शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

राजनारायण बोहरे की एक और कहानी







डूबते जल यान
                चूल्हे में लगी लकडी बहुत धुधुआ रही थी । सिलेण्डर कोने में लुडका पडा था ,शहर में गेस सिलेण्डर पन्द्रह दिन में नम्बर आता है  तब तक मिट्टी के चूल्हे और लकडी - कण्डा से जूझती रहेगी वह ।        
                खुल्ल खुल्ल खुल्ल !
      बाहर के कमरे से फिर खॅासने की आवाज आई है ।! अब्बल दर्जे के जिद्दी हैं बीडी को नहीं छोडेगें , और जब तकलीफ  भोगेंगे , तो खुद के अलावा  दुसरों को भी कश्ट पहुचाएगे । बाबूजी लकवे के शिकार हैं जब खॅासी चलती है तो दिवा ही कन्धेां से पकडकर उठाती है ओैर सीने को सहलाती है तभी ।  
                बाबूजी के अलावा दिवा को बाजार का काम भी देखना होता है सास जिन्दा होती तो कुछ हाथ बॅटाती लेकिन तीन वर्श पहले वे सुहागिन बनी , सजी -धजी, मॉग भर सिन्दूर , हाथ भर चूडी और पॉवो में तीन तीन बिछिया पहने स्वर्ग सिधारीं हैं । घर में दिवा अकेली है । उसका पति बिपिन छŸाीसगढ में डाक्टर हैं । कभी कभार महीने दो महीने में उसे छुट्टी मिलती है तो आ पाता है । यूॅ विपिन के बडे भाई नवीन यहीं है इसी शहर में नहर विभाग के दफ्तर में यू़ डी सी  है । अच्छी खासी कमाई है । चाहें तो बाबूजी ओर रश्मि को अपने साथ रख सकते हैं , लेकिन उन्हें तो सगों में सडाँध आती है । विपिन अपना कोर्स पूरा कर रहा था उन दिनों नवीन की पत्नी रूपा के माध्यम से आया रिस्ता, किसी कारणवश बाबूजी ने नहीं स्वीकारा तो नवीन भाई चिडकर अलग हो गये थे , । जैसे तैसे करके विपिन  ने डिग्री हासिल की फिर उसने कई जगह इन्टरव्यू दिये थे । छŸाीसगढ के धुर जंगली इलाके की पोस्टिंग मिलने पर चिन्तित हुए, एक बार वह नवीन के यहॉ भी गया , और अपनी अनुपस्थिति में घर की फिक्र करने की बात कही , तो नवीन भाई, बाबूजी के प्रति अनाप-शनाप बोलने लगे थे । खिन्न मन से विपिन डयूटी पर चला गया था ।                                                                                        एक दिन टेलीग्राम मिलने पर वापस आया , तो पता चला कि बाबूजी पर फालिज गिरा है । बिल्कुल लुंज -पुजं होकर बाबूजी खटिया पर लेटे मिले थे । विपिन तो घबरा ही गया था आनन -फानन में इन्दोर ले जाकर विपिन ने बडे अस्पताल में इलाज आरम्भ किया था । दो महीने तक इलाज कराया और जब बाबूजी थोडा चलने -फिरने की स्थिति में हुए तो उसने नोकरी की सुध ली थी जबलपुर वाली दीदी व जीजाजी को जल्द-से -जल्द विपिन की शादी निपटाने की फिक्र लग गई थी । उन दिनों दिवा ने एम ए फाइनल दर्शनशास्त्र की परीक्षा दी थी ,और रिजल्ट का इन्तजार कर रही थी ,कि एक दिन विपिन और उसके दीदी- जीजाजी उसे देखने अचानक आ पहँचे  । दिवा तब शरीर और मन के तर्क -युद्व के बीच निरुपाय -सी बैठी थी ।                                         बिपिन ने उसे एक नजर देखा और तुरन्त ही पसन्द कर                 लिया । दिवा का मैान उसकी सहमति मान ली गई थी ।
                कितनी दफा याद आया है दिवा को अपना वह अन्तर्द्वन्द्व । स्म्रति की जिस गली से होकर विपिन से उसकी शादी की बात याद आती है, उसके ही पास की गली में बैठा कोई और जैसे उस अन्तर्द्वन्द्व को कौंच कौंच कर जगाता है ।
वह यन्त्रवत सब कुछ करती रही थी शादी में जब लोग इकट्ठे हुए । दिवा ने अभी तक पिता का लाड देखा था और देखी थी अपने मन के महत्वाकांक्षी परिन्दे की असीम उडान । यूनिवर्सिटी की क्रिकेट टीम में वह विकेट कीपर के रूप में शामिल रहती थी और इसी कारण उसने प्रदेश ही नहीं देश के कई शहर अपनी टीम के साथ घूम लिए थे।  ससुराल पहुँच कर वह एकाएक घबरा ही गई ,क्यों कि एक देहाती घर था वह । अपने डैडी के नौकर -चाकरों से भरे घर में उसे कभी एक गिलास पानी भी अपने हाथ से नहीं पीना पडा था । जबकि यहॉ हर काम उसे खुद करना था, अपना भी  और परिजनों का भी । पहली रात देर तक रोती रही थी ।  शादी के चोथे दिन ही रसोई की राह दिखा दी गई जहॉ प्रविश्ट होते समय वह अपनी मम्मी की बेहताशा याद करती रही थी ,जिन्होंने स्त्रिीयोचित दूरगामी द्रश्टि से दिवा को कच्चा-पक्का खाना बनाना सिखा ही दिया था ।                                                               घर लोटकर वह अपने पूरे प्रयास के बाद भी चुप नहीं रह पाई थी । तडपकर उसने मम्मी से पूछा था क्यों नरक मे झोंक दिया उसे ? मम्मी विचलित हो उठीं थीं और डैडी भी भी उसके असंन्तोश से शान्त न रह सके थे डैडी आहिस्ता से बोले थे -देखो बेटा, आजकल  लडका सब देखते हैं । तुमको कितना रहना है उस घर में ? नोकरी पर रहना ही है तुम्हें । और बेटा जो होना था ,वह तो हो लिया । हम तो पराये हो गये तुम्हारे लिए ।संजीदा हो गये पिता की गोद में सिर छिपा लिया था दिवा ने ।       अगली दफा बाबूजी का आग्रह मानकर बिपिन असे छŸाीसगढ ले गया था । उस दफा जल्दी लोट आई थी दिवा । यहॉ सब कुछ ठीक-ठीक चलने लगा था। कि एक दिन अचानक अम्माजी की तबियत बिगड गई ओैर उन्हें अस्पताल ले जाना पडा था सीने में दर्द जान लेबा हो गया था । अस्पताल में ही  शरीर छूट गया । तार पाकर तीसरे दिन बिपिन आ पाया था माताजी की तेरही के बाद जिस दिन विपिन अपनी डियूटी पर लोटने की तैयारी कर रहा था उस दिन बाबूजी को सुबह से कुछ घबराहट होने लगी । सीने में दर्द और बेइंतहा गर्मी का अनुभव करते बाबूजी का चैक-अप जब खुद बिपिन ने किया तो पाया कि उन्हें हार्ट-अटेक हुआ है । स्थानीय अस्पताल में भर्ती करते-न- करते बाबूजी पर लकवे का दूसरा हमला हुआ । फिर तो विपिन प्राणपण से उनकी खिदमत में जुट पडा था टैक्सी करके वह फिर इन्दौर भागा था और बाबू जी को भर्ती करा दिया था ।
                इस बार सीबियर अटेक था ,इस वजह से डाक्टरों को भी ज्यादा उम्मीद न थी । बाबूजी  की प्राकृतिक चिकित्सा प्रारम्भ हुई थी । चुम्बक के पानी की मालिश होती , वही पानी उन्हें पिलाया जाता ।
                चमत्कार सा हुआ । बाबूजी अच्छे होने लगे । उनके हाथ- पॉव में हरकत शुरु हुई और मुँह से टूटे-फूटे स्वर निकलने लगे । अब जाकर सबने राहत की साँस ली थी । धीरे-  धीरे अपनी पुरानी हालत में लौटने लगे थे ।
                अचानक एक दिन अपने विभाग से विपिन को तार मिला । उसे तत्काल ज्वाइन करने  का आदेश दिया गया था । दिवा के जुम्मे सब कुछ छोडकर वह अपनी नोकरी पर भाग गया ।
                जब भी बिपिन आता वे दोनों अकेले में मिलने को तरस जाते । यदा-कदा ऐसा अवसर आता भी तो चिन्तित और व्यग्र बिपिन उससे उतावली में मिलता और उसी उतावली में पार हो जाता । वह क्षुव्ध हो उठती । हर बार की अतृप्ति अनबुझी प्यास, उसके मन में कुण्ठा बढा जाती ।
                दिवा चुपचाप उठी और किचन में घुस गई । उसने खना बनाया और बाबूजी को खिलाया , उसे अभी खाना नहीे खाना , क्योंकि आज गुरूवार का ब्रत हे उसका ।
                गुरूवार की याद आते ही उसकी स्मृति का दूसरा धडाक से खुल गया ।अरे बाप रे !आज तो दीपू आयेगा । उसे झटपट तैयार हो जाना चाहिए । नहीं तो उसे बागड बिल्लो बनी देख, जाने क्या-क्या सुनाने लग जाएगा । जहॉ का काम तहॉ छोडकर उसने बाल खोले और कघंी फेरने लगी ।
                दीपू! दीपू! दीपू!
                वह नाम उसके दिल-दिमाग में ताजगी भर देता है, पिछले कई वर्शौं से क्षण-क्षण । याद है उसे , दीपू से हुई मुलाकात । शादी के पहले की बात थी वह । दिवा को टायफाइड निकला था   दिवा की बडी दीदी श्ल्पिा उन्हीं दिनों मायके आई । शिल्पा के साथ एक अजनबी अल्हड-सा युवक भी था जो पूछने पर पता चला था कि वह था शिल्पा का देवर -दीपू! बाप रे! बचपन का वह दुबला पतला और शर्मीला दीपू अठारह-उन्नीस पार करते - करते कैसे खुबसूरत और जिन्दादिल युवक निकल आया था । दीपू ऊपर से  जितना मस्त और लापरवाह  भीतर से उतना ही भावुक और गम्भीर भी । कम  उम्र म में उसकी दृश्टी इतनी साफ और स्पश्ट थी , कि दिवा जैसी गम्भीर व पढाकू नव युवती उस के सामने नन्हीं बच्ची बनी टुकुर - टुकुर ताकती रहजाती ।
                हमेशा  दिवा को हँसाता - गुदगुदाता वह ढेर सारे चुटकुले छितराता रहता था  ।
                दीपू के आने के तीन दिन के भीतर उन दोनों में ऐसा लगाव हो गया कि एक-दूसरे से चुहल किये बिना उनका समय ही न कटता । पहली बार दिवा को अपनी रुचि का कोई मिला । वर्ल्ड -कप क्रिकेट से लेकर रणजी ट्रॉफी तक के खिलाड़ी और पॉप जॉर्ज संगीत से लेकर बुन्देलखंण्डी   लोक - संगीत तक नये से लेकर पुराने फैसन तक कोई भी तो एसा पक्ष न था, जिसको वह बारीकी से न जानता हो । शिल्पा ससुराल लौटी तो हवा पानी बदलने के लिये दिवा को साथ लेती आयी थी ।
                                फिर वह शायद अनिवार्य हादसा ही था उस रात, कि तब देर रात दिखाई जाने वाली शुक्रवार की फिल्म दूरदर्शन से प्रसारित हो रही थी ।बाहर मौसम बेहद खराब था । आसमान में गड़गड़ाते जलधर और चमकती बिजली वातावरण को अपनी रुपहली चमकसे एक पल के  लिये प्रकाशित कर फिर से अंधेरे में डुवा जाती थी । अपने कमरे में निकट बैठे दीपू और दिवा   टटोलने के लिये हाथ बढ़ाये,तो एक-दूसरे के अनियन्त्रित उत्तेजित शरीर उनकी जद में थे । घिरते   घुमड़ते बादल खूब बरसे उस रात ।    
                सुबह दिवा में संकोच और शर्म में डूबी थी, जब कि दीपू पूर्ववत स्वच्छन्द और मुखर मुद्रा मौजूद था दबे स्वरों में दिवा ने रात में गलत हो जाने की बात कही तो वह फट पडा था- कैसी गलती?काहे की गलती ?आपने समझा है कभी एसी प्यारी गलतियों के बारे में ? जिसे आप गलती कह रही हैं, वह
 तो इस दुनिया का मूल है सत्य है!
                ”पर हमारा समाज  और उसके कायदे
                ”किस कायदे की बातें कर रही हैं मैडम ?चलिए, आप की ही भाशा में बात करूँ।
आपने तो पुराण साहित्य खूब पढा है कोन देवता ऐसा है जो काम के पाश से बचा रह गया
है?इन्द्र! ब्रम्हा! महेश! है कोई उदाहरण?“
?
                ”   ध्यान रखो कि जायज-नाजायज रिश्तों की बातें नपुंसकों की बकवास है सबदीपू का स्वर तिक्त हो उठा था और दिवा को चुप रह जाना पडा था । इसके बाद दिवा ने प्रतिरोध नहीं किया था और कई दफा उस अनुभव को जिया था , । दीदी के यहाँ से लोटना बहुत अखरा था उम्र में पॉच वर्श छोटे नाबालिग दीपू के साथ जिन्दगीभर रहने की अनुमति कोन दे सकता था उसे, न घर वाले, न समाज और न कानून  ।
                घर लौटकर द्वन्द्व में जीने लगी थी वह कोमल मन पर पडे नैतिकता सम्बन्धी सस्ंकार उस पर हावी होने लगते थे।  उसके लिए लडका ढूँढा जाने लगा। बिपिन से रिश्ता हुआ।
                उसका विवाह हुआ। वह श्री मती दिवा बनकर इस घर में आ गई थी। अपने आपको नई जिन्दगी के प्रवाह में सम्मिलित करके उसने पिछला सब कुछ भुलाने का प्रयास किया था। बिपिन को तो घर में लगातार आते संकटों के कारण अपनी जिम्मेदारी और बीमार पिता से सरोकार रखने के अलावा इतनी फुरसत नहीं थी कि ज्यों-त्यों दिन गुजर रहे थे।  तभी हटात दीपू एक दिन उसकी ससुराल आ धमका था। दोनों मे बहस छिड गई थी पुराने सम्बन्धों को लेकर। दिवा पुरानी गलती न दोहराने की दुहाई दे रही थी, जब कि सूखकर कॉटा हो रही उसकी देह और दिनोंदिन बढते जा रहे चिडचिडेपन को अतृति- चिन्ह बताकर दीपू उसे प्रात्साहित करता रहा थार्। वह कहता था न पहले  गल्ती थी , और न अब है। पर वह न राजी थी । दीपू उसका मुखर प्रतिरोध देखकर वापस लोट गया था, और कई दिनों तक इस उलझन में उलझी रह गई थी कि किसके प्रति वफादार रहे वह, दीपू के या बिपिन के । मौजूद होने पर बिपिन पर भी तरस आता था उसे , क्याकरे बेचारा? न बाप के प्रति लापरवाह हो सकता है न अपनी नौकरी के प्रति । वैसे उसका तो दीवाना  है वह जब तक रहेगा ऐसे ताकता रहेगा, जैसे आँखों के रास्ते पी ही जायेगा उसे । घर और पिता से बचा रह गयाा समय वह दिवा को देता था। थके और श्लथ शरीरों को उस थोडे रात का मूल्य ही क्या था। हाँ बिपिन की गैर मौजूदगी में जरूर उसे गुस्सा आता रहता था।
                दीपू के लौट जाने के बाद बडी अन्यमनस्क बनी रही थी उस दिन और चाहती रही थी भीतर-ही -भीतर कि दीपू फिर लैाट आए। लेकिन जिस दिन दीपू आया, खुल कर स्वागत  नहीं कर सकी थी उसका किवाड खोलकर देहरी पर ठिठकी रह गई वह । कई क्षण बीत गए थे
                ”अन्दर आने के लिए नहीं कहोगी ?“
                दिवा ने एक भरपूर नजर से उसे देखा था और मुडकर भीतर चली गई थी। दीपू पीछे- चल पडा था।                 ”आओ भी नहीं कहा
               ”कुछ आगमन ऐसे भी होते हैं जिनकी प्रतीक्षा भी होती है और वे टल जाँए तो निश्कृति का बोध्
भी। शब्दों से स्वीकृति देने की निर्द्वन्द्वता और साहस नहीं है मुझमें दीपू । चाह तो होती है तुम्हारी ,पर जाने कैसे कॉटे बिछे हैं कि दौडकर तुम्हें अपने में समेट लेने की आतुरता ठिठक जाती है । पूछा मत करो तुम ।
                ”कैसे हो
                ”ऐसे पूछ रही हेा, जैसेपिछले जन्म के बाद मिली हो।
                ”तुमसे मिलकर हर बार पुनर्जन्म ही तो होता है मेरा।
                ”दर असल , ये दिमागी जडता ही तो तुम्हारी कमजोरी है।
                नहीं दीपू, मैं न लकडी-सी जल पाती हूँ और न आग से अप्रभावित हो रह पाती हूँ। सीलन और ताप के बीच धँुधआते रहना ही शायद मेरी नियति है। तुम समझा करो कुछ।
                इससे ज्यादा बात नहीं कर सके थे वे दोनों । रश्मि आ गई थी । फिर वह रात भी बातों -ही -बातों में बीत गई थी ,बिपिन केा भूल कर दीपू में खो गई थी वह । ढेर सी बातें और ढेर से विशय थे उन दिनों के पास, जुबान थकती न मन भरता था। सुबह दीपू लौट गया था।
                तब से यही क्रम जारी है। महीना पन्द्रह दिन मे दीपू आता है और कोशिश करता है कि उसकी झिझक टूटे , लेकिन दिवा उवर नहीं पाती है अपने द्वन्द्व से । कई दफा तो लगता है कि दीपू का आना सार्थक हो ही जाएगा, पर बात बस कुछ कदम आगे बढती है और श्लथ होकर गिरी रह जाती है मंजिल के पहले ही
                अचानक घंटी बजी तो चिहँक उठी। दरवाजा खोला तो गैस वाला था।वाह इस बार बडी जल्दी आ गई गैस।कहते हुए उसने रास्ता दिया और सिलेण्डर बदलवाने लगी।
                गैस वाले को गिनकर रुपये दे रही थी कि घण्टी फिर बजी। उसने दरवाजे की ओर झाँका तो तबियत प्रसन्न हो उठी । वहाँ मौजूद लकदक दीपू उसकी अनुमति के इन्तजार में तत्पर खडा था।                                                                                           0000

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