़ी थी। चारों ओर जैसे सोना ही सोना बिखरा पड़ा हो। फसल देखकर उनकी ऑंखों की चमक और ज्यादा बढ़ गई - इस साल बीघा पीछे छह क्विंटल से कम क्या झरेगा !
अस्पताल जाने वाले रास्ते पर मुड़ते हुये वे एक कुशल संवाद लेखक की तरह ऐसे वाक्य रच रहे थे, जो चेलम्मा के मुंह से बुलवाये जाने पर न तो बनावटी लगें और न अस्वाभाविक।
अब न उन्हें बैचेनी थी और न कोई भय। बल्कि एक अजीब सी उत्तोजना थी। उनकी चाल को देख के यह उत्तोजना सहज ही समझ में आ जाती थी।
राजनारायण बोहरे, दतिया (म.प्र.)
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