बुधवार, 13 अप्रैल 2011

कृष्ण बिहारी लाल पांडे का गीत





कृ’ण विहारी लाल पांडेय का एक गीत-

आपके घर

ठिठुरते गणतंत्र ’ में बस आपके घर गुनगुने हैं!
हम यहां पर किस तरह हैं
आपको अब क्या बतायें।
जगह भरने को छपी हों
जिस तरह कुछ लघु कथाएँ।।
वि’ाय सूची में नहीं है नाम अपना
खास कुछ वैसा नहीं है काम अपना
और ऐसा भी नहीं ये चौखटे हमने चुने हैं । ठिठुरते गणतंत्र....
जिन्दगी में बस अभी तक
यही हमको मिल सका है।
गल्तियों का सफर प”चाताप
पर आकर थका है।
सुभाि’ात भी नहीं कोइZ काम आये
वाक्य छोटा मगर कई विराम आये
हम नहीं थे पंच केेवल फैेसले ेहमने सुने हैं। ठिठुरते गणतंत्र....
“ाोक का उपलक्ष्य है पर,
म्ंाच फूलों से सजे हैं।
हाथ में विस्थापितों के
तथाकथित मुआविजे हैं।
पेड़ पौधे गाँव खेत मकान छूटे
पीढ़ियों के मिले जुले विधान छूटे
अब हमे क्या फकZ पड़ता चने कच्चे या भुने हैं। ठिठुरते गणतंत्र....
रो”ानी की पाण्डुलिपियों को
मिले कैसे प्रका”ान।
जब पुरस्कृत हो रहे हैं
जुगनुओं के भजन कीतZन।
महोदय सविनय निवेदन प्राथZनाएँ
हो गई भवदीय अब सारी कलाएँ
आप जिन पर चल रहे ये गलीचे हमने बुने हैं।
ठिठुरते गणतंत्र में बस आपके घर गुनगुने हैं!
’ ठिठुरता गणतंत्र-परसाइZ जी से साभार
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क्ृ’णविहारी लाल पांडेय, सेवा निवृत्त पृोफेसर स्नातकोत्तर महाविद्यालय दतिया

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