बुधवार, 23 फ़रवरी 2022
शुक्रवार, 19 जून 2020
एक सौ वर्ष पुरानी इन्दोर की पत्रिका वीणा में प्रकाशित हुई मलंगी कहानी
एक सौ वर्ष पुरानी इन्दोर की पत्रिका वीणा में प्रकाशित हुई मलंगी कहानी
राजनारायण बोहरे की कहानी
मलंगी
मैंने एक नजर चारों ओर
देखा, तो पाया कि वहाँ केवल
बच्चे ही नहीं थे, बल्कि मोहल्ले-भर
की औरतें भी जुट आई थी।
बीजुरी वाली जीजी द्रवित होती हुई कह रही थीं,
” इस बेचारी ने जिंदगी-भर सबकी सेवा की है,
जाने कौन-सा पाप हो गया कि ऐसे कष्ट भोगना पड़
रहे है। “
तुनककर जमुना बोली थी, ” पाप नही ंतो क्या था वो ? छिनारपना तो सबसे बड़ा पाप है। इसने तो सारे जिहाज तोड़ दिए
थे, कुछ दिनों से । अब उसी की
फल भोग रही है।”
बरोदिया वाली, मुँगावली वाली और टकनेरी वाली काकी ने जमुना की
इस बात पर असहमति जताई थी और वे बीजुरी वाली जीजी की बात का समर्थन करने लगी थी।
बच्चे भी चुप न थे, वे भी उसके गुण
गाए जा रहे थे।
उसके, यानी कि मलंगी के!
मलंगी, यानी कि हमारे मोहल्ले की किसी एक की नही,
सबकी पालतू कुतिया। धूसर रंग की, कद्दावर और भरपूर स्वस्थ इस कुतिया पर हम सबको
नाज था।
मोहल्ले का हर बच्चा उसे
सिर्फ अपनी कुतिया कहता था और इस मुद्दे पर परस्पर झगड़ बैठते थे। ऐसे ही एक बार
मेरा पिक्कू से झगड़ा हो गया था। पिक्कू ने मुझे टोला मारा, तो मँझले भैया ने उसमें लठिया हँचाड़ दी थी। इधर हम उसके लिए
लड़ रहे थे, और मलंगी किसी मस्त मलंग
की तरह बच्चों के साथ खेल रही थी। मलंगी हम बच्चों के संग पुलकती हुई खेलती थी। हम
लोग मलंगी को रोटी का टुकड़ा दिखा के कभी दौड़ लगाने, कभी लंबी छलाँग लगाने के लिए उकसाते रहते थें।
मलंगी को हमने बहुत छोटी
उम्र से इसी मोहल्ले में देखा है। मलंगी की माँ चम्पी भी हमारे मोहल्ले की प्यारी
कुतिया थी, जिसके लिए हर रसोई में हर
घर में खाना सुरक्षित रखा जाता था, और यही हाल मलंगी
का है। तब मलंगी बहुत छोटी थी कि उसकी माँ चम्पी एक दिन नगरपालिका वालों के परोसे
गए जहर के गुलाबजामुन खा गई। शाम तक चीखती हुई देह त्याग गई और मलंगी अनाथ हो गई
थी। हम सब लोगों के मन में अनायास ही मलंगी के लिए वात्सल्य उमड़ आया था। सब उसे
ढूढ़ कर अपने घर बुलाने लगे। फिर तो उसे पता लगा तो सुबह से दोपहर तक वह बारी-बारी
से हर घर में जाती और अपना खाद्य ग्रहण करती और
जब पेट भर जाता, तो मस्जिद के
मौलवी के दरवाजे पर छाँ-पछार लेट जाती।
मैं भेलसा रोड़ पर पहुँचा,
तो जाने क्यों एक अजनबी कुत्ता मुझ पर भौंकने
लगा। कुत्ते को हड़काने के लिए मैंने एक पत्थरिया उठाई और जोर से मारी। फिर क्या था,
कैंऊ-कैंऊ के स्वर में रोते उस कुत्ते ने जाने
कैसी आवाजें निकालीं कि आनन-फानन में जाने कहाँ से घिर आए ढेर-सारे कुत्तों ने
मुझे घेर लिया।
मैं घबरा उठा था। कई
कुत्ते मेरी तरफ बढ़ रहे थे, खासकर टोला
खानेवाला कुत्ता तो मुझ पर छलाँग ही लगाने को उद्यत था, कि अचानक जाने कहाँ से मलंगी प्रकट हुई और उस कुत्ते पर चढ़
बैठी। बाकी कुत्ते एक बारगी सन्नाटे में रहकर टुकुर- टुकुर मलंगी को ताकने लगे थे।
पर अगले ही पल मोर्चा बदल गया । उधर मलंगी ने कुत्तों के व्यूह को तोड़ते हुए जो
दौड़ लगाई, तो यह जा और वह जा। वह
उड़न-छू हो गई थी। उस दिन से मैं मलंगी का अहसानमंद हो गया था, मौका मिलने पर अपने हिस्से का दूध भी उसे पिला
देता।
मलंगी का मामा ‘ टीपू ‘ कद्दावर नस्ल का बड़ा फुर्तीला कुत्ता था। पर वह उन दिनों बूढ़ा हो चला था,
सो खारे-कुआँ को लाँघ जाने की कला का प्रदर्षन
उसने बंद कर दिया था। हम बच्चे इससे कुछ निराष से थे। क्योंकि हमारे मोहल्ले का
खारा कुआँ दस फीट चौड़ा कुआँ था, जिसे एक ही छलाँग
में लाँघ जाने का कौषल टीपू ने जाने कब प्राप्त कर लिया था। जब भी मोहल्ले के बाहर
का कोई बच्चा आता, हम लोग टीपू को
दौड़ाते हुए कुआँ तक लाते और लाँघ जाने को उकसाते। टीपू सहज रूप से कुआँ लाँघ
जाता। यह हमारे लिए बड़े गर्व की बात थी।
फिर एक दिन टीपू मर गया तो हमें लगा कि टीपू के साथ ही यह कला भी समाप्त हो जाएगी।
किसन और मुन्ना ने एक दिन
यह कला मलंगी को सिखाना शुरू किया, तो सब बड़े खुष
हुए थे। बाद में एक दिन मलंगी को भी यह कौषल प्राप्त हो गया, तो हम सब बच्चे फिर से गौरवान्वित हो उठे थे।
अब हम फिर से दूसरे मोहल्लेवालों और बाहर के मेहमानों के सामने मलंगी का यह कौषल
दिखाने लगे थे।
मलंगी धीरे-धीरे तगड़ी
होती जा रही थी और उसी अनुपात में उसकी आवाज में क्रूरता बढ़ रही थी। वह दिन-भर
यहाँ-वहाँ सोती हुई दिखती, पर रात को पूरी
निष्ठा से जागकर मोहल्ले की चौकीदारी करती। वह भूल जाती थी, कि हम लोग कितने निष्ठुर हैं, जो दिन में उस पर लाड़ दिखाते है और रात में बाहर निकाल देते
है, चाहे झमाझम पानी हो चाहे
कड़ाके की जाड़ा।
एक रात किसन के घर की
बाहरी दीवार मेें कोई बदमाष सेंध लगाने के चक्कर में था, कि मलंगी ने दबे पाँव आकर उसका हाथ उपने जबड़े में ले लिया
था। पता नहीं कैसे वह उठाईगीरा अपना हाथ छुड़ाकर भागा, लेकिन मलंगी ने भौंक-भौंक कर पूरा मुहल्ला जरूर जगा दिया
था। दिवार के पास पड़ी सब्बलिया, जमीन पर फैली खून
की बूँदें और दीवार में बनाया गया छोटा-सा छेद मलंगी की चौकसी की दास्ताँ बयान कर
रहा था। हम स ब फिर मलंगी के कृतज्ञ हुए थे।
सितंबर का महीना आया,
तो जाने कहाँ- कहाँ से ठट्ठ के ठट्ठ कुत्ते
हमारे मोहल्ले के चक्कर काटने लगे थे। वे सब मलंगी के इर्द-गिर्द लम्बी अपनी लम्बी
जीभ लटकाते घिरे करते थे। हम सब बच्चे
दहषत में थे, लेकिन मलंगी बड़ी निष्ंिचत
और लापरवाह-सी दीखती थी, उलटे इतराती थी। खामख्वाह
किसी भी कुत्ते पर खोंखिया कर चढ़ बैठती, और देर तक भौंकती रहती। हमारे मोहल्ले के बुजुर्गों को इन दिनों मलंगी बड़ी
दुष्मन-सी लगती थी। वे पाराषर मोहल्ला के कल्ला कुत्ता, रूसल्ले के नीचे के पंगा और पुराने बाजार के मोती कुत्ता से
तो पहले से ही नाराज थे, जो कि रात-बिरात
अकेले निकलते किसी भी यात्री को नोचने-खसोटने को उद्यत रहा करते थे। ऐसे बिगड़ैल
कुत्तों को अपने मोहल्ले में भला कौन पसंद करता सो जिसका मौका लगता ऐसे कुत्ते को
ठोंक ही देता उनके साथ कभी कभी मलंगी मे भी लठिया पड़ जाती थी।
फिर एकाएक सारे कुत्ते गायब
हो गए। बीजुरी वाली जीजी ने प्रसन्न होते हुए सिरोंज वाली चाची को बताया था कि
मलंगी अब गर्भवती है, जल्दी ही पाँच-छः
पिल्लों को जन्म देगी।
यह सूचना हमारी मंडली के
लिए बड़ी आल्हादकारी थी, हम सबको पाँच-छः
खिलौने जो मिलने जा रहे थे। हम सबने अपने -अपने घरों मे प्रसव के लिए सुरक्षित
कोने तलाष कर लिये थे और वहाँ मलंगी को घुमा भी लाए थे। मोहल्ले की सारी औरतें और
बच्चे व्यग्रता से मलंगी की प्रसव पीड़ा की प्रतीक्षा कर रहे थे। हम सबने उसके
संभावित प्रसूतिगृहों में रोटियाँ इकट्ठी करना शुरू कर दिया था। कहावत है, कि प्रसव के तुरंत बाद कुतिया को भूख लगती है
और ऐसे में वह अपना एकाध पिल्ला खा जाती है। हम नहीं चाहते थे कि मलंगी का एक भी
पिल्ला कम हो, इसलिए मलंगी की
प्रसवोत्तर भूख के लिए पर्याप्त खाना जुटाने के बाद हम निष्ंिचत थे।
प्रसव के लिए मलंगी ने
बीजुरी वाली जीजी का घर चुना। छः पिल्लों को जन्म दिया उसने। बीजुरी वाली जीजी बड़ी
खुष हुई, और उन्होंने हम बच्चों को
इस उपलक्ष्य में एक दावत दे डाली थी।
हम लोग सुबह-षाम मलंगी के
पिल्लों को देखने जरूर जाते थे। नर्म, गुदगुदे और नन्हे-नन्हे वे पिल्ले हम सबको बड़े प्यारे लगाते थे। बीजुरी वाली
जीजी ने बताया कि मलंगी उन बच्चों को दूध नहीं पिलाती थी, इससे बच्चों के बचने की गुंजाइष बहुत कम था। यही हुआ। रूई
के फोहों से उन पिल्लों को बचा। बच जाते तो सभी अच्छे कुत्ते बनाते, क्योंकि हरेक पिल्ला बीसा था। यानी कि बीस
नाखूनों के साथ जन्म लिया था, हरेक पिल्ले ने।
फिर कई सालों तक ऐसा ही
हुआ, पिल्ले ऐसे ही जन्म लेते
और ऐसे ही म जाते। हम लोगों को बहुत दुःख होता, बीजुरी वाली जीजी तो रोती भी थी। पर मलंगी इस सबसे बड़ी
बेपरवाह थी। मस्जिदवाले मौलवीजी कहते थे- इसका तो नाम ही मलंगी है। मलंगी यानी कि
मस्त मलंग-सी रहनेवाली मादा। सचमुच मस्त मलंग की ही तरह तो थी मलंगी। मोहल्ले के
लोग उसे आवारा भी कहते थे, तो कोई सड़क छाप
कुतिया भी कहने से न चूकते। पर उसको कोई फर्क न पड़ता, वह सबके प्रति वफादार थी।
मलंगी की वजह से हमारे
कभी बाहर से कोई आवारा और खूँखार जानवर नहीं आ पाया। अपने नुकीले पंजे, तीखे दाँत और क्रूर आवाज से वह घुसपैठिए में
दहषत पैदा कर देती थी। लेकिन उस बार एक ऐसा प्राणी हमारे मोहल्ले में घुस आया,
जो जमीन पर नहीं, मकानों और पेड़ों पर छलाँग लगाता था। इस कारण उसको मलंगी का
भी बिलकुल भय न था।
काले मुहँ का एक लंगूर
जाने कहाँ से भटक कर हमारे मोहल्ले में आ धमका था और सबकी नाक में दम किए था। वह
धड़ाधड़ छप्परों पर कूदता, हमारो कबेलू
फोड़ता, छतों पर सूखते अनाज-दालों
को बर्बाद करता और अचार तथा मुरब्बों के मर्तबान भी फोड़ डालता था। सब परेषान थे और
उससे निपटने के नए-नए उपाय खोज रहे थे।
अभी बीसेक दिन पहले की
बात है, कल्याण ने लंगूर को एक
नीचे से छाप्पर पर बैठा देख मलंगी को भी उठाकर ऊपर बैठा दिया था और मलंगी को लंगूर
पर छू कर दिया था। मलंगी लंगूर पर झपटी तो लंगूर यह जा और वह लंगूर तो लंगूर ही था,
वह एक डाल पर चढ़ा और दूसरी से होकर एक बड़ी ऊँची
छत पर जा पहुँचा। मलंगी बेचारी नीचे बैठी टाँपती रह गई थी और वह ऊपर बैठा दाँत
दिखा रहा था।
फिर तो दो दिन तक ऐसा ही
खेल चलता रहा। मलंगी नीचे बैठी रहती और वह ऊपर बैठा अपन अजीब-अजीब करतब करता रहता।
मोहल्लेवालों के साथ
लंगूर का बर्ताव अब बड़ा उग्र हो गया था। अकेले-दुकेले निहत्थे आदमी को देख वह अब
हमला भी करने लगा था। जो कुछ हाथ में मिलता, छीन लेता। कोई खाली हाथ होता, तो लंगूर जी - भर के नोचता - खसोटता और झट से ऊपर चढ़ जाता।
कभी-कभी वह लोगों के आँगन में उतर आता, और जो हाथ पड़ता, ले भागता।
एक दिन और अजूबा दिखा,
लंगूर ऊपर छप्पर पर बैठा हुआ किसी के घर से
उठाया गया रोटी गपक रहा था और नीचे बैठी मलंगी ऊपर मुहँ किए टुकुर-टुकुर उसे ताक
रही थी। एकाएक लंगूर ने एक रोटी उठाई और मलंगी की ओर उछाल दी। एक-दो मिनट तक मलंगी
कभी दायीं तो कभी बायीं आँख ऊँची करके रोटी को देखती रही, फिर उठी और सूँघ के मानो उसकी शुद्धता की पड़ताल की, फिर बड़े प्यार से छोटे-छोटे टुकड़ों में स्वाद
के साथ पूरी रोटी चबा गई। उस एक रोटी ने
उन दो विजातीय प्राणियों के बीच मैत्री की शुरूआत कर दी।
अब लंगूर जो कुछ भी छीनता,
बड़ी ईमानदारी से मलंगी को हिस्सा देता। अ बवह
नीचे भी उतर आता और मलंगी के ऐन बगल मे आकर बैठ जाता। उसके शरीर में से जुएँ
बीनता। मलंगी अपनी लंबी निकाल लंगूर की पीठ चाटने लगती।
हम लोग बड़े बेबस और हैरान
थे, कि अब इसके विरूद्ध किसे
भिड़ाएँ। इसने तो हमारा ही एक सदस्य तोड़कर अपने साथ मिला लिया। मोहल्ले के बुजुर्ग
अब दिन-रात मलंगी को गरियाते रहते जो नोचने-खसोटनेवाले जंगली लंगूर से दोस्ती कर
बैठी थी। हमारे घर-आँगन तक निर्द्वंद्व रूप् से घुस आनेवाली मलंगी हम सबको लंगूर
के असर के कारण बदली-बदली नजर आने लगी थी। हमारी गहरी आत्मीय रही मलंगी को ये क्या
सूझा था कि वह बाहरी परिवेष के प्राणी को अपना मान बैठी थी।
मोहल्ले की औरतें मलंगी
को बदचलन, धोखेबाज, आवारा, नकटी, छिनाल और न जाने
क्या-क्या बदनाम उपाधियाँ दे रहीं थीं, जबकि मलंगी लंगूर के साथ बहुत मस्त थी। दोनों दौड़ते हुए किसी भी दिषा में चले
जाते, फिर घड़ी-दो घड़ी बाद
हाँफते-काँपते लौटते। उनकी आँखों में मादक चमक होती और हरकतों में भरी होतीं
खूब-सी चुहलबाजियाँ। कभी वे दोनों छप्परों पर चढ़ जाते, तो एक मकान से दूसरे पर होते हुए तड़ज्ञतड़ कबेलू चटकाते
फिरते। लंगूर तो भाग जाता पर मलंगी को ताड़ना मिलती। हम सबको मलंगी में भारी
परिवर्तन दीखने लगा। लंगूर के साथ रहने के कारण अब उसमे बिना बात भौकने, हमला करने और खूब लंबी दूरी के छप्परों पर
छलाँग लगाने की प्रवृति आ गई थी।
आज सुबह की बात है। नगरपालिकावाले कुत्ता पकड़ने का पिंजरा लेकर
हमारे मोहल्ले मे घुसे। वे लंगूर को पकड़ने आए थे। हम बच्चे चिंतित थे कि लंगूर के
चक्कर में मलंगी को भी न घेर लिया जाए। पिंजरे को एक बनाके रख दी, फिर मोहल्लेवालों से कहा था, कि अपने-अपने छप्परों और छतों पर खड़े होकर
लंगूर को हड़काओ। सब लोग लाठी लेकर अपने घरों के ऊपर चढ़ गए और लंगूर को बिदकाने
लगे।
लंगूर ने यह नजारा देखा
तो वह घबरा गया और हड़बड़ाकर एक और को भाग निकला। मलंगी उसके पीछे-पीछे थी। बदहवास
होकर भागता लंगूर मोहल्ेले के दायीं ओर मौजूद तिलौआ बाग की ओर बढ़ने लगा था। इसी
क्रम मेे उसने जमुना की अटारी से मोहन की अटारी पर छलाँग लगाई, फिर नीम की डाली पकड़ी व उस पर चढ़कर उस ओर को
लपक गया था। इधर उसका अनुकरण करती मलंगी भी उसी जोष में दौड़ती हुर्इ्र आई और जमुना
की अटारी से मोहन की अटारी के लिए उछल पड़ी थी। पर लंगूर, लंगूर ही होता है और कुत्ता, कुत्ता। बीस फीट की ऊँची जमुना की अटारी से तीस फीट ऊँची
मोहन की अटारी के छप्पर पर दस फीट की गली
फाँदकर छलाँग लगाना मलंगी के लिए भला कहाँ संभव था! सो अपनी ही झोंक में मलंगी उछल
तो गई, मगर छप्पर तक पहुँचने के
बजाय वह मोहन की दीवार से टकरा बैठी और दीवार पर रिसकती हुई, नीचे पक्की गली में आ गिरी थी।
गिरते ही उसने आर्तनाद
किया था, जिसे सुन अपने-अपने घरों
में बैठे हमस ब बच्चे चौंक उठे थे और आनन-फानन में नीमतले जुट आए थे। बच्चे ही
नहीं औरतें और पुरूष भी एकत्रित हो गए थे वहाँ।
तब से सब लोग मलंगी को ही
घेर के बैठे है। मेरी तंद्रा टूटी तो मैंने मलंगी को तड़पते ही पाया।
हमारे मोहल्ले में
ढेर-अस्पताल के एक कंपाउंडर वर्माजी भी रहते है। अचानक बीजुरी वाली जीजी को यह
ख्याल आया, तो उन्होंने सबको याद
दिलाया। फिर क्या था ? सात-आठ बच्चों के
साथ पिक्कू के दादा वर्माजी को बुलाने चल दिए।
वर्माजी ने शायद घर पर ही
पूरा किस्सा सुन लिया था, सो वे अपने साथ
दवाइयों का बैग लिये चले आए।
पाँच मिनट तक वे मलंगी के
शरीर पर हाथ फेरते रहे, फिर अपना बैग
खोला और एक इंजेक्षन निकाल लिया। सिरिंज में एक पीला-सा द्रव भर के उन्होंने मलंगी
के कूल्हे में इंजेक्षन की सूई ठूँस दी। सूई बाहर निकाल के रूई से पोंछकर वे बैग
में रखते-रखते रूक गए, और कुछ सोचते हुए
से एक शीषी और निकाल ली। दूधिया रंग का वह पदार्थ दुबारा इंजेक्षन में भर के
वर्माजी ने एक बार और मलंगी को इंजेक्ट किया, फिर बीजुरी वाली जीजी से वोले, ‘‘चिंता मत करो जीजी, मलंगी ठीक हो जाएगी। दरअसल ऊपर से गिरने की वजह से इसकी कुछ पसलियाँ टूट गई
है। उनमें दर्द हो रहा होगा और गिरने की दहषत भी होगी, इस वजह से रो रही है। मैनें इंजेक्षन लगा दिया है, अब आराम से सोएगी ये कल तक। कल दर्द भी कम हो
जाएगा और इसका डर भी खत्म हो जाएगा।‘‘
हमने संतोष की साँस ली।
उधर नगरपालिकावालों ने लंगूर को पकड़ लिया था। इधर अगले चौबीस घंटे मलंगी सोती ही
रही। बीजुरी वाली जीजी उसे उठवाकर अपने घर ले गई थी, सो हम बच्चे दूसरे दिन सुबह वहीं इकट्ठे हुए। वहीं
बैठे-बैठे दोपहर ऐसे ही बीत गई ।
यकायक मलंगी ने अँगड़ाई ली,
तो हम उत्सुक हो उसे निहारने लगे। उसने आँखें
खोंली, सिर उठाया, और हमें देखकर भू-भू ं ं ं के प्रेमभरे स्वर
में आलाप लिया। मह बच्चे प्रसन्न हो उठे थे।
मलंगी ने दो-चार दिन के
बाद दुबारा चलना-फिरना शुरू किया तो वह बिलकुल बदली हुई-सी नजर आई। अब वो बीचवाली
मलंगी न थी बल्कि वही पुरानी मलंगी थी, जो हमारे मोहल्ले की चौकीदार थी, हर घर की सदस्य थी और हम बच्चों की प्यारी सखी थी। वह अपने अंदाज में घर-घर
पहुँचकर अपना हिस्सा पाने लगी और पूर्ववत् रात को अपनी ड्यूटी निभाने लगी।
पता नहीं लंगूर उसकी
यादों में शेष था या नहीं, पर हम सब एक
दुःस्वप्न की तरह लंगूर को भूल चुके थे।
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मंगलवार, 16 जून 2020
a asfal ji ki kahani - sulakshnaa
सुलक्षणा
ए असफल
वे कई दिनों से नहीं मिली थीं।
मन ही मन पुकार रहा था, शायद! शाम ढलने के बाद जब मैस के लिए निकल रहा था, अचानक हंसती-मुस्कराती
सामने आ खड़ी हुईं।... दिल उन्हें पाते ही जोर-जोर से उछलने लगा।
‘कहां जा रहे हो, जितेन!’ उन्होंने मीठे स्वर में पूछा!
‘खाने के लिए....’ मैं मुस्कराया।
‘चलो, आज कहीं बाहर चलते हैं, वहीं खा-पी लेंगे।’ उन्होंने अधिकारपूर्वक कहा।
दिल की धक्धक् और तेज हो गई। सौभाग्य ओरछोर बरस रहा था। मदहोश-सा मैं उनके क़दम से क़दम मिला कर चल पड़ा... फिर कब हमने ऑटो लिया और कब ‘फेमिली हट्ज’ पहुंच गए, जैसे- पता नहीं चला।
अपने शहर से बी.एस-सी. करके यहां साइकोलॉजी
में एम.ए. करने आया था। वे यदाकदा मैट्रो में मिल जाती थीं। जाने क्या जादू था उस चितवन में कि मैं दो-तीन दिन तक भुला नहीं पाता। पर पूछ भी नहीं पाता कि आप आगे कहां तक जाती हैं, कहां काम करती हैं- मिस?
दिल हरदम एक मिठास से भरा रहता। वे अतिशय प्रिय लगतीं। सम्माननीय
और संभ्रांत भी। न उनके बगल में बैठने की हिम्मत पड़ती, न बात करने की। वहां वे अक्सर अपना बैग, छतरी या कोई पुस्तक रख लेती थीं।
पर एक दिन मुझे उनके सामने ही गैलरी में खड़ा होना पड़ा तो उन्होंने अपने चेहरे से लट हटा कर सीट से बैग उठाते हुए धीरे से कहा, ‘बैठ जाइये... खाली है।’
शायद, वह शुरूआत थी। देर तक उनकी मीठी आवाज और किंचित किंतु मोहक मुस्कान मेरी चेतना पर छाई रही। मुझे अपने स्टेशन का ख्याल ही नहीं रहा। वे जब उतरने लगीं तब चौंका। पर कम से कम यह जान गया कि वे यहां तक आती हैं!
हमेशा बौद्धिक बातें करतीं। बात करते-करते एक दिन उन्होंने कहा, ‘मैं तुम्हें तुम्हारे इस पारंपरिक नाम के वजाय सिर्फ जितेन कहं- तो बुरा तो नहीं मानोगे।’
कुछ दिनों बाद शहर में फिल्म महोत्सव चल रहा था। एक दिन अचानक मेरी नज़र पड़ी- वे एक तगड़े-से आदमी के साथ मेरे पीछे वाली लाइन में बैठी थीं! फिर मुझे पता नहीं चला कि हॉल में कौन-सी फिल्म चली और उसकी कहानी क्या थी?
मैं साइकोलॉजी
में एम.ए. कर रहा था... मुझे अपनी बुद्धि पर तरस आ रहा था।
तब वह बरस ऐसे ही चुपचाप बीत गया। दिल की चोट भुला कर मैंने पढ़ाई में चित्त दे लिया। मैंने अपना रिजल्ट बिगड़ने से बचा लिया।
पर अगले सत्र की शुरूआत में एक शाम वे दोनों फिर एक थियेटर में मिल गए मुझे! उनकी मांग में सिंदूर की हल्की टिपकी और भंवो के बीच लाल बिंदी देख कर मैं इतना आहत हुआ कि नाटक बीच में छोड़ कर चल दिया। वे पीछा करती हुई गैलरी तक आ र्गइं। और बेहाल-सी पुकारने लगीं-
‘जितेन... जितेन... सुनो-तो, इतने दिनों से कहां थे तुम...’
मैंने पलट कर देखा- उनके चेहरे पर चमक पर आंखों और आवाज में बला की घबराहट थी। जैसे, वे सिर्फ मुझी को चाहती हों! मुझे ही ढूंढ़ रही हों... और अब बिछुड़ जाने की आशंका से व्याकुल हिरणी की भांति छटपटा रही हों!
मेरे मुंह से कोई बोल नहीं फूटा। आंखों में आंसू उमड़ आए थे। तब वे पहली बार मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर बोलीं, ‘अच्छा-ठीक है, तुम्हारा मन खराब है... चले जाओ अभी, लेकिन कल मैं तुमसे मिलना चाहूंगी।’
और उनकी ओर देखे बगैर पॉकेट से अपना एड्रेस कार्ड निकाल कर उनके हाथ पर रख कर मैं भागता-सा चला आया। अगले दिन जानबूझ कर दिन भर अपने कमरे पर नहीं रहा। जू में भटका और जानवरों में उन्हें तलाश करता फिरा। घड़ियाल के आंसुओं की तुलना में मुझे उनके आंसू मिले... तेंदुओं के धब्बे चीतों और बाघों तक आते-आते धारियों में बदल गए थेे, पर उनके बीज बिल्लियों
में मौजूद हैं... यह मैं जान गया था। शाम को जैसे ही गेट खोला नज़र देहरी से चिपक कर रह गई। वहां एक फोल्ड किया हुआ कागज पड़ा था, जिस पर लिखा था- ‘तुम्हारी, सु’।
दिल सहसा ही धड़कने लगा।
सुबह देर से हुई। और तब एक व्यथित हृदय मुझे फिर उनके पास ले जा पहुंचा।
उन्हें जैसे, खबर थी, मैं पहुंचूंगा!
वे पहले ही आधे दिन की छुट्टी की अरजी दे चुकी थीं। मुझे एक गिलास पानी पिला कर बोलीं, ‘कॉफी पिओगे?’
‘इन दिनों में तो मुझे कोक पसंद है।’ मैंने भी अपनी ओर से सहजता का परिचय दिया। वे मुस्करा कर अपना बैग कंधे पर डाल कर क़दम से क़दम मिला उठीं।
मैंने कनखियों से देखा- न मांग में सिंदूर की टिपकी, न माथे पर बिंदी। क्रीम कलर के सलवार सूट और उससे मैच करती जूतियों में वे फिर एवरग्रीन नज़र आ रही थीं। कुछेक मिनट बाद हम अशोक वृक्षों से भरे बगीचे में पहुंच गए। एक साफसुथरी बैंच की ओर उन्होंने इशारा किया और हम एक साथ बढ़ कर उसी पर बैठ गए।
और मैं अभी भी इधर-उधर देखने का यत्न कर रहा था, जबकि वे खासतौर से मुझी से नज़रें मिलाना चाहती थीं! आखिरकार मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे से बोलीं, ‘देखो- बसंत आ गया!’
तब चिहुंक कर मैंने धीरे से अपना हाथ छुडा लिया।
‘वे मेरे पति हैं, जितेन!’ उन्होंने समझाने की कोशिश की।
‘जानता हूं!’ मैंने खीजे हुए स्वर में कहा। जैसे पहले से भरा बैठा था।
सहसा वे नर्वस हो र्गइंं। बेचारगी के साथ बोलीं, ‘इसका मतलब यह कि अब मेरे लिए सारे रास्ते बंद हो गए...!’
मैं बोला नहीं। हमलोग चुपचाप उठ गए। न मैंने कोक मांगा न उन्होंने कॉफी पिलाई।
और मैं जानता था कि इस साल मुझे 60 परसेंट तक गाड़ी खींचनी थी। आउट ऑफ 55 परसेंट नहीं बनी तो पी.एच-डी. धरी रह जाएगी।
...लेकिन मेरा मन उन्होंने चुरा लिया था।
हार कर मैं फिर से मैट्रो रूट से अपने कॉलेज जाने लगा। और वे कई दिन तक नहीं मिलीं तो एक दिन धड़कते दिल से उनके दफ्तर भी पहुंच गया।
पता चला वे रिजाइन कर गई हैं!
अब उनका चेहरा मेरे इर्द-गिर्द घूम रहा था। वे तो जैसे इस महानगरीय जनसमुद्र में बंूद की तरह विलीन हो गई थीं।
मैं बार-बार पछताता मैंने ख्वामख्वाह वियोग का वरण कर अपना जीवन नर्क बना लिया। कैरियर गड्ढे में धकेल दिया। आज मैं समझ सकता हूं कि किसी के साथ विवाह हो जाने से आत्मा रहन नहीं हो जाती। मन को कोई बांध नहीं सकता...। हम कितने मूर्ख हैं! जीवन अस्थाई है और फेरे डाल कर स्वामित्व का भरम पालते हैं। एक गतिशील देह को अपने अधिकार में लेकर जड़ कर देना चाहते हैं। जैसे- यह भी कोई नदी हो!
सहसा एक दिन रेडियो एफ.एम. पर मुझे उनका मोहक स्वर फिर सुनाई पड़ा! डूबते दिल को जैसे सहारा मिल गया।... अगले दिन मैं सीधा रेडियो स्टेशन पहुंच गया। पता चला, वे कैजुअल आर्टिस्ट हैं। स्टूडियो से निकलने में उन्हें एक घंटे की देर थी।
अभी मैं पारदर्शी वेटिंगरूम
में बैठा ही था कि वे सहसा स्टूडियो का गेट खोल कर चौड़ी गैलरी में आ गईं! उन्हें अरसे बाद इतने करीब देख कर मेरा दिल हलक में आने लगा। सोफे से उठ कर मैंने शीशे का दरवाजा खोला और गैलरी में उनके पीछे-पीछे चलने लगा। जैसे- कोई दूध पीता शिशु अपनी मां के! एकदम बेहाल और पनीली आंखें लिए।... मगर वे घूम कर प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव्ह के कमरे में घुस गईं। मैं दरवान की तरह बाहर खड़ा रह गया।
भीतर ही भीतर रोने लगा। कि- अब मैं कभी उनसे मिल नहीं सकूंगा। मैंने उन्हें हमेशा के लिए खो दिया है।...
तभी अचानक चमत्कार की भांति उनकी मीठी आवाज ने एक बार फिर चौंका दिया मुझे, ‘जितेन-तुम!’
मेरे मुंह से केवल हवा निकल कर रह गई।
‘तुम यहां!’ खुशी उनकी आंखों में सिमट आई थी।
‘मैं आपकी प्रतीक्षा...’ आगे शब्द नहीं जुड़े, मैंने भर्राए कण्ठ से कहा।
‘ओह- जितेन...’ उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया और हम एक ऑटो मैं बैठ गए।
रास्ते भर मैं सिर्फ रोता रहा और वे मेरे सुन्न पड़ गए हाथों को अपनी गर्म हथेलियों से सहलाती रहीं। उन्हें मेरा पता कंठस्थ था। वे ऑटो वहीं ले आईं। किराया भी उन्होंने ही चुकाया। मैंने उतर कर सिर्फ अपना रूम खोला। मैं अभी सहज नहीं था। मुझे यकीन नहीं आ रहा था कि वे मिल गई हैं।... लेकिन इस तरह दूर-दूर और बतियाए बगैर भी हम उस कमरे में ज्यादा देर नहीं बैठ सकते थे। इस बात का ख्याल मुझे भी था और उन्हें भी। जल्द ही हम फिर से ताला लगा कर बाहर आ गए। बिछुड़ना अब पहले से अधिक दुश्कर लग रहा था। जब में उन्हें ऑटो में बिठा रहा था तब उन्होंने लगभग पुकार कर कहा था, ‘जितेन... अब हम कब मिलेंगे!’
मुझसे बोला नहीं गया। उनकी आंखों की तड़प मेरे हृदय में उतर आई थी। मैंने इतना असहाय खुद को कभी नहीं पाया। ...मगर इसके बावजूद उस शाम मेरा दिल इतने गहरे आत्म विश्वास से भर गया कि मैं एक उम्दा गीत गुनगुनाता
हुआ अपने कमरे पर लौटा। मेरा हृदय सचमुच एक सच्ची प्रसन्नता और प्रफुल्लता से भर गया था
दोनों वक्त मैस जाने लगा। स्वास्थ्य
पहले की तरह हरा-भरा हो गया। परीक्षा के लिए मैंने फिर कमर कस ली... मुझे लगने लगा कि सबकुछ पढ़ा हुआ है- डिवीजन आसानी से बन जाएगी। तैयारी के कारण अब मैं कमरे से प्रायः कम निकलता था। जिन दिनों दुपहर में ड्यूटी होती, वे रेडियो से लौट कर मेरे कमरे पर होती हुई अपने घर जातीं। एक प्लेटोनिक ऊर्जा सदैव आसपास मंडराती रहती जिसकी रौशनी में मेरी पढ़ाई परवान चढ़ रही थी।
पर उस दिन अचानक वे रात दस बजे के बाद रेडियो से लौटीं, कहने लगीं, ‘मुझे बहुत तेज भूख लग रही है-जितेन! सिलेण्डर आज नाश्ते में ही बोल गया था। तुम चल कर स्टोव में चार पंप कर दो तो खाना बनालूं!’
‘आपके घर!’ मैं उत्साह में मुस्कराया।
‘हां!’ उन्होंने पलकें झपकाईं, पुतलियां चमक रही थीं।
मैं फटाफट तैयार हो गया। ऑटो उन्होंने छोड़ा नहीं था, हम उसी में बैठ कर आगे बढ़ गए। ...रास्ते भर में उनके घर के नक्शे में उलझा रहा।
मगर हकीकत में हम एक बार फिर फेमिली हट्ज के लॉन में खड़े थे! एक गहर्रे िडप्रेशन से उबर कर सामान्यतः
मैं मुस्कराने लगा। इस क्षण किसी भी कोण से विवाहित नहीं लग रही थीं वे। फूल-सी हल्की, सुंदर और वैसी ही सुवासित। मेरा हृदय, शायद उनके हृदय से मिलने के लिए एक बार फिर मचलने लगा था।...
और तब जिस नशे के आलम में मैंने उनकी आंखों में आंखें डाल कर सिर्फ उन्हीं को याद करते हुए चुपचाप खाना खाया, उसी की डोर पकड़ कर वे मेरे दिल में उतर्र आइं। खाने के बाद मैंने घड़ी देखी और उदास हो गया-
‘एक बजने को है, तुम्हारे हस्बेंड चिंता करते होंगे-सु!’
वे मुझे गौर से देख रही थीं, मंद-मंद मुस्काने लगीं। फिर आंखों में एक अजीब-सी कशिश लिए बोलीं, ‘मुझे लग रहा था- आज तुम जाने नहीं दोगे!’
ओह! मैं यकायक झनझना गया। और मैंने कुछ कहना चाहा, पर मेरा गला फंसने लगा। उन्हें रोक पाना इस जिंदगी में संभव नहीं था।...
‘तुमने बहुत जल्दी करली, सु!’ मैंने रुंधे गले से कहा।
वे चकरा गईं। फिर अर्थ समझ कर उनकी आंखों के किनारे भीग गए। और दो क्षण बाद फंसी-फंसी-सी आवाज में बोलीं, ‘उन्होंने मुझे अब तक पाया कहां-जितेन! वे टूर के बहाने हफ्ते-दो हफ्ते में हमेशा भाग खड़े होते हैं...’
मैं यकायक चेहरा ताकने लगा। पर वे आगे नहीं बोलीं, एक निश्वास छोड़ कर रह र्गइं।
...अब मैं उनके खालीपन को, डिप्रेशन को और कुंठा को समझ सकता था।... धीरे-धीरे नर्वस होने लगा। यह जानते हुए भी कि- उनकी आंखें में अब एक जंगी तूफान मचल उठा है।
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