रविवार, 14 मार्च 2010

समीक्षा






पुस्तक समीक्षा-
रामभरोसे मिश्र
मुखबिर  चम्बल घाटी का खौफनाक सच

‘चम्बल और डाकू ’ साहित्य के लिए बड़ा पुराना सा सब्जेक्ट है, भले ही उसके आयाम बदल गये हों। चम्बल घाटी के लेखकों की त्रासदी यह है कि इन्हे ंइसी यथार्थ के साथ रहना-जीवन गुजारना है। यूं तो परिवेष व प्रामाणिकता को लेकर हिन्दी कथासाहित्य हमेषा से चर्चा में रहा । अगर लेखक अपने परिवेष की कहानियां नहीं लिखता तो यह माना जाता है कि उसे अपने ही घर के बारे में सहीसही जानकारी नहीं है, और अगर अपने ही अंचल की कथाऐं लिखता रहे तो उसे संकीर्ण सोच का रचनाकार माना जाता है, लेकिन चम्बल के अंचल में रहने वाले लेखकों ने बाकी कभी-कभार अपने इलाके की कथा लिखी तो यथार्थ की इस तरह परत-दर-परत पड़ताल की है कि वह करवट लेे रहे पूरे भारतीय समाज की कथा बन गई है। इस तरह भी कहा जा सकता है कि डकैत समस्या की ठीक-ठीक पहचान कराने में यहां के लेखकों ने चम्बल से बाहर के पाठकों को सहयोग किया है। इस दृश्टि से महेेष कटारे की कहानी ‘पार’ ए0असफल  की ‘ लैफ्ट हैण्डर ’ राजनारायण बोहरे की ‘ मुठभेड़’ प्रमोद भार्गव की ‘मुखबिर’ पुन्नीसिंह की ‘इलाके की सबसे कीमती औरत’ के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं।
कहानी में इतनी फुरसत नहीं होती कि कथाकार अपने सारे मंतव्य और कथ्य के सारे परिप्रेक्ष्य प्रकट कर सके, इस कारण लेखक उपन्यास का फार्म चुनता है। इस संदर्भ में राजनारायण बोहरे के उपन्यास मुखबिर पर चर्चा की जासकती है जिसे हिन्दी के एक ख्यात आलोचक ने चम्बल घाटी का खौफनाक सच कह कर सराहना की है। फ्लैषबैक के षिल्प में लिखी गई यह कहानी गिरराज नाम का पात्र अपनी याद के कैनवास पर उकेरता है जिसमें वह अपने अपहरण से लेकर फिरौती दे छूटने के प्रसंग और पुलिस द्वारा जबरन अपना मुखबिर बना कर उन्ही बीहड़ों में फिर से भटकने की घटनाएं सम्मिलित करता है। सारा उपन्यास दिलचस्प “ौली में लिखा गया है।
मूल कथा गिरराज और लल्ला नामक उन युवकों की है जिन्हे पहले डकैत पकड़ते हैं और बाद मे ंपुलिस। दोनों जगह आम आदमी का कोई सम्मान नहीं, उसकी कोइ्र्र पहचान नहीं, बस जाति ही उसकी पहचान है। गिरराज और लल्ला से जुड़े डाकू सरदार कृपाराम घोसी की कहानी भी कई टुकड़ों में बड़ी नफासत से लेखक ने पाठकों तक पहुंचाई है। एक सवारी बस से छह विषेश वर्ण के अपहृत लोगों के साथ डाकुओं का लोमहर्शक व्यवहार पाठक को भीतर तक हिला जाता है, खास तौर पर केतकी नामक पकड़ में आई उस अबोध युवती के साथ किया गया बागियांे का अष्लील व्यवहार तो पाठक को नये रोश से भर देता है। कथा का क्लाइमैक्स केतकी पर ही जाकर स्थिर होता हैं जिसे न उसके ससुराल वाले वापस लेने आते हैं न मायके वाले। गोपालक बिरादरी से जुड़े कारसदेव की लोककथा भी इस उपन्यास मंे सायास लाई गई दिखती है, क्योंकि इस कथा के बड़े गहरे आषय हैं। यह कथा एक नमूना मात्र है। आज उठ खड़ी हुई हर “ाोशित बिरादरी के अपने नायक खेाज लिए गए हैं, जो देव अवतार हैं जो अपने जीवन में गहरा “ाोशण झेलकर अंत में ताकतवर योद्धा के रूप में उदित होते हैं औेर अपने दुष्मनों को धूल मे ंमिला कर अपना राज कायम करते हैं।
उपन्यास से गुजरने पर कई तथ्य प्रकट होते हैं। .... कुछ बरसों में जिस तरह से हमारे समाज में हासिये के लोग केन्द्र में उभर कर आये हैं ठीक उसी तरह चम्बल घाटी में भी पिछड़ा तबका यकायक हथियार उठाकर सामने आया है। वे लोग जिन्होने सदा से दूसरों के लिए गोली चलाई अब अपने लिए बंदूुक उठा रहे हैं, और यह सिलसिला लगभग उसी समय आरंभ हुआ जब फूलन ने बीहड़ की पगडंडी पकड़ी थी। फूलन का यह प्रस्थान न केवल पिछड़े वर्ग का वरन् स्त्री वर्ग का भी “ाक्ति व सत्ता की ओर प्रस्थान था, जिसके परिणाम राजनीति से लेकर बीहड़ तक दिखे और पिछड़ा व स्त्री वर्ग सत्ता पर काबिज हुआ। फूलन भी तो बाद में सत्ता तक पहुंची। इस वर्ग का उदय चम्बल नदी की करारी धार के आस पास रहने वाले लोगों में बदलाव लाया है, जिसे बड़ी गहराई से मुखबिर उपन्यास पकड़ता है।
उपन्यास में आये पात्र कई जगह यथार्थ जगत के पात्र महसूस होते हैं, और यह गलत भी नहीं क्योंकि लेखक अपनी कथा के चरित्र आसपास के जीते जागते लोगों को देख कर ही खड़ा करता है।
इस उपन्यास के संवाद किताबी डायलॉग नहीं लगते क्योंकि चम्बल क्षेत्र में बोली जाने वाली भदावरी और सिकरवारी बोली में कहे गये ये संवाद जहां पात्र की मनोदषा और उसके संस्कारों को प्रकट करते हैं वहींं कहानी को गति और विस्तार भी देते है। इन संवादों में गालियां भी हैं और धमकियां भी। पुलिसिया रौब भी है और आम जन की पीड़ा भी। भाशा की नजर से सबसे ज्यादा अच्छे लगते है इस उपन्यास में जगह जगह पर आये चम्बल के जनकवि सीताकिषोर खरे के दोहे। ये दोहे इस समाज का पूरा व्याख्याकोष बन कर सामने आते हेंै।
आज के डाकू बीहड़ों मे तरसते हुए जीवन नहीं बिताना चाहते बल्कि अखबारों की सुर्खिया बन कर जीना चाहते हैं, इसका प्रमाण कुछ दिन पहले तक टेलीविजन के पत्रकारों के सामने निर्भय हो कर इंटरव्यू देता वह डाकू है जो बेधड़क हो कर बेहूदे तरीके से अपनी हरकतें और धमकियों को पब्लिक इन्फारमेषन सिस्टम पर प्रसारित करने को आकुल रहता था, बाद में जिसे ए टी एस ने महज दो घंटे के भीतर मार गिराया था। इस उपन्यास के डाकू भी अपना नाम और कारनामे छपाने को उत्सुक रहते हैं फिर निरक्षर होने के बाद भी अपनी पकड़ से वे खबरें पढ़वा कर सुनते हैं।
इस पूरे तंत्र में मुखबिरों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है। मुखबिर यानि गुप्त व प्रमाणिक खबर देने वाला जासूस, भेदिया, गुप्तचर। प्रकट रूप से लड़ते हुए भले ही हमे पुलिस और डाकू दिखें लेकिन इसकी भूमिका लिखते हैं मुखबिर। हां, चम्बल के डाकू तंत्र में मुखबिर की बड़ी भूमिका है जिसे इस उपन्यास में खूबसूरती से उठाया गया है। मन से और बेमन से चम्बल के लोग मुखबिरी करने को मजबूर हैं। मुखबिर के एक ओर कुंआ है दूसरी ओर खाई। कभी कभार उसे धन भी मिलता है। लेखक तो उस हर व्यक्ति को मुखबिर कहता है जो दुष्मन की खबरें लाकर सुनाये या दुष्मन की कमजोरियों को खोजकर बतायें। आज यदि कोई डाकू निडर है तो मुखबिर की बदौलत और यदि कोई्र अफसर एनकांउटंर स्पेषलिस्ट है तो मुखबिर की ही बदौलत।
लम्बे समय तक किए गऐ होमवर्क और खोज यात्राओं के बाद लिखे गये इस उपन्यास के केन्द्र में अपराधी नही अपराध है। राजनारायण बोहरे ने इस कथा में आई घटनाओं को सही व गलत के आसान खानों में न रख कर सीधा और सरल तरीके से अपने कथ्य का हिस्सा बनाया है। जैसा कि इसके ब्लर्ब पर के0बी0एल0पांडेय की टिप्पणी से जाहिर होता है।
संक्षेप में यह उपन्यास चम्बल घाटी में चहलकदमी करते बागियो की ही नहीं यहां के समाज की, बिरादरियांे की, वर्गों की , सरकारी अमले की, यहां के छुटभैये नेताओ की कथा है जिसे चम्बल में दहकते जातिवादी राजनीति और अपराध के आख्यान का आइना कहा जा सकता है।
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राधाविहार, निकट स्टेडियम, दतिया म0प्र0
पुस्तक- मुखबिर (उपन्यास)
प्रकाषक-प्रकाषन संस्थान दिल्ली
लेखक-राजनारायण बोहरे

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